सम्पादकीय

हिंदी को लेकर भावुक ना हों क्योंकि बिना अंग्रेजी के आगे बढ़ना अब आसान नहीं है

Rani Sahu
25 Oct 2021 8:28 AM GMT
हिंदी को लेकर भावुक ना हों क्योंकि बिना अंग्रेजी के आगे बढ़ना अब आसान नहीं है
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हमारे देश में नब्बे की उम्र पार कर चुके कुछ लोग कमाल के हैं

नीरज पाण्डेय हमारे देश में नब्बे की उम्र पार कर चुके कुछ लोग कमाल के हैं. इन्हीं में से एक हैं सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट फली सैम नरीमन. इनके नाम में जो सैम जुड़ा हुआ है, उसे आम तौर संक्षेप में 'एस' बोला जाता है (यानी फली एस नरीमन). दरअसल सैम फली के पिता का नाम है. सैम एक ऐतिहासिक किरदार है जो कि प्राचीन फारस का एक नायक था. फिरदौसी के शाहनामा में भी इसका जिक्र है. इस किताब के मुताबिक सैम के पिता का नाम नरीमन था. जबकि रूस्तम इसी सैम का पौत्र था. वही रूस्तम जिसका बेटा था सोहराब. रूस्तम और सोहराब पर ब्रिटिश कवि मैथ्यू ऑरनॉल्ड ने 1850 के दशक में एक खंड काव्य लिखा. इसके करीब 100 साल बाद भारत में रूस्तम-सोहराब नाम से फिल्म भी बनी. खैर, पद्म विभूषण से सम्मानित फली एस नरीमन की वरिष्ठता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वो 1972 में भारत सरकार के एडीश्नल सॉलिसिटर जनरल बन गए थे. इमरजेंसी की घोषणा हुई तो इसके विरोध में उन्होंने 26 जून 1975 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. आज ये सारी बातें इसलिए क्योंकि पिछले दिनों फली ने एक कार्यक्रम में शानदार भाषण दिया. भाषण यूं तो युवा वकीलों के लिए था. लेकिन करीब घंटे भर की स्पीच में ऐसी कई बातें सामने आईं जो किसी भी पेशे या उम्र के लोगों के लिए उपयोगी साबित हो सकती हैं. खास तौर पर उन लोगों के लिए जो अंग्रेजी को 'विस्थापित' करके हिंदी को स्थापित करना चाहते हैं.

