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गोपालकृष्ण गांधी,
फर्क कब नहीं रहे हैं हमारे बीच? हम में, हमारे समाज में, हमारे देश में हमेशा रहे हैं और रहेंगे। कोई भी ऐसा जमाना न होगा, जब हम में भेद न थे। हम में भेद-भावना न थी।
हम 'हम' हैं भाई साहब, और वे 'वे' हैं। उनका भोजन भिन्न है, उनके त्योहार भिन्न, उनकी हंसी, उनके मजाक भिन्न, उनके विश्वास भिन्न, पोशाक भिन्न, उनके कुरते अलग 'टाइप' के, पाजामों का 'कट' दूसरा, उनकी टोपियां तो भाई साहब 'टोटली डिफरेंट।' उनकी भाषा भिन्न, सोच अपनी, लेखन-पठन-पाठन उनका अपना... और फिर, कहने की जरूरत नहीं।
हम 'हम' हैं, और वे 'वे'। उनके तौर-तरीके अलग, रहन-सहन अलग, लिबास अलग, रंग अलग, हमारी आंखों में सूरमा, उनकी आंखों में काजल। हमारी आस्तीनों में इत्र, उनके माथे पर चंदन। उनके गहने तो हमारे दागिने। उनकी कलाइयों की चूड़ियां अलग। उंगलियों की अंगूठियां अलग। उनकी मौसीकी अलग, सुर अलग। कुल तवारीख उनकी अलग है। कैलेंडर उनका अलग। महीने अलग। साल अलग। सच पूछें, तो हमारी और उनकी... क्या कहें... संस्कृति भिन्न है।
भाई साहब, कहानी बिल्कुल अलग है उनकी, हमारी कहानी से।
तो बहन जी यह बताएं... आपने अपनी बच्चियों के लहंगे सिलने के लिए उस दरजी को नहीं दिए?
जी दिए तो सही, अब्दुल मियां को।
और अपने पुराने शॉल रफू के लिए नहीं दिए?
जी दिए तो कुदसिआ को... बहुत साफ काम करती है। फिर भी, भिन्नता तो भिन्नता है ही...
जब हनुमान चालीसा की पुरानी कॉपी फट रही थी, तो क्या बाबूजी ने जिल्द मरम्मत के लिए नहीं दी थी?
जी, नन्हे खान साहिब को दी थी और उन्होंने काफी लगन से उस जिल्द को दुरुस्त किया था।
तो सलामत मियां बतलाएं, आप घर के सामान उसी पंडित जी की दुकान से खरीदते हैं न?
जी जनाब, बरसों से... बडे़ शरीफ इंसान हैं रामदास शर्मा... मजाल है कि एक दाना भी दाल का कम पड़ जाए तोल में... और जब यह कोरोना चल रहा था, मुझसे दो-दो महीनों तक उन्होंने उधारी न लिए।
और डॉक्टर साहब आपके?
जनाब क्या बताऊं, बनर्जी डॉक्टर डॉक्टर नहीं, फरिश्ता हैं। उनकी आंखों में जो रहमत है और हाथों में जो हुनर, खुदा की मेहरबानी है।
और सलामत मियां बतलाएं? आपकी दुकान जो है... रद्दी की...।
जी, उसको मैं रद्दोबदल की दुकान कहता हूं।
सॉरी सलामत मियां, तो रद्दोबदल की जो दुकान जो, उसमें आपको बिजनेस सबसे मिलती है न, न कि सिर्फ...?
