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उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 14 साल बाद एक बार फिर ब्राह्मणों की याद आई है
शशि शेखर। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को 14 साल बाद एक बार फिर ब्राह्मणों की याद आई है। पार्टी ने समूचे सूबे में 'प्रबुद्ध सम्मेलन' करने का निर्णय किया है। अयोध्या से शुरू हुआ यह अभियान विभिन्न तीर्थस्थलों से होता हुआ प्रदेश के 72 जिलों तक पहुंचेगा। बसपा ने 2006-07 में भी ब्राह्मणों और दलितों को जोड़कर ऐसा राजनीतिक रसायन तैयार किया था, जिसने पार्टी को 206 सीटें दिलाकर मायावती को लखनऊ के सत्ता-सदन में प्रतिष्ठापित कर दिया था। क्या वह करिश्मा दोहराया जा सकता है?
सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, इसकी भविष्यवाणी करना पत्रकारों का काम नहीं, पर इसमें कोई दोराय नहीं कि मायावती एक ऐसी महारथी हैं, जो हर बार धूल झाड़कर उठ खड़ी होती हैं और कुछ ऐसा कर डालती हैं, जिससे उनके विरोधी हैरत में पड़ जाते हैं। यही वजह है कि बसपा देश के पैमाने पर भाजपा तथा कांगे्रस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर प्रतिष्ठापित है। यही नहीं, बसपा का प्रयोग चुनावी हार-जीत के अनूठे समीकरण बैठाने के लिए भी किया जाता है। उत्तर भारत के तमाम राज्यों में बसपा परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है, पर यहां बात उत्तर प्रदेश की हो रही है।
देश के सबसे बडे़ इस प्रदेश में बसपा ही नहीं, बल्कि सभी पार्टियों ने अपने-अपने पासे बिछाने शुरू कर दिए हैं। अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी इस चुनाव के प्रबलतम दावेदारों में से एक है। अखिलेश पिछले एक बरस से भाजपा से रूठे-बिखरे जातीय समूहों वाली पार्टियों से जोड़-तोड़ बैठाने में लगे हैं। बसपा और कांगे्रस के साथ हुए पिछले समझौतों ने उन्हें सिखा दिया है कि उत्तर प्रदेश में तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के साथ समझौता फायदे का सौदा नहीं है। वह पांच वर्षों के अपने शासनकाल में हुए 'विकास-कार्यों' को लेकर मैदान में उतरने का मन बना रहे हैं। सपा के रणनीतिकारों को भरोसा है कि केंद्र और राज्य सरकारों की 'एंटी-इनकंबेन्सी'उनकी मदद करेगी। उनके समर्थक मानते हैं कि पिछले शासनकाल में उनके ऊपर परिवार का जो बोझ था, वह उतर चुका है और 'भैया'अपनी छवि के बलबूते चुनाव में उतरेंगे। इसका सकारात्मक असर पड़ेगा।
समाजवादी रणनीतिकार यह भी मानते हैं कि यादव और मुस्लिम वोटों के अलावा अन्य जातियों और समुदायों के वोट भी उन्हें हासिल होंगे। यही वजह है कि पार्टी ने तमाम अति पिछड़ों और ब्राह्मणों को मैदान में उतारने की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी हैं। यह बात अलग है कि असदुद्दीन ओवैसी और राम अचल राजभर के बीच हुए समझौते ने उनके चुनावी अंकगणित पर सवालिया निशान खडे़ कर दिए हैं। सवाल उठता है कि क्या पश्चिम बंगाल की तर्ज पर अल्पसंख्यक एआईएमआईएम की जगह समाजवादी पार्टी को चुनेंगे? इस संभावना की प्रबलता से इनकार नहीं किया जा सकता। यही नहीं, अखिलेश को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान असंतोष और रालोद के प्रति जाटों की सहानुभूति से भी लाभ मिलने की उम्मीद है, पर उनकी राह में तमाम रोड़े भी हैं।
उत्तर प्रदेश में लगभग चार दशक राज कर चुकी कांग्रेस की मैं विस्तार से चर्चा इसलिए नहीं कर रहा कि वह इस जमीनी लड़ाई में अभी तक अपनी जमीन तलाश रही है।
पिछले पंचायत चुनावों में समाजवादी पार्टी ने भले ही 759 सीटें अर्जित कर 768 सीटें पाने वाली भाजपा से लगभग बराबरी कर ली हो, पर आंकडे़ हमेशा समूचे तथ्य की मुनादी नहीं करते। हमें भूलना नहीं चाहिए कि ये चुनाव कोरोना की दूसरी लहर और किसान आंदोलन के चरमोत्कर्ष के बीच हुए थे। लोगों के बीच गम और गुस्से की भावना थी। इसके बावजूद भाजपा साफ नहीं हुई, यानी ग्रामीण जन का भरोसा उस कठिन वक्त में भी डगमगाया जरूर, पर टूटा नहीं था। इसके अलावा, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अपनी 'इमेज'है। योगी के बारे में मशहूर है कि कानून-व्यवस्था के प्रति उनका नजरिया बहुत सख्त है और किसी तरह का कोई आरोप उनके ऊपर नहीं है। पिछले साढे़ चार सालों के दौरान वह एक दृढ़ प्रशासक साबित हुए हैं। यहां ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद वाराणसी से चुनकर आते हैं और गुजरात को छोड़ दें, तो देश के किसी भी हिस्से से ज्यादा उनकी 'अपील' उत्तर प्रदेश में है। उनके साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में नंबर-दो का दर्जा रखने वाले राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता हैं।
Rani Sahu
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