सम्पादकीय

प्रकृति को हारने न दीजिए

Gulabi
5 Jun 2021 7:47 AM GMT
प्रकृति को हारने न दीजिए
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सर्वमान्य सिद्धांत है कि यदि हम प्रकृति की रक्षा करेंगे, तो वह हमारी रक्षा करेगी

नमन दीक्षित। प्रकृति रक्षति रक्षिता : यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि यदि हम प्रकृति की रक्षा करेंगे, तो वह हमारी रक्षा करेगी। मनुष्य एवं प्रकृति का संबंध अत्यन्त गहरा और चिरकालिक है। मनुष्य स्वयं प्रकृति का एक अंश है। जिन तत्वों से प्रकृति का जन्म हुआ, वे सभी तत्व मनुष्य के निर्माण में भी सहायक हैं। प्रकृति ने जीव के लिए स्थल, जल, वन और वायु के रूप में एक विस्तृत आवरण निर्मित किया है, जिसे हम 'पर्यावरण' की संज्ञा देते हैं। परंतु आज प्रकृति प्रदत्त जीवनदायी वायु, भूमि और जल प्रदूषण के कारण जीवन घातक बन रहे हैं। प्रकृति को नष्ट करने वालों के बारे में कहा गया है : 'काला धुआं उड़ाने वालों, जल को जहर बनाने वालों। जल्दी सोचो, समझो वरना, सारा खेल बिगड़ जाएगा। प्रकृति उजड़ जाएगी, तो जीवन बहुत पिछड़ जाएगा।' प्रकृति के सान्निध्य में व्यक्ति के भीतर का मौन जागृत हो उठता है। इस मौन को प्राकृतिक नियमों से साधना अत्यंत शांतिदायक होता है। इस अनुभूति से हमारी शिथिल और सामान्य बुद्धि, विवेक, दृष्टि सब जीवन के बारे में उत्कृष्टता से संवर जाती है। जीवधारी चाहे छोटा हो या बड़ा, शांत हो या शोर मचाने वाला, प्रकृति सभी को मिलजुलकर साथ-साथ आगे बढ़ने का मौका देती है। परंतु अभी चिंता है कि प्रकृति के साथ जुड़कर एक संतोषदायक जीवन की संभावना नहीं बढ़ रही है। मिट्टी के कटाव एवं उत्पादकता में कमी से भूख एवं पोषण की समस्या विकराल रूप धारण कर रही है एवं मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2020 में भारत को 107 देशों में 94वें स्थान पर दिखाया गया है। भारत को विश्व की एक महाशक्ति बनने के लिए कुपोषण को जड़ से खत्म करना होगा। भावी पीढ़ियों को कुपोषण और उसके चलते बीमारियों से बचाकर ही एक नए भारत के निर्माण की नींव रखी जा सकती है। सबसे जरूरी जल प्रकृति-प्रदत्त अनमोल उपहार है। जल शक्ति मंत्रालय की ओर से शुरू किए जाने वाले अभियान 'कैच द रेन' को सफल बनाना होगा। इस अभियान का मूलमंत्र है : पानी जब भी जहां भी गिरे, उसे बचाना है। जल स्रोतों की सफाई, वर्षा जल का संचयन करना है एवं उन्हें प्रदूषण से बचाना है। वन भी प्रकृति की अनुपम देन हैं। वन विश्व के लिए वातानुकूलन तथा जमीन के लिए आवरण का काम करते हैं। वे भूमिक्षरण को रोकते है, जल का संचयन करते हैं, हरित गैसों को सोखते हैं, जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापमान में कमी लाते हैं, सूखा, अकाल, बाढ़ की विभीषिका से मुक्ति दिलाते हैं। वैदिक मुनियों ने राष्ट्र के सांस्कृतिक, सौन्दर्यमूलक एवं आर्थिक विकास में वनों की भूमिका आवश्यक मानी थी। तमाम धर्मों में वनों के महत्व को स्वीकार किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा 2030 के लक्ष्य 15 में टिकाऊ वन प्रबंधन पर जोर दिया गया है। गरीबी, भुखमरी, बेकारी, बीमारी, विषमता एवं शोषण से मुक्ति पाने के लिए हमें देश को हरा-भरा बनाना होगा तथा वनवासियों को निराशाओं एवं नकारात्मकताओं से निकालकर आगे बढ़ने का पूरा मौका देना होगा। जैविक संपदा किसी भी राष्ट्र की अनमोल धरोहर होती है। जैव विविधता के मामले में भारत की गणना विश्व के संपन्न राष्ट्रों में की जाती है। फिर भी लिविंग प्लानेट रिपोर्ट 2020 के अनुसार, वर्ष 1970 से 2016 के बीच लगभग 60 प्रतिशत पशु, पक्षी, जलचर तथा सर्प एवं मछलियों की संख्या में कमी आई है। जानवरों और पौधों की अनेक प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। जैव विविधता संरक्षण एवं संवद्र्धन द्वारा ही हम अपनी राष्ट्रीय धरोहर को बचा सकते हैं। प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए यह अनिवार्य है। हमें पर्यावरण के सामने मौजूद चुनौतियों से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के कारण ही विविध प्राकृतिक आपदाओं का आगमन हो रहा है। धरती के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए निम्न उपाय अपनाने पड़ेंगे - एक, जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी, 2050 तक कार्बन-रहित विकास का लक्ष्य अपनाना। दूसरा, अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को अपनाना है, जैसे - सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, हाइड्रोजन इत्यादि। तीसरा, पेड़ों/वनों का संरक्षण करना है, अधिक वृक्षारोपण तथा वनों को आग से बचाना भी प्राथमिकता होनी चाहिए। चौथा, प्लास्टिक, कूड़ा-कचरा का समुचित उपयोग एवं प्रबंधन करना है।