जी-जी जनाब... सबसे मिलती है... यह इलाका बिल्कुल हिंदू इलाका है। इक्के-दुक्के मुसलमान मिलेंगे आपको यहां। बड़ी इज्जत से माल देते हैं। हां, मैं घर के अंदर नहीं जाता। अलबत्ता, किसी ने न आने को कभी नहीं कहा। मगर मैं खुद संभल जाता हूं... एक बार गरमियों के दिन थे। जनाब, बड़ी प्यास लग रही थी। अंदर बहन जी ने देखा। बोली- ठहरिए। अंदर से एक गिलास ठंडा पानी ले आईं। खिड़की पर रख दिया। जनाब, फ्रिज का पानी था। समझिए, मैं बस फिरदौस पहुंच गया। खुदा से मिन्नत की उन बहन जी की खुशियों के लिए।
लेकिन जनाब, मैं फर्क की जो बात कर रहा था, वह अपनी जगह।
तो बहन जी, भिन्नता है। भिन्नता रहेगी। मैं स्वीकार करता हूं, लेकिन भिन्नता से आपको समस्या क्यों हो रही है? क्या आप में और पूर्वोत्तर के समाज में भिन्नता नहीं? क्या आप जिसे संस्कृति कहती हैं, उसमें और दक्षिण की संस्कृति में भिन्नता नहीं? उनसे तो आपको कोई तकलीफ नहीं होती? अब्दुल कलाम जब हमारे राष्ट्रपति थे, तब उन पर तो आपको गर्व ही गर्व था। ए आर रहमान का वंदे मातरम् आपने सुना होगा। क्या उतना सुंदर वंदे मातरम् कहीं और सुना है? बहन जी, जरा सोचिए, भिन्नता का विपरीत या विलोम क्या है?
समानता?
हां है तो सही। लेकिन उसका एक और विपरीत है - नीरस एकरसता। भारत की खूबी नहीं, उसका सौभाग्य है कि उसमें इतनी विविधता है। जरा सोचिए बहन... प्रयाग के इस्तेमाल में और इलाहाबाद के प्रयोग में मैं भारत को हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान को भारत में पाता हूं। और दोनों को उस इंडिया में, जिसमें हनुमान चालीसा के जिल्द नन्हे खान मजबूत बनाते हैं और सलामत कबाड़ी को एक लक्ष्मी-समान महिला पानी देती है। हमारा देश भिन्नता का परिचायक है। उसका उपासक भी। उसको नफरत के जहर से बचना और बचाना है। नफरत हमारी प्रकृति में, हमारी संस्कृति में नहीं है। जैसे जहर हमारी खुराक में नहीं है। जवाहरलाल नेहरू ने जाकिर हुसैन को भारत का उप-राष्ट्रपति बनाया, अटल बिहारी वाजपेयी ने अब्दुल कलाम को भारत का राष्ट्रपति। इंदिरा गांधी ने खुर्शीद आलम खान को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया, तो नरेंद्र मोदी ने आरिफ मोहम्मद खान को केरल का राज्यपाल बनाया।
क्यों? क्योंकि वे मुसलमान थे/हैं? नहीं। क्योंकि वे काबिल और सम्माननीय हिन्दुस्तानी थे/हैं। क्योंकि उनमें वह था/ है, जो हमें बताता है कि भारत में नफरत के लिए जगह नहीं। यह विश्वास का घर है, एतबार का मुल्क। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने हमें 'जय हिंद' का नारा दिया और भगत सिंह ने 'इंकलाब' का, बाबा साहब ने समता का। नफरत उनसे दूर भागती थी। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई बनारस के विश्वनाथ जी को अपनी दैवी गूंज सुनाती है। लता मंगेशकर की आवाज अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम हम सबको वह कहती है, जो बापू कह गए थे- सबको सन्मति दे भगवान! हिंसा उनसे दूर भागती थी और नफरत उनके सामने मुंह ढंक लेती थी।
हिंसा का जमाना है हमारा। आतंकी अपनी-अपनी गुफाओं में सक्रिय हैं। यदि उनमें से कोई भारत पर प्रहार करता है, तो केंद्र सरकार सक्षम है उससे निपटने में। हम भारत के लोगों को अपना संयम और सामाजिक ऐक्य बनाए रखना है, ताकि हिंसा व नफरत हमें कमजोर न कर दें। हर प्रकार के विचार व विचारधारा के लिए जगह है भारत में, नफरत के लिए नहीं। यहां हम मरीजों को औषधि व प्यासों को पानी देते हैं, जहर नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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