सम्पादकीय

अगले जन्म मोहे गुरु न बनइयो, ओ राम जी

Rani Sahu
20 Dec 2021 6:53 PM GMT
अगले जन्म मोहे गुरु न बनइयो, ओ राम जी
x
हाल ही में समाचारपत्र में खबर पढ़ी कि हमीरपुर के एक सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में एक छात्र ने अध्यापक पर हाथ उठा दिया

हाल ही में समाचारपत्र में खबर पढ़ी कि हमीरपुर के एक सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल में एक छात्र ने अध्यापक पर हाथ उठा दिया। यह पढ़ कर अपना विद्यार्थी जीवन याद हो आया। वाकई ज़माना कितना बदल गया है! एक जमाना था कि स्कूल में की गई किसी शरारत के लिए शिक्षक तो सज़ा देते ही देते थे, पर साथ में माता-पिता भी कोई कसर नहीं छोड़ते थे। परंतु बदलते वक्त के साथ गुरु-शिष्य के संबंधों में बहुत खटास और दूरी आ गई है। जिस देश में शिष्य अपने गुरु को देवतुल्य मानता आया है, वहीं आज इस रिश्ते में इतनी तल्खी और हिकारत आ गई है कि नौबत मारपीट तक ही नहीं, बल्कि कभी कत्ल तक भी पहुंच जाती है। कुछ वर्ष पहले दिल्ली के सुलतानपुरी इलाके के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का उसके ही शिष्य ने कत्ल कर दिया था।