आज पर्यावरण की चिंता करते हुए बार-बार ध्यान जा रहा है कि कोविड-19 महामारी ने जीवन तथा जैविकी पर गहरी चोट की है। आशंका है, चमगादड़ जनित यह रोग सारे महाद्वीपों तक पहुंच गया है। अमेरिकी, यूरोपीय देशों में भी इसने नाक में दम कर रखा है, जिन्होंने विकसित राष्ट्र होने का तमगा पहन रखा है। इस घड़ी में हमें पर्यावरण संरक्षण के संकल्प एवं संयम, दोनों पर खरा उतरना होगा। कोरोना जल्दी चला जाए तथा निकट भविष्य में दूसरी महामारी न आए, इसके लिए हमें जंगली जानवरों से दूरी बनाकर रहना है। उनके मांस खाना तथा उन्हें पालतू बनाने की आदत का त्याग जरूरी है। हरित मानसिकता अपनाकर हमें देश को हरा-भरा तथा जैव विविधता के संरक्षण एवं संवद्र्धन का प्रयास करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण लोगों की जीविका से जुड़ा है। पर्यावरण का बिगड़ना गरीबी, भुखमरी, असमानता, बेरोजगारी बढ़ाता है, क्योंकि उनके जीवनयापन का साधन सीधे प्रकृति से जुड़ा है। जमीन बिगड़े, तो किसान मिटा, पानी कम तो मछुआरा मिटा, नदी-तालाब सूखे, तो गांव मिटे। हमें देखना चाहिए कि प्रदूषण ने भी महामारी के खिलाफ हमारी लड़ाई को कमजोर बनाया है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रकृति के संरक्षण से हमारी ज्यादातर समस्याओं का निदान संभव है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है- प्रकृति नहीं डरकर झुकती/ कभी भाग्य के बल से/ सदा हारती वह मनुष्य के / उद्यम से श्रम जल से। आज सारा विश्व प्रकृति के साथ परस्पर निर्भरता को सुदृढ़ करना चाहता है। अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते में वापस आ गया है। ब्रिटेन जैव विविधता बढ़ाने में सबसे आगे है। भारत इंटरनेशनल सोलर एलायन्स द्वारा सौर ऊर्जा के उत्पादन बढ़ाने में विकसित देशों की मदद कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र पूरी ताकत से सतत विकास द्वारा विनाशकारी समस्याओं का समाधान निकालने में व्यस्त है। शेक्सपियर ने लिखा था कि 'प्रकृति का हल्का सा स्पर्श, बना देता दुनिया को एक।' एजेंडा 2030 सतत विकास, पेरिस समझौता 2015 जलवायु परिवर्तन, मरुस्थलीकरण को रोकने तथा जंगली जानवरों के समुचित प्रबंधन से हम प्रकृति तथा मानव, दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। इसी में हम सबका भविष्य निहित है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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