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- हमारे घर के बाहर...
सड़क के कुत्ते की अपनी परेशानियां हैं, फिर भी वह देश के साथ चलने में भी अपना वजूद बचाए रखता है। वह अपनी आवारगी में खुश है, लेकिन उसे हैरानी होती है कि अब तो गली के भी उसके साथ अभद्र सलूक करते हैं। आखिर एक दिन कुत्तों ने भी अपनी महासभा बुलाई और इस तरह सड़क, गली, घर, दफ्तर, बाजार और श्मशान तक के सारे कुत्ते इकट्ठे हो गए। यह पहला मौका था जब कुत्तों ने विचार-विमर्श करना था और वक्त के साथ खुद को बदलना था। सभी के अपने-अपने शिकवे और संदेह थे, फिर भी उन्होंने तय कर रखा था कि वे सारे अनुशासन में बोलेंगे, भौंकेंगे नहीं और हां दलबदल तो कतई नहीं करेंगे। भौंकने के पीछे कोई भाषा नहीं होती, फिर भी इनसानों ने ही इसके अर्थ निकाले। कुत्तों को रंज यह भी था कि जो उन्हें बतौर कुत्ता मालूम नहीं, वह इनसान को कैसे मालूम, हालांकि वे दावे के साथ साबित कर सकते हैं कि कुत्ते बिगड़े ही इनसान की संगत में हैं। तभी दफ्तर का आगे आकर बोला, 'मेरा चरित्र हमेशा इस टोह में रहता है कि कब कोई टुकड़ा गिरेगा। मैं आदतन ऐसा नहीं था, लेकिन दफ्तर के माहौल में टुकड़ों के भाव से हिल मिल गया। दफ्तरों में खिलाने वालों ने कम से कम बीवी की रोटियां हमारे हवाले कर दी हैं, जबकि असली टुकड़े तो शाम को किसी रेस्तरां में बंटते हैं।' दफ्तरी कुत्ते की सुनकर बाजार के कुत्ते को थोड़ा गुस्सा आ गया, फिर भी नियंत्रण में बोला, 'देख यही अतिक्रमण है दफ्तर और बाजार में। जब दफ्तर ही बाजार बन जाता है, तो भूख तो बाजारी कुत्ते की मारी जाती है। बाजार में जबसे खाने के बजाय खिलाने की रीति चल रही है, तब से हर किसी की रोटी पैक हो गई है। पहले दफ्तर की पार्टियां बाजार में होती थीं, तो हमारी तरह कई कुत्ते अंधी में चाट लेते थे, लेकिन अब लेने देने की बात घर पर होने लगी है।' ऑनलाइन आर्डर की वजह से बाजार का कुत्ता दुबला हो गया था। उसे सांत्वना देते हुए सड़क के कुत्ते ने जुबान खोली, 'जब से जन्म लिया है सड़क के गड्ढों में खोजता रहता हूं। मैं इतना तो समझ गया कि इन्हीं गड्ढों से कई घर दौलत से भर जाते हैं, लेकिन कुत्ते को आज भी तब मिलता है जब कोई चोरी से खाए में से बेकार छोड़ देता है। मेेरे से तो गली की आवारगी अच्छी, कम से कम शहर की सफाई में वहां खाने को गंदगी तो मिल जाती।
सोर्स- divyahimachal