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ओपिनियन
DR. Pramod Pathak
समरथ को नहिं दोष गुसाईं-गोस्वामी तुलसीदास का यह शाश्वत सत्य एक बार फिर अपनी सार्थकता साबित कर रहा है. रूस – यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक व्यवस्था में एक नए बदलाव का संकेत दिया है. वैसे, यह बदलाव हिटलर काल की याद दिलाता है. लेकिन उस बात को अब कोई 75 वर्ष बीत चुके हैं. जिस व्यवस्था कि हम चर्चा कर रहे हैं, उसको समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा, जब तत्कालीन सोवियत संघ का विघटन अमेरिकी प्रभाव और बाजारवाद की वकालत के कारण हुआ था.
पंचायत का सरपंच : उदारीकरण और वैश्वीकरण के लुभावने नारों के आकर्षण में फंसे गोर्वाच्योव के नेतृत्व वाली सोवियत संघ के बिखराव के बाद एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का निर्माण हुआ. सोवियत रूस और अमेरिका जैसी दो महा शक्तियों के दौर के बाद इस नए दौर में अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभर कर दुनिया की पंचायत का सरपंच बन बैठा था. बीसवीं सदी के अंतिम दशक के उस दौर में अमेरिकी नेतृत्व में उसके पीछे चलने वाले पश्चिमी देशों का दुनिया में वर्चस्व बढ़ा. नाटो जैसी संस्थाओं के सैन्य समन्वय के साथ दुनिया की सबसे मजबूत शक्ति के रूप में अमेरिका उभरा. बाद में यूरोपीय संघ भी अपनी पहचान बनाने की कवायद में लगे, लेकिन यह प्रयोग बहुत सफल नहीं रहा. उसी दौर में चीन ने बाजारवाद को अपनाकर विनिर्माण और तकनीकी के क्षेत्र में अपनी मजबूत पकड़ बनाई. लेकिन महाशक्ति अमेरिका ही बना रहा. चीन उससे पीछे ही था और अब तक दूसरे ही नंबर पर माना जाता है. भले ही अर्थव्यवस्था और सैन्य बल के मामले में चीन बहुत आगे निकल गया हो और अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती देने की स्थिति में आ गया हो.
दो ध्रुवीय विश्व : 21वीं सदी को बहुत से वैश्विक पर्यवेक्षक एशिया के प्रादुर्भाव की शताब्दी भी मानने लगे थे लेकिन उसकी स्पष्ट तस्वीर नहीं दिखी थी. इसी दौरान भारत की अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़ी. लेकिन अमेरिका की स्थिति बदस्तूर रही. रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने अपने कार्यकाल के दौरान इस समीकरण को बदलने की दिशा में प्रयास शुरू किया और छोटे छोटे हस्तक्षेप के जरिए वैश्विक समीकरण को बदलने की दिशा में अपनी भूमिका निभाने की कोशिश की. इसमें थोड़ा वक्त तो लगा लेकिन अपनी सामरिक दृष्टि और कूटनीतिज्ञ परिपक्वता से आज वैश्विक पटल पर रूस को पुराना मुकाम दिलाने की संभावना दिखाने में सफल रहे. यूक्रेन पर हमले को चाहे पश्चिमी देश किसी भी तरह से परिभाषित करें लेकिन रूस अपनी पुरानी गरिमा को वापस पाने की स्थिति में दिख रहा है. यानी विश्व एक बार फिर से दो ध्रुवीय बनने जा रहा है.
क्या असर होगा : इस पूरे प्रकरण को वैश्विक व्यवस्था के एक नए चरण के शुरुआत का दौर कहा जा सकता है. अब इसका आने वाले दिनों में क्या असर होगा, यह एक व्यापक विवेचना का विषय तो है लेकिन इतना निश्चित है कि पुतिन के नेतृत्व वाली रूस ने अमेरिकी एकाधिकार को चुनौती तो दे ही डाली और पश्चिमी शक्तियों को भी रूस की शक्ति का अंदाजा लग गया. अब इस रूस – यूक्रेन प्रकरण का आने वाले दिनों में वैश्विक व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन कुछ संकेत स्पष्ट हैं जिन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
यूक्रेन की नादानी : जो पहला संकेत साफ दिख रहा है, वह यह है कि अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी किसी के सगे नहीं हैं. रूस के खिलाफ बयानबाजी और आर्थिक प्रतिबंध के दबाव के अलावा उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन की मदद के लिए कुछ खास नहीं किया. इसे यूक्रेन की नादानी भी कही जा सकती है क्योंकि उसे यह सच्चाई दिखाई नहीं दी. अमेरिका ने अंत में अपना पत्ता खोल ही दिया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि वह प्रत्यक्ष सैन्य लड़ाई में यूक्रेन की मदद के लिए आगे नहीं आएंगे. इससे यूक्रेन ही नहीं, पूरी दुनिया का भ्रम भी टूटा है. हालांकि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भी अमेरिकी हस्तक्षेप तभी हुआ, जब पर्ल हार्बर पर हमला हुआ था.
