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यूक्रेन में हालात जैसे-जैसे बिगड़ते जा रहे हैं, दुनिया भर में इस युद्ध के दुष्प्रभावों को लेकर बहस भी तेज होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से रूसी हमले के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास नाकाम हो जाने के बाद बुधवार को वैसा ही प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासभा की आपात बैठक में पेश किया गया। यह प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया, लेकिन सुरक्षा परिषद की ही तरह यहां भी भारत ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। इसी संदर्भ में हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने गुरुवार के अंक में प्रकाशित संपादकीय में कहा कि भारत को अपने रुख पर दोबारा विचार करना चाहिए। उसके मुताबिक मतदान से गैरहाजिर रहकर तटस्थता दिखाने के बजाय भारत को इस मामले में खुलकर रूस के खिलाफ स्टैंड लेना चाहिए। संपादकीय कहता है कि आक्रमणकारी भूमिका में आकर परमाणु युद्ध की धमकी दे रहे रूस के खिलाफ सभी देश एकजुट हो रहे हैं। पारंपरिक तौर पर गुटनिरपेक्ष माने जाने वाले स्विट्जरलैंड और फिनलैंड जैसे देशों ने भी अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है। ऐसे में भारत कब तक अपने पुराने रुख पर बना रह सकता है? संपादकीय में याद दिलाया गया है कि विदेश नीति की सबसे अहम कसौटी हमेशा राष्ट्रीय हित को ही माना जाता है।
मगर सवाल यह है कि क्या मौजूदा हालात में भारत के राष्ट्रीय हित उसे अपना रवैया पूरी तरह बदल कर अमेरिका के पाले में खड़े होने की इजाजत देते हैं? इस संदर्भ में पहली बात यह है जो इन दिनों बार-बार दोहराई भी जाती रही है कि भारत के लिए हथियारों का सबसे बड़ा सप्लायर देश रूस ही है। इसमें रातों-रात कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता। ऐसा करने पर अरबों डॉलर के हथियार किसी काम के नहीं रह जाएंगे और नई सप्लाई हासिल करने में वक्त लगेगा। इससे देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। दूसरी बात यह है कि भारत ने यूक्रेन मामले में तटस्थ रुख अपनाया है। युद्ध जल्द खत्म करने की अपील की है। वह शांतिपूर्ण तरीके से इस मसले का समाधान निकालने का हिमायती है। आज भी भारत गुटनिरपेक्षता की परंपरागत विदेश नीति पर चल रहा है, जो मूल्यों पर आधारित रही है। यह आजादी के बाद से भारतीय विदेश नीति की बुनियाद रहा है। इसी नीति की वजह से दुनिया में भारत ने स्वतंत्रता मिलने के तुरंत बाद ही अपनी पहचान बना ली थी। गुटनिरपेक्षता के कारण ही शीत युद्ध के दौरान भारत ना ही सोवियत संघ और ना ही अमेरिका के कैंप में गया। भारत आज भी उन्हीं सिद्धांतों पर चलते हुए, अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए क्वाड जैसे मंचों पर अमेरिका के साथ है तो दूसरी तरफ चीन के दबदबे वाले शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन और आसियान के साथ भी जुड़ा हुआ है। रूस भी शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन का अहम सदस्य है। इसलिए यूक्रेन मामले में भी भारत को यह नीति नहीं छोड़नी चाहिए।
नवभारत टाइम्स