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संसद को ही मत हराओ!

Triveni
13 Aug 2021 1:23 AM GMT
संसद को ही मत हराओ!
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संसदीय लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष बेशक संसद के भीतर हार-जीत सकते हैं मगर संसद कभी नहीं हारती।

आदित्य चोपड़ा| संसदीय लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष बेशक संसद के भीतर हार-जीत सकते हैं मगर संसद कभी नहीं हारती। मगर आज हम जिस मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं वहां हमने वर्षाकालीन सत्र के अन्तिम दिन बुधवार को 'संसद' को ही 'हरा' दिया। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में निश्चित रूप से बुधवार को काला दिन कहा जायेगा क्योंकि इस दिन राज्यसभा में जो हुआ उससे भारत की स्वाधीनता के लिए कुर्बानी देने वाली हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों की आत्मा स्वर्ग में ही बिलख-बिलख कर रोई होगी। जिस लोकतन्त्र को पाने के लिए देश की कई पीढि़यों ने अपना बलिदान दिया उसकी हालत आजादी के 74 वर्ष बाद ही हमने ऐसी कर दी कि स्वयं संसद ही भर-भर आंसू रोने के लिए मजबूर हो रही है। यह संसदीय प्रणाली अंग्रेज हमें तोहफे में देकर नहीं गये हैं बल्कि इसे पाने के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के लाखों लोगों ने जेल की हवा खाई है और लाठी- गोलियां झेली हैं। पहली बात यह है कि ऐसी कौन सी मजबूरी थी जिसकी वजह से केवल 19 बैठकों वाले संसद के वर्षाकालीन सत्र को दो दिन पहले ही 17 बैठकों में समाप्त कर दिया गया?

दूसरा प्रमुख सवाल यह है कि ऐसी कौन सी वजह थी कि जिसके कारण संसद के दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा में देश के ज्वलन्त मुद्दों पर रचनात्मक बहस नहीं हो सकी ? इस सन्दर्भ में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे को दोषी बता रहे हैं और वह जनता जिसने अपने एक वोट की ताकत से इन दोनों सदनों में ही अपने प्रतिनिधियों को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से चुन कर भेजा है, वह किसी चौराहे पर अवाक खड़ी हुई हर आते-जाते से मंजिल का पता पूछ रही है। जिस तरह दोनों ही सदनों में 20 के लगभग विधेयकों को पारित कराया गया और बिना बहस (केवल एक पिछड़ा वर्ग विधेयक को छोड़ कर) के भारी शोर-शराबे के बीच ध्वनि मत से इन्हें कानून बनाने की प्रक्रिया में डाला गया उससे यह तय करने की कोशिश की गई कि संसदीय लोकतन्त्र में विपक्ष के मत को बहुमत की आवाज से दबाया जा सकता है जबकि वास्तव में यह संभव नहीं है क्योंकि संसद के भीतर विपक्ष में बैठे हुए सांसदों के पास भी मतों की प्रतिशतता का बहुमत 1967 के बाद से लगातार चला आ रहा है। (एकाध अपवाद को छोड़ कर ) अतः प्रश्न यह है कि संसदीय प्रणाली के तहत सदनों को चलाने की जिम्मेदारी लेने वाले अध्यक्ष क्या कर रहे हैं। लोकतन्त्र में बेशक संसद को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की होती है मगर इसका जरिया सदनों के अध्यक्ष ही होते हैं। वे समूचे सदनों के प्रतिनिधि होते हैं और प्रत्येक सत्ता व विपक्ष का सांसद उन्हीं की मार्फत अपने अधिकारों का संरक्षण प्राप्त करता है। लेकिन बुधवार को जिस तरह विपक्ष के शोरगुल को शान्त करने के लिए राज्यसभा में मार्शलों को अचानक बुला कर सदस्यों से हाथापाई की गई वह संसद के इतिहास में इससे पहले कभी नहीं हुआ। इसके साथ यह और भी ज्यादा गंभीर है जो समूचे विपक्ष की तरफ से श्री राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि बुधवार को संसद की सुरक्षा में लगे मार्शलों के अलावा बाहर से कुछ लोग बुलाये गये और उन्हें मार्शलों की नीली वर्दी पहना कर सांसदों से हाथापाई करने के लिए छोड़ा गया। यह काम तब हुआ जब सदन में बीमा विधेयक को विपक्ष के विरोध के शोरगुल के बावजूद ध्वनिमत से पारित कराया जा रहा था। विपक्ष की मांग थी कि इस विधेयक को सदन की प्रवर समिति को भेजा जाये। पिछले 17 दिनों से सदन में किसी भी विधेयक के पारित होने के समय ऐसा ही माहौल रहता था और विधेयक पारित हो जाता था। संसद में जो कुछ हुआ इसका संज्ञान संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय को लेना होगा कि क्योंकि वह संसद के भी संरक्षक हैं। उनके ही आदेश से संसद के सत्र का प्रारम्भ और अवसान होता है। राष्ट्रपति संसद का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। इसके साथ ही राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति वेंकैय्या नायडू साहब को इस मामले की जांच करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाने होंगे।
संसद परिसर में केवल लोकसभा अध्यक्ष का आदेश चलता है और हर सरकारी कारिन्दा या विभाग उनके मातहत काम करता है। दोनों सदनों के सभापति जब अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठते हैं और सदन चलाते हैं तो उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं रहता कि सरकार किस राजनीतिक दल की है। वे केवल सदन के नियमों से बन्धे रहते हैं और उन्हीं के अनुसार सदन की कार्यवाही चलाते हैं। क्योंकि सदन जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का होता है अतः विपक्षी दलों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे सत्ता पर आसीन लोगों की जमकर जवाबतलबी करें और उन लोगों के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करें जिन्होंने उन्हें चुना है। लोकतन्त्र को इसीलिए दुतरफा आने-जाने वाला मार्ग कहा जाता है। लोग विपक्षी सांसदों से भी जवाबतलबी करने का अधिकार रखते हैं और पूछ सकते हैं कि क्या वजह रही कि उन्होंने किसानों की चल रही लम्बी हड़ताल के हल के बारे में संसद में सवाल नहीं पूछा? क्या मजबूरी रही कि बेतहाशा बढ़ती महंगाई के बारे में उन्होंने संसद में जवाब तलब नहीं किया? वहीं सरकार भी कह सकती है कि उसने पेगासस जासूसी कांड के बारे में सम्बन्धित मन्त्री का स्वैच्छिक बयान दिलाया तो विपक्ष पूछ सकता है कि जब समस्या का संज्ञान ले ही लिया गया तो पूरी बहस की मांग क्यों नहीं मांगी गई। मगर इस पर स्वीकृति या अस्वीकृति सदनों के अध्यक्षों को देनी थी सरकार को नहीं। अतः संसद की जीत और हार का सम्बन्ध विधायिका से ही जाकर जुड़ता है। दुखद यह है कि विधायिका ने स्वयं ही संसद की हार का रास्ता ढूंढा।


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