अंग्रेजी पढ़ने का मतलब अंग्रेज बन जाना नहीं होता
फली एस नरीमन ने युवा वकीलों से कहा कि 'खुद को स्थापित करने के लिए अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ जरूरी है. ऐसा किसी को अंग्रेज बनाने के लिए नहीं है. बल्कि पेशे में कामयाबी के लिए है. ये भी याद रखना चाहिए कि अंग्रेजी अब विदेशी भाषा नहीं है. ये भारत की एक आधिकारिक भाषा है. इसलिए हमें अंग्रेजी में पढ़कर अपनी जानकारी और प्रवीणता को दुरुस्त करना चाहिए'. इसके पीछे फली का एक तर्क ये भी है कि भारतीय कानून का उद्गम अंग्रेजी भाषा है. जो लोग वकालत के पेशे में नहीं हैं, वो इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि दुनिया भर का ज्ञान-विज्ञान जिस भाषा में आज इंटरनेट पर सबसे ज्यादा सुलभ है, वो भाषा अंग्रेजी ही है.
हाल ही में सिविल सर्विसेज 2020 के फाइनल नतीजे आए. यूपीएससी ने अभी इससे जुड़ी विस्तृत रिपोर्ट नहीं जारी की है. लेकिन, कोचिंग संस्थानों से जो आंकड़े मिल रहे हैं, उनके आधार पर अंदाजा लगाया जा रहा है कि मेरिट लिस्ट में शामिल डेढ़ प्रतिशत (यानी सिर्फ 11) उम्मीदवारों ने ही हिंदी माध्यम से परीक्षा दी थी. ये एक अलग विषय हो सकता है कि क्या भारतीय भाषाओं के अभ्यर्थियों के साथ भेदभाव हो रहा है? लेकिन, एक सच तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सफलता के लिए अंग्रेजी अनिवार्य सी हो गई है.
ये तब हो रहा है जबकि इंजीनियरिंग जैसी तकनीकी शिक्षा भी क्षेत्रीय भाषाओं में शुरू हो रही है. इसकी वकालत करने वाले चीन का उदाहरण देते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि चीन जैसे देश ने तकनीकी शिक्षा के लिए अनुवाद का काम बड़े पैमाने पर किया है. ध्यान देने की बात ये भी है कि अंग्रेजी हमारे देश के उन बच्चों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होने में मदद करती है, जो इंजीनियरिंग, मेडिकल पढ़ते हैं या फिर वैज्ञानिक बनते हैं. इसी साल जून में आंध्र प्रदेश की सरकार ने फैसला लिया कि राज्य के सभी सरकारी और निजी संस्थानों में डिग्री की पढ़ाई अनिवार्य रूप से अंग्रेजी माध्यम में होगी. तर्क ये है कि तेलुगू में पढ़कर छात्र अंग्रेजी मीडियम वालों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे.
दिनशा फरदुनजी मुल्ला की कहानी सुनी है आपने?
फली एस नरीमन ने अपनी आत्मकथा Before The Memory Fades (इससे पहले कि मैं भूलने लगूं) में दिनशा फरदुनजी मुल्ला का प्रेरक वर्णन किया है. 1868 में जन्में दिनशा मुल्ला अंग्रेजों के राज में भारत के जाने-माने न्यायविद हुए. कहानी कुछ यूं है कि दिनशा मुल्ला ने अंग्रेजी साहित्य में बीए करने के बाद कवि बनने की ठान ली. उस समय ठीक-ठाक घरों के लड़के वकालत की पढ़ाई करते थे. सो पारसी कारोबारी परिवार के दिनशा मुल्ला को भी वकील बनने की सलाह दी गई. लेकिन दिनशा असमंजस में थे. उन्होंने ब्रिटिश कवि अल्फ्रेड टेनिसन को एक चिट्ठी लिख कर सलाह मांगी कि क्या करना चाहिए. दिनशा ने साथ में अपनी कुछ कविताएं भी भेज दी. अल्फ्रेड टेनिसन का उस दौर में बड़ा शोर था. वो ब्रिटेन के राजकवि थे. दिनशा को उम्मीद नहीं थी कि टेनिसन का जवाब आएगा. लेकिन जवाब आया. टेनिसन ने लिखा- 'प्रिय श्री मुल्ला, मैंने आपकी सारी कविताओं को बड़े ध्यान से पढ़ा. मुझे लगता है कि आपके लिए कानून की पढ़ाई बेहतर रहेगी.' फली अपनी किताब में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि 'कल्पना कीजिए यदि टेनिसन ने दिनशा मुल्ला को खुश करने के लिए ये लिख दिया होता कि उन्हें कविता लिखनी चाहिए तो भारत एक महान न्यायविद को खो बैठता.' दिनशा मुल्ला ने बाद में Principles of Mahomedan Law और Principles of Hindu Law जैसी महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तकें लिखीं. इसी साल फरवरी में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने दिनशा मुल्ला की किताब को आधार मानते हुए एक केस में फैसला दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की को अपनी मर्जी से निकाह की इजाजत देता है.
फली एस नरीमन ये उदाहरण इसलिए दिया है कि वो करियर के चुनाव में प्रैक्टिकल होना जरूरी समझते हैं. फिर बात चाहे पढ़ाई का माध्यम तय करने की हो या फिर कोर्स. खुद फली के पिता भी चाहते थे कि उनका बेटा सिविल सर्विस में जाए. लेकिन उस दौर में ICS की परीक्षा के लिए इंग्लैंड जाना होता था. फली ने लिखा है 'मैं जानता था कि मेरे पिता लंदन जाने का खर्च वहन नहीं कर पाएंगे. उस समय एक द्वितीय श्रेणी के आर्ट्स पढ़ने वाले विद्यार्थी के लिए ज्यादा विकल्प नहीं थे. खास तौर पर ऐसे छात्र के लिए जो गणित और विज्ञान से परिचित ना हो. ऐसे छात्रों का अंतिम सहारा कानून की पढ़ाई पढ़ना था.'
जस्टिस रमना और फली नरीमन की बातें विरोधाभासी नहीं हैं
देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पिछले दिनों न्याय व्यवस्था में इंग्लिश के इस्तेमाल को लेकर आम आदमी के प्रति फिक्र जताई थी. जस्टिस रमना ने कहा था कि 'ग्रामीण इलाकों से अपने पारिवारिक झगड़ों को लेकर कोर्ट पहुंचे पक्षकारों के लिए अदालत एक अजनबी दुनिया होती है क्योंकि आम तौर पर अंग्रेज़ी में की जाने वाली बहस उनके लिए विदेशी होती है.' उन्होंने हैरानी जताई थी कि 'हमारी अदालतों की कार्य प्रणाली मूल रूप से औपनिवेशिक है, जोकि भारत की ज़रूरतों से मेल नहीं खाती है'. ध्यान देने की बात ये है कि जस्टिस रमना और फली नरीमन की बातें आपस में विरोधाभासी नहीं हैं. जस्टिस रमना आम आदमी के लिए अदालती कार्यवाही को सुलभ बनाने की बात कह रहे हैं. फली नरीमन अंग्रेजी को अपनाकर दक्षता बढ़ाने की बात कह रहे हैं. भारत जैसे देश के लिए दोनों ही बातें जरूरी हैं.
ऊपर हमने 19वीं सदी के जिस ब्रिटिश कवि मैथ्यू ऑरनॉल्ड का जिक्र किया. उनकी कविता एब्सेंस की एक पंक्ति है- 'हम इसलिए भूल जाते हैं क्योंकि ऐसा करना ज़रूरी है, इसलिए नहीं कि एक दिन हम भूल जाएंगे'. फली की आत्मकथा Before The Memory Fades के शुरुआती पन्ने पर यही पंक्ति लिखी हुई है. तो इससे पहले की हम इतिहास के जरूरी सबक भूल जाएं, आइए संशोधन की ओर बढ़ें.
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