सम्पादकीय

मोदी के बांग्लादेश दौरे का विरोध क्या विपक्ष के मानसिक दिवालियापन को दिखाता है?

Gulabi
25 March 2021 12:17 PM GMT
मोदी के बांग्लादेश दौरे का विरोध क्या विपक्ष के मानसिक दिवालियापन को दिखाता है?
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शेख मुजीबुर्रहमान ( Sheikh Mujibur Rahman) ने जब 26 मार्च 1971 को पाकिस्तान (Pakistan) से अलग भारत

शेख मुजीबुर्रहमान ( Sheikh Mujibur Rahman) ने जब 26 मार्च 1971 को पाकिस्तान (Pakistan) से अलग भारत के पूर्व में बांग्लादेश (Bangladesh) के आज़ादी की घोषणा की थी तो उन्हें इस बात का कतई अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि 50 साल बाद पड़ोसी देश भारत में और खासकर बांग्लादेश की सीमा से लगे पश्चिम बंगाल में इस पर विवाद शुरू हो जाएगा. भले ही बांग्लादेश की स्थापना में इंदिरा गाँधी (Indira Gandhi) का बड़ा योगदान रहा था, पर ऐसे अवसरों पर निमंत्रण सरकार के प्रमुख को दिया जाता है. लिहाजा भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बांग्लादेश ने अपनी 50वीं सालगिरह पर मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया और मोदी 26 और 27 मार्च को दो दिन के दौरे पर बांग्लादेश में होंगे. मोदी या बीजेपी का बांग्लादेश की आज़ादी में कोई भूमिका भले ही नहीं रही हो, पर आमंत्रण तो भारत के वर्तमान प्राधानमंत्री को ही दिया जाएगा, ना कि इंदिरा गाँधी की पुत्रवधू सोनिया गाँधी या इंदिरा गाँधी के पोते राहुल गाँधी को, ना ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को, तो फिर मोदी के बांग्लादेश दौरे पर विवाद समझ से परे है.


अमूमन ऐसे सरकारी दौरों की रूपरेखा कम से कम तीन-चार महीने पहले ही तय हो जाती है. अभी से तय है कि मोदी 8 मई को यूरोपीयन यूनियन की पुर्तगाल में होने वाली मीटिंग में शामिल होंगे, 11 से 13 जून तक G-7 की मीटिंग के लिए यूनाइटेड किंगडम में होंगे और 22-23 जुलाई को ओलिंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह में शामिल होने जापान जायेंगे.

बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल के लोगों का जुड़ाव पुराना है
विदेश मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ मिल कर जब बांग्लादेश के आमंत्रण को स्वीकार किया क्या उस समय चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल या असम में चुनाव की घोषणा नहीं की थी. और अब इस सरकारी दौरे को पश्चिम बंगाल के चुनाव से जोड़ कर देखना समझ से परे और निंदनीय है. पश्चिम बंगाल का बांग्लादेश से लगाव स्वाभाविक है. भारत की आज़ादी के समय जब देश का विभाजन हुआ तो इसका सबसे ज्यादा खमियाजा दो राज्यों को उठाना पड़ा था, देश के साथ-साथ बंगाल और पंजाब राज्यों का भी विभाजन हो गया था. पश्चिम बंगाल में ऐसे बहुत से परिवार हैं जो विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में रहने की बजाय भारत के पश्चिम बंगाल में शिफ्ट हो गए, पर आज भी उनका लगाव अपने बाप-दादा की ज़मीन से है. निःसंदेह, पश्चिम बंगाल का हर निवासी बांग्लादेश के साथ बेहतर और करीबी रिश्ते की कामना करता है, पर यह सोचना कि सिर्फ मोदी के दो दिन के बांग्लादेश के दौरे का पश्चिम बंगाल में चुनाव पर असर पड़ेगा काल्पनिक है.

