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- संसद को ही मत हराओ!
आदित्य चोपड़ा । संसदीय लोकतन्त्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष बेशक संसद के भीतर हार-जीत सकते हैं मगर संसद कभी नहीं हारती। मगर आज हम जिस मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं वहां हमने वर्षाकालीन सत्र के अन्तिम दिन बुधवार को 'संसद' को ही 'हरा' दिया। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में निश्चित रूप से बुधवार को काला दिन कहा जायेगा क्योंकि इस दिन राज्यसभा में जो हुआ उससे भारत की स्वाधीनता के लिए कुर्बानी देने वाली हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों की आत्मा स्वर्ग में ही बिलख-बिलख कर रोई होगी। जिस लोकतन्त्र को पाने के लिए देश की कई पीढि़यों ने अपना बलिदान दिया उसकी हालत आजादी के 74 वर्ष बाद ही हमने ऐसी कर दी कि स्वयं संसद ही भर-भर आंसू रोने के लिए मजबूर हो रही है। यह संसदीय प्रणाली अंग्रेज हमें तोहफे में देकर नहीं गये हैं बल्कि इसे पाने के लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के लाखों लोगों ने जेल की हवा खाई है और लाठी- गोलियां झेली हैं। पहली बात यह है कि ऐसी कौन सी मजबूरी थी जिसकी वजह से केवल 19 बैठकों वाले संसद के वर्षाकालीन सत्र को दो दिन पहले ही 17 बैठकों में समाप्त कर दिया गया?