सम्पादकीय

हिंसक फसल मत बोएं

Rani Sahu
5 Oct 2021 7:06 PM GMT
हिंसक फसल मत बोएं
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उप्र के लखीमपुर खीरी में जो 9 त्रासद मौतें या हत्याएं हुई हैं, वे मौजूदा दौर के भड़काऊ शब्दाडंबर का ही नतीजा है

उप्र के लखीमपुर खीरी में जो 9 त्रासद मौतें या हत्याएं हुई हैं, वे मौजूदा दौर के भड़काऊ शब्दाडंबर का ही नतीजा है। यह किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। कोई दलील नहीं दी जा सकती, क्योंकि एक-एक इनसानी जि़ंदगी देश के लिए महत्त्वपूर्ण है। भाजपा की प्रतिक्रिया देने की पद्धति और किताब अपनी ही है। किसी भी जनवादी आंदोलन को लंबे वक्त तक नजरअंदाज़ करना, आंदोलन को थकने देना और देश-विरोधी विशेषणों के जरिए आंदोलन के स्वरूप को 'अवैध' करार देना अभी तक मोदी सरकार और भाजपा की रणनीति रही है। किसान आंदोलन को भी इसी चौखटे में रखा जा सकता है। यदि मामला लखीमपुर की त्रासद मौतों तक बढ़ जाए, तो पुलिस को दखल देने का आदेश देना, अवरोधक खड़े करना, राजनीतिक विरोधियों को घटनास्थल तक नहीं जाने देना और हिरासत में लेकर उन्हें अपमानित करने की भी रणनीति रही है। इसके उलट भाजपा ऐसी ही घटनाओं और आंदोलनों के मद्देनजर विभिन्न राज्यों में अपने प्रतिनिधिमंडल भेजती रही है, ताकि आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति और समर्थन जताकर जन-समर्थन हासिल किया जा सके। लखीमपुर कांड बेहद खौफनाक और त्रासद है।

किसान या उनके समर्थक मारे गए हैं, तो भाजपा कार्यकर्ताओं और एक पत्रकार की भी सरेआम हत्या की गई है। किसी का कोई कसूर नहीं था। वे अपनी-अपनी भूमिका अदा कर रहे थे। हम पूरे मामले को न्यायिक जांच के विवेक पर छोड़ते हैं, लेकिन ऐसे कांड की उत्तेजना, खासकर किसान आंदोलन को, किसी भी स्तर तक सुलगा सकती है। अभी सुलगन दबी हुई है। अब केंद्र सरकार और भाजपा को एहसास हो जाना चाहिए कि उसके सामने दो विकल्प ही शेष हैं-किसान आंदोलन को राजनीतिक तौर पर अलग-थलग करना और विवादित तीनों कृषि कानूनों को रद्द करना। अंतिम विकल्प मोदी सरकार को शायद ही स्वीकार्य हो, क्योंकि उन पर सर्वोच्च अदालत ने भी किसान नेताओं को कटघरे में खड़ा कर रखा है। राहत या आंदोलन में से किसानों को एक स्थिति चुननी होगी। यदि किसानों को अदालत के जरिए कोई राहत चाहिए, तो आंदोलन का रास्ता छोड़ना पड़ेगा। यदि वे आंदोलन करने पर ही आमादा हैं, तो फिर अदालत में आने का कोई औचित्य नहीं है। सर्वोच्च अदालत में फिलहाल सुनवाई जारी है, लेकिन भाजपा के स्तर पर यह पहल तुरंत की जानी चाहिए कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा सरीखे गैर-संवैधानिक और हिंसक बयान न दें। ये संवैधानिक पद की मर्यादा के उल्लंघन भी हैं। ऐसे बयानों से तो हिंसक फसल ही उगेगी, जिसका फायदा न सरकार को और न ही आम नागरिक या किसान को होगा। दरअसल अब जिस स्तर पर भाजपा का विरोध होने लगा है, वह कमोबेश सामाजिक बहिष्कार का रूप लेने लगा है।
यदि इन हालात और बहिष्कार के बावजूद भाजपा को चुनाव जीतते रहने का मुग़ालता है, तो फिर उसे वक़्त के हवाले छोड़ देना चाहिए। किसान आंदोलन इतना लंबा खिंच चुका है और बातचीत के नाकाम दौर भी हो चुके हैं, लिहाजा भाजपा को राजनीतिक परिपक्वता दिखानी चाहिए कि अब वह पीछे हटे और कोई ऐसी पेशकश दे, ताकि किसानों के साथ समझौता किया जा सके। लखीमपुर कांड के बाद भी उप्र की भाजपा सरकार ने पुलिस-प्रशासन को गुस्सैल किसानों के साथ समझौते के लिए इस्तेमाल किया ही है। कांड की न्यायिक जांच के बाद ही निष्कर्ष सामने आएगा, लेकिन नैतिकता का तकाजा है कि केंद्रीय गृह राज्यमंत्री पद से अजय मिश्रा इस्तीफा दें और जांच की प्रक्रिया का मुकाबला करें। नीर-क्षीर निर्णय आने दें। फिलहाल वह जो सफाईनुमा बयान दे रहे हैं, वे बेमानी हैं। जहां तक कृषि क्षेत्र और किसानों का संबंध है, तो भाजपा सही संदेश देने में नाकाम रही है। बड़े किसानों को एमएसपी का फायदा मिलता रहा है, क्योंकि उनके ही गेहूं, धान और गन्ना सरकारी खरीद में बिक जाते हैं। छोटे किसान मजबूर रहे हैं। उन्हें फसल के उचित दाम भी मंडियों और बाज़ारों में नहीं मिलते। ऐसे 86 फीसदी से भी ज्यादा किसान हैं। प्रधानमंत्री मोदी कभी-कभार टीवी चैनलों पर लाभार्थी किसानों से संवाद करते दिखाई देते हैं। वे लाभार्थी भी 'ऊंट के मुंह में जीरा समान' ही होते हैं। भाजपा को ईमानदारी से खुलासा करना चाहिए कि वह किसानों के लिए क्या कर रही है? उसके साक्ष्य भी पेश किए जाएं। यह सिलसिला लगातार चले, तभी किसान शांत हो सकेंगे। और हिंसक व्यवहार से तो पूरी तरह बचना होगा।

दिव्याहिमाचल

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