हिटलर और पुतिन : दरअसल, पुतिन की भूमिका ने हिटलर की याद दिला दी है. उसने भी यूरोप में ऐसा ही किया था. इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है. उन दिनों भी हिटलर की दलीलें वही थी, जो आज पुतिन की है. आज पूरी स्थिति पर हमें दो बातें गहराई से समझनी होगी. पहली कि क्या इस मामले में दुनिया कोई कारगर हस्तक्षेप करने की स्थिति में है. आर्थिक प्रतिबंध की धमकियां कोई बहुत प्रभावी नहीं दिख रही.
नकारा संयुक्त राष्ट्र : रहा सवाल संयुक्त राष्ट्र का तो वह बिल्कुल ही नकारा साबित हुआ, पहले भी ऐसा ही हुआ है जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया था. चाहे नाटो का सैन्य समूह हो या पश्चिमी देशों का अन्य कोई गठबंधन, आज रूस के आगे सभी लाचार दिख रहे हैं. इसका असर दुनिया के अब तक सर्वशक्तिमान समझे जाने वाले देश अमेरिका पर सबसे ज्यादा पड़ेगा. उसकी हैसियत पर, उसके रसूख पर. दूसरी समझने वाली बात यह है कि चीन और रूस का एक दूसरे के करीब जाना भारत के लिए क्या मायने रखता है? यदि हम इतिहास में झांकें तो रूस ने भारत के प्रति अपनी मित्रता का सबूत तो अक्सर ही दिया है और अमेरिका अपेक्षाकृत तटस्थ रहा है. बल्कि कई मायनों में पाकिस्तान की भी हिमायत करता आया है.
पाकिस्तान की कोशिश : आज पाकिस्तान रूस के करीब जाने की कोशिश कर रहा है. चीन के साथ तो उसके संबंध मजबूत है ही. ऐसे में भारत को थोड़ा सजग होना पड़ेगा. इतिहास को ठीक से समझना होगा और अपने आप को सबल बनाने की दिशा में गंभीरता से सोचना होगा. सिर्फ वीर रस की कविताएं और कहानियां काफी नहीं होगी. और हां, वोट की राजनीति से उपर उठकर देश की चिंता करनी होगी.
हमारे लिए परेशानी : चीन की चुनौती और पाकिस्तान की शरारत तो हमारे लिए परेशानी का कारण है ही, रूस का नया रुझान हमें सोचने को बाध्य कर रहा है. अभी तक कूटनीतिक तौर पर हमने अपनी तटस्थता के जरिए रूस के प्रति नरम रुख दिखाया है और वैश्विक संदर्भ में पश्चिमी देशों, विशेष रूप से अमेरिका की लाइन से अलग चलने का प्रयास किया है. लेकिन चीन की मंशा और चीन की योजनाओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते. ऐसी स्थिति में अमेरिका से पूरी तरह अलग दिखना, थोड़ा सामरिक दृष्टिकोण से जोखिम भरा हो सकता है.
वैसे सबसे बड़ी जो सीख है, इस पूरे प्रकरण की यह है कि इस वैश्विक दौर में भी केवल अपने सामर्थ्य पर ही भरोसा किया जा सकता है. वैश्विक प्रतिबंध या वैश्विक निंदा बहुत मायने नहीं रखते. पोखरन के बाद भी हमें प्रतिबंध झेलना पड़ा था. गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत सटीक बात कही थी कि समरथ को नहिं दोष गुसाईं. पुरानी कहावत है कि यदि शांति से रहना हो तो युद्ध के लिए तैयार रहें.
{ लेखक स्तंभकार और आई आई टी -आई एस एम, धनबाद के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं }
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