सम्पादकीय

हमारे घर के बाहर कुत्ते

Rani Sahu
10 July 2022 7:06 PM GMT
हमारे घर के बाहर कुत्ते
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सड़क के कुत्ते की अपनी परेशानियां हैं, फिर भी वह देश के साथ चलने में भी अपना वजूद बचाए रखता है

सड़क के कुत्ते की अपनी परेशानियां हैं, फिर भी वह देश के साथ चलने में भी अपना वजूद बचाए रखता है। वह अपनी आवारगी में खुश है, लेकिन उसे हैरानी होती है कि अब तो गली के भी उसके साथ अभद्र सलूक करते हैं। आखिर एक दिन कुत्तों ने भी अपनी महासभा बुलाई और इस तरह सड़क, गली, घर, दफ्तर, बाजार और श्मशान तक के सारे कुत्ते इकट्ठे हो गए। यह पहला मौका था जब कुत्तों ने विचार-विमर्श करना था और वक्त के साथ खुद को बदलना था। सभी के अपने-अपने शिकवे और संदेह थे, फिर भी उन्होंने तय कर रखा था कि वे सारे अनुशासन में बोलेंगे, भौंकेंगे नहीं और हां दलबदल तो कतई नहीं करेंगे। भौंकने के पीछे कोई भाषा नहीं होती, फिर भी इनसानों ने ही इसके अर्थ निकाले। कुत्तों को रंज यह भी था कि जो उन्हें बतौर कुत्ता मालूम नहीं, वह इनसान को कैसे मालूम, हालांकि वे दावे के साथ साबित कर सकते हैं कि कुत्ते बिगड़े ही इनसान की संगत में हैं। तभी दफ्तर का आगे आकर बोला, 'मेरा चरित्र हमेशा इस टोह में रहता है कि कब कोई टुकड़ा गिरेगा। मैं आदतन ऐसा नहीं था, लेकिन दफ्तर के माहौल में टुकड़ों के भाव से हिल मिल गया। दफ्तरों में खिलाने वालों ने कम से कम बीवी की रोटियां हमारे हवाले कर दी हैं, जबकि असली टुकड़े तो शाम को किसी रेस्तरां में बंटते हैं।' दफ्तरी कुत्ते की सुनकर बाजार के कुत्ते को थोड़ा गुस्सा आ गया, फिर भी नियंत्रण में बोला, 'देख यही अतिक्रमण है दफ्तर और बाजार में। जब दफ्तर ही बाजार बन जाता है, तो भूख तो बाजारी कुत्ते की मारी जाती है। बाजार में जबसे खाने के बजाय खिलाने की रीति चल रही है, तब से हर किसी की रोटी पैक हो गई है। पहले दफ्तर की पार्टियां बाजार में होती थीं, तो हमारी तरह कई कुत्ते अंधी में चाट लेते थे, लेकिन अब लेने देने की बात घर पर होने लगी है।' ऑनलाइन आर्डर की वजह से बाजार का कुत्ता दुबला हो गया था। उसे सांत्वना देते हुए सड़क के कुत्ते ने जुबान खोली, 'जब से जन्म लिया है सड़क के गड्ढों में खोजता रहता हूं। मैं इतना तो समझ गया कि इन्हीं गड्ढों से कई घर दौलत से भर जाते हैं, लेकिन कुत्ते को आज भी तब मिलता है जब कोई चोरी से खाए में से बेकार छोड़ देता है। मेेरे से तो गली की आवारगी अच्छी, कम से कम शहर की सफाई में वहां खाने को गंदगी तो मिल जाती।

गली अब घर से नहीं जुड़ती, कूड़े से जुड़ती है और जहां इनसान फेंकने में माहिर होता है, वहां गली का कुत्ता होकर भी जीना आसान होता है।' गली के कुत्ते ने इस टिप्पणी पर कोई विवाद नहीं किया, लेकिन घर में पल रहे बढि़या नस्ल के कुत्ते ने अपनी मालकिन की तरह नाक भौं सिकोड़ा। इसे देखकर आम कुत्ते सहमे हुए थे। उन्हें लग रहा था कि बढि़या नस्ल अंदर तक बढि़या होती होगी या जो इनसानों के साथ रहता, मजे में रहता है, लेकिन इसके विपरीत पालतू कुत्ता लगभग रोते हुए कहने लगा, 'मैं कब तक खुद में इनसान बनने के भ्रम में जीता रहूंगा। अब तो मुझे इतना भ्रम हो गया कि जब मालकिन, साहब को डांट रहती होती हैं, तो मैं कोने में छिपकर इनसान बन जाता हूं। वह मेरे पुरखों को साहब के पुरखों से मिला देती हैं, तो मैं अपनी नस्ल गायब होने से डरता हूं। मेरी यानी एक कुत्ते की बॉडी लैंग्वेज सुधारी जाती है और इतने शिष्टाचार सिखा दिए हैं कि मैं अपनी बिरादरी में रहने लायक भी नहीं बचा।' सभी कुत्ते इनसान के घर में रह रहे कुत्ते पर अफसोस जता रहे थे कि तभी श्मशान से हांफते हुए एक कुत्ता आ पहुंचा। थका, हारा, भूखा-प्यासा, लेकिन आत्मसंतोष का भाव लिए बोला, 'माफ करना देरी से पहुंचा। दरअसल एक आवारा लाश जल रही थी, इसलिए उसकी अंतिम क्रिया पूरी होने तक रुका रहा।' कुत्तों ने एक स्वर फैसला किया कि भले ही इनसान उन्हें आवारा छोड़ दें, वे किसी आवारा व्यक्ति को श्मशानघाट पर भी आवारा नहीं जलने देंगे।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

सोर्स- divyahimachal

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