सम्पादकीय

दिवाली लेखकों की

Gulabi
12 Nov 2021 4:43 AM GMT
दिवाली लेखकों की
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आजकल इनमें से कुछ लोग पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर भी लिखने लगे हैं।

कभी आपने सोचा है कि भारतीय लेखक दिवाली कब और कैसे मनाते हैं? शायद नहीं सोचा है आपने, मैं बताता हूं आपको। भारत त्योहार प्रधान देश है। यहां के लेखकों की आधी रोजी-रोटी इन्हीं से चल रही है। पच्चीस प्रतिशत साहित्यकार तो ऐसे हैं जो सिर्फ होली और दिवाली पर लिखकर ही सब्र कर लेते हैं। आजकल इनमें से कुछ लोग पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर भी लिखने लगे हैं।


इधर चार महीने का एडवांस कैलेंडर सामने रखते हैं। जैसे दिवाली के बम-पटाखे पावस ऋतु प्रारंभ होते ही उनके मनो-मस्तिष्क में छूटने प्रारंभ हो जाते हैं। जुलाई से शुरू हुआ यह सिलसिला पंद्रह अगस्त तक चलता है और इस प्रकार से मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक एवं दैनिक पत्र तक बुक कर दिए जाते हैं। हालांकि आजकल संपादक बड़े 'वो' हो गए हैं, वे भी माल रखते जाते हैं तथा दिवाली के पांच दिन पहले लौटा देंगे और लेखक उस माल को कहीं भी उपयोग न कर पाने की स्थिति में हो जाता है। उस समय साहित्यकार के दिवाली नहीं, रचनाओं के लौटाने के मातम मनाने के दिन होते हैं। इधर पत्र-पत्रिकाएं दिवाली विशेषांकों के विज्ञापन साया करती हैं तथा साहित्यकारों से रचनाओं का आह्वान करती हैं, उधर साहित्यकार अपना 'दिवाली वाला' लिफाफा निकाल, पूरे जीवनकाल में लिखी तिरेपन रचनाओं का बंडल अपने टाइप वाले के सिर मार देता है। टाइप वाले को भी यही चाहिए, वह बीस-बीस बार टाइप किए मैटर को हंसता हुआ कूटता रहता है, इस प्रकार से दिवाली का समारंभ हो जाता है। दिवाली पर पारंपरिक रूप से बहुत लिखा जा चुका है, इसलिए साहित्यकार लोग इस खोज में रहते हैं कि क्या नई चीज तलाश कर नए शीर्षक से संपादक के सिर पर पेली जा सकती है। इसके लिए वह पुरानी पत्र-पत्रिकाओं से सिर फौड़ी करता है। पुराने लोगों से मिलता-जुलता है तथा कौड़ी से लेकर उल्लू तक का इतिहास खोजने के चक्कर में मारा-मारा फिरता है। यह समय बड़ा पीक का होता है।


इन दिनों साहित्यकार इतना संवेदनशील होता है कि बात-बात पर