यह घटना गुरु-शिष्य के बीच बिगड़ते रिश्ते की पराकाष्ठा है। दिसंबर 2014 में झारखंड के एक स्कूल के सातवीं कक्षा के तीन छात्रों ने अपने अध्यापक को इसलिए मार डाला क्योंकि उक्त अध्यापक ने उन्हें धूम्रपान न करने की सलाह दी थी। फरवरी 2012 में चेन्नई के एक स्कूल में नवीं कक्षा के छात्र ने चाकू से अपने अध्यापक की जान ले ली। हमारे प्रदेश में भी इस तरह की घटनाएं होती आई हैं। 14 दिसंबर 1998 में अरसू के एक सरकारी स्कूल के नवीं कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य पर सरिए से वार किया जिसके कारण उनकी मौत हो गई। अगस्त 2014 में संजौली कॉलेज में छात्रों ने प्रधानाचार्य व अन्य शिक्षकों के साथ मारपीट की थी। कुछ वर्ष पहले गंगथ के सरकारी स्कूल के एक छात्र ने सुबह-सवेरे स्कूल ग्राउंड में प्रधानाचार्य का गला पकड़ लिया था। उनकी गलती यह थी कि उन्होंने उस छात्र को एक विद्यार्थी की तरह अनुशासित होने की हिदायत दी थी। अध्यापकों से थप्पड़बाज़ी, गाली-गलौज, बदसलूकी जैसी घटनाएं तो अब आम होती जा रही हैं। जिस देश का इतिहास गुरु-शिष्य की आदर्श परंपरा के उदाहरणों से भरा पड़ा है, उस देश में आज गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती खाई एक समस्या बनती जा रही है। विद्यालय में मुल्क के भविष्य को सींचा जाता है और भाग्य की रेखाएं खींची जाती हंै। इस मुकद्दस जगह पर इल्म के चिराग जला कर गुरु अपने शिष्य के अज्ञान के अंधेरे को दूर करने का प्रयास करता है और उसे अनुशासन, संस्कार और शिष्टाचार का सबक पढ़ाता है। परंतु जो कुछ घटित हो रहा है, उससे साफ ज़ाहिर है कि धीरे-धीरे शिक्षण संस्थान अनुशासनहीनता, बदज़ुबानी, मारपीट और हिंसा का केंद्र बनते जा रहे हैं।
आज गुरु-शिष्य के संबंधों में वो आत्मीयता नहीं रही। मैं यह तो कतई नहीं कह रहा कि अध्यापक को अपने शिष्य को पीटने का मालिकाना हक है, परंतु अपने शिष्य को सही राह दिखाना, पथभ्रष्ट होने से रोकना, गलती पर टोकना, उसे अनुशासित रहने का सबक सिखाना गुरु के लिए अगर गुनाह हो गया है तो आखिर इन शिक्षा के मंदिरों का औचित्य क्या है? यदि शिक्षण संस्थानों में ऐसा होता रहा तो ऐसे ग़ैरमाकूल वातावरण में गुरु कैसे अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर पाएगा? क्या संत कबीर जी की ये पंक्तिया सिर्फ किताबी छलावा हैं ः 'गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़-गढि़ काढ़ै खोट। अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।' गुरु और शिष्य के बीच की तनातनी का एक कारण यह है कि दोनों कक्षा में एक-दूसरे से मिलते तो हैं, परंतु उनमें संवाद नहीं होता। गुरु की बात शिष्य नहीं समझ पाता और गुरु शिष्य तक नहीं पहुंच पाता। पढ़ाई किताबों से नहीं, बल्कि दिल से होती है। यदि अध्यापक शिष्य को नहीं समझ पा रहा है तो बेहतर है अध्यापक शिष्य को समझे। अध्यापक और शिष्य का रिश्ता वर्चस्व स्थापित करने का नहीं, बल्कि आपसी समझ का दिलोदिमागी रिश्ता है। गुरु-शिष्य के बीच बढ़ती दूरियों के लिए अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। अभिभावक समझते हैं कि शिक्षक महज़ एक कर्मचारी है जिसे सरकार मोटी तनख्वाह दे रही है या वे मोटी रकम फीस के रूप में अदा कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि गुरु-शिष्य का रिश्ता ग्राहक और दुकानदार का पेशा नहीं है। शिक्षण ऐसा कार्य है जिसमें शिष्य में ज्ञान प्राप्ति का जुनून व समर्पण की भावना होनी चाहिए और गुरु में अपने ध्येय के प्रति निष्ठा। बच्चों के मन में शिक्षक के प्रति आदर भाव भरने की बात तो दूर, अभिभावक उनकी शिकायत करने या उनके विरुद्ध मुकद्दमा दायर करने के लिए आतुर रहते हैं।
ऐसी स्थिति में बच्चों में गुरु के लिए सम्मान की भावना कैसे विकसित होगी? हालांकि विद्यालयों में एसएमसी गुरु-शिष्य-अभिभावक के रिश्तों को सुदृढ़ करने में अहम भूमिका निभा सकती है, परंतु ज़्यादातर एसएमसी के सदस्य या तो निष्क्रिय हैं या फिर शैक्षणिक कार्यों को पीछे रख कर राजनीति में ज़्यादा रुचि लेते हैं। घर बच्चे की पहली पाठशाला होती है और मां-बाप पहले अध्यापक। बच्चों के मानस पटल पर घर के माहौल और वहां मिल रही तरबीयत का गहरा असर होता है। जिस अत्यधिक खुले वातावरण में आज बच्चे पल रहे हैं, उसने उनका भला कम और नुक्सान ज़्यादा किया है। अति सर्वत्र वर्जयेत अर्थात किसी भी चीज़ का आवश्यकता से अधिक होना नुकसानदेह होता है। कुछ माता-पिता 'बैस्ट पापा' या 'बैस्ट मॉम' कहलाने के चक्कर में अपने बच्चों की हर बात या मांग पर 'यैस' कहने की होड़ में शामिल रहते हैं। इस होड़ में न माता-पिता, न ही बच्चे ये समझ पाते हैं कि 'नो' शब्द की अहमियत कितनी है। 'यैस' को सुनते-सुनते बच्चे को 'नो' सुनना अखरने लगता है। अनुशासन में बंधना उसे बोझ लगने लगता है और पता भी नहीं चलता कि बच्चा कब हाथ से निकल गया और राह से भटक गया। वास्तव में यदि उचित समय पर बच्चों को सही राह न दिखाई जाए तो आगे चल कर वे समस्या बन जाते हैं। मां-बाप को याद रखना चाहिए कि यदि उठते ज़ख्म को वक्त पर दवा न मिले तो वह नासूर बन जाता है। बच्चे की बेहतर परवरिश के लिए डांट व दुलार, फटकार व तारीफ, थपेड़े व पुचकार की ज़रूरत होती है, ताकि उसका विकास एकतरफा न हो। यदि गुरु-शिष्य-अभिभावक विद्यालयों में दोस्ताना तालिमी माहौल नहीं बना सकते तो मैं तो यही प्रार्थना करूंगा 'अगले जन्म मोहे गुरु न बनइयो, ओ राम जी।'
जगदीश बाली
लेखक शिमला से हैं
Next Story