डेढ़ साल बाद मोदी जा रहे हैं विदेश दौरे पर
मज़ेदार बात तो यह है कि जब मोदी अपने पहले कार्यकाल में विदेशी दौरे पर जाते थे तब भी उनकी आलोचना होती थी, और अब जब लगभग डेढ़ वर्षों के बाद मोदी पहली बार भारत से बाहर जा रहे हैं तब भी उनके विरोधियों को तकलीफ हो रही है. मोदी आखिरी बार विदेशी दौरे पर नवम्बर 2020 में ब्राज़ील गए थे. दरअसल जिस बात से उनके विरोधियों को परेशानी हो रही है वह है 27 मार्च को मोदी का ओरकांडी के मतुआ मंदिर में जाने का कार्यक्रम. पूर्व में भी मोदी जब भी विदेशों में गए तो वहां के स्थानीय हिन्दू मंदिरों में जाते रहे थे. यह कोई नई बात नहीं है.

भारत के लिए बांग्लादेश महत्वपूर्ण है
भारत के किसी प्रधानमंत्री का बांग्लादेश के दौरे पर जाना लगभग छह वर्षो के बाद हो रहा है. आखिरी बार जून 2015 में मोदी ही बांग्लादेश गए थे. उससे पहले तत्कालीन प्राधानमंत्री मनमोहन सिंह 2011 में बांग्लादेश गए थे. बांग्लादेश के साथ मधुर सम्बन्ध भारत के हित में है. किसी समय बांग्लादेश के रास्ते पाकिस्तान से आतंवादी भारत में प्रवेश करते थे और उत्तर-पूर्वी राज्यों के आतंकी संगठनों का वहां ट्रेनिंग कैंप होता था. मधुर और नजदीकी संबंधों का असर है कि अब भारत में आतंकी वारदातों के कमी आयी है.
भारत के लिए बांग्लादेश काफी महत्वपूर्ण है. भारत नहीं चाहेगा कि एक और पड़ोसी देश का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए किया जाए.

मोदी का बांग्लादेश जाना जरूरी
पिछले एक साल में बांग्लादेश का महत्व और भी बढ़ गया है. जहाँ शुरू से ही चीन की नज़र बांग्लादेश पर थी, पिछले एक साल में जब से पूरे विश्व में करोना महामारी की शुरुआत हुई, चीन लगातार बांग्लादेश को रिझाने की कोशिश के जुटा हुआ है. विश्व के सभी देशों की अर्थव्यवस्था पर करोना का असर दिखा, बांग्लादेश भी इससे अछूता नहीं रहा. चीन ने कोशिश की कि नेपाल की तरह ही बांग्लादेश को भी भारत के खिलाफ भड़काया जाए. अभी तक चीन इसमें कामयाब नहीं हो पाया है, पर अगर भारत बांग्लादेश का आमंत्रण इसलिए ठुकरा देता कि बांग्लादेश की आज़ादी की सालगिरह के समय भारत के पश्चिम बंगाल में चुनाव होने वाला है, तो शायद यह भारत के हित के विरुद्ध होता और चीन के पक्ष के होता.

भारत को खुश होना चाहिए कि बांग्लादेश ने अपनी आज़ादी के 50वीं सालगिरह पर भारत के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया. यह दर्शाता है कि बांग्लादेश अपनी आज़ादी में भारत के सहयोग को भूला नहीं है और बांग्लादेश की युवा पीढ़ी को भी यह सन्देश मिलेगा कि पाकिस्तान की गुलामी से एक आजाद देश बनने में भारत की क्या भूमिका रही थी.

बीजेपी के लिए फायदेमंद कैसे मोदी का बांग्लादेश दौरा
बीजेपी के लिए तो यह ज्यादा फायदेमंद होता अगर मोदी 26 और 27 मार्च को पश्चिम बंगाल के दौरे पर होते और चुनावी सभाओं में भाषण दे रहे होते. चूँकि पश्चिम बंगाल में चुनाव काफी कांटे का होता जा रहा है, बीजेपी विरोधी परेशान हैं यह सोच कर कि मोदी के मतुआ मंदिर में पूजा करने से पश्चिम बंगाल के डेढ़ करोड़ मतुआ मतदाता कहीं बीजेपी के पक्ष में तो नहीं हो जायेंगे?

ममता बनर्जी को मतुआ वोटबैंक खिसकने का डर
मतुआ समुदाय दलितों के श्रेणी में आता है और उनकी जड़ें आज के बांग्लादेश से जुड़ी हैं. बांग्लादेश के मतुआ मंदिर का महत्व मतुआ समुदाय के लिए वही है जैसे कि सिक्ख समुदाय का गुरु नानक के जन्मस्थल पर पाकिस्तान के ननकाना साहिब गुरूद्वारे का. मतुआ समुदाय अभी तक ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का समर्थक होता था. अब यह सोचना कि मोदी के सिर्फ एक बार उनके सबसे बड़े मंदिर में जाने से तृणमूल कांग्रेस की हार हो जायेगी तो यह यही साबित करता है की अपने 10 वर्षों के शासनकाल में ममता बनर्जी ने शायद मतुआ समुदाय के लिए कुछ नहीं किया होगा. वर्ना इतनी ज़ल्दी तो वोट बैंक खिसकता नहीं है.

देशहित सर्वोपरि
भारत की विदेश नीति का विरोध सिर्फ मोदी के बांग्लादेश दौरे तक ही सिमित नहीं है. तमिलनाडु में भी चुनाव हो रहा है और उसी दरम्यान संक्युक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में श्रीलंका के विरुद्ध एक प्रस्ताव आया था. मंगलवार को इसपर मतदान होना था. तमिलनाडु के सभी दल यह चाहते थी कि भारत श्रीलंका के खिलाफ मतदान करे, पर भारत ने मतदान में तटस्थ रहना ही देश हित में उचित समझा. कारण साफ़ है – चीन श्रीलंका पर नज़र टिकाये हुए है और आर्थिक मदद के नाम पर श्रीलंका को गुलामी की तरफ घसीट रहा है, जैसा की भारत के समीप हंबनटोटा बंदरगाह अब चीन के कब्ज़े में है. मोदी सरकार भी मानती है कि श्रीलंका में गृह युद्ध के आखिरी दौर में वहां के स्थानीय तमिलों के मानवाधिकार का हनन हुआ था. पर देश सिर्फ भावनात्मक कारणों से नहीं चलता. श्रीलंका में अभी भी उसी राजपक्षे परिवार का शासन है जिनके राजकाल में गृहयुद्ध को सैनिको द्वारा कुचला गया था. महज तमिलनाडु के मतदाताओं को खुश करने के लिए भारत, श्रीलंका के खिलाफ वोट दे कर अगर भारत श्रीलंका को चीन के और करीब धकेल देता तो क्या यह देश हित में होता?

दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा
एक समय था जब देश हित दलगत राजनीति से ऊपर होता था. बांग्लादेश के युद्ध में अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी की तुलना माता दुर्गा से की थी. वाजपेयी इंदिरा के घोर विरोधी थे पर एक महत्वपूर्ण युद्ध में और देश हित में विपक्ष भी सरकार के साथ था. पर अब यह आलम है कि विरोधी दल विदेश नीति, कूटनीति, देश हित से ज्यादा महत्व चुनाव जीतने को देते हैं, जो साफ़ दर्शाता है कि किस कदर भारत की राजनीति में गिरावट आयी है. प्रमुख दलों में अब बस नेता ही रह गए हैं, राजनेता (Statesman) कोई भी नहीं दिखता.

राजनेता वह होते हैं जो व्यक्तिगत हित और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश हित की सोचते हैं. पर ऐसे नेताओं की कमी सभी विपक्षी दलों में साफ़ साफ़ झलक रही है. नतीजा श्रीलंका के खिलाफ भारत का वोटिंग में तटस्थ रहना और मोदी का बांग्लादेश के दौरे पर जाने का विरोध. कहीं ना कहीं यह विपक्ष के बढ़ते मानसिक दिवालियापन की तरफ एक संकेत है, जो एक चिंतनीय विषय बनता जा रहा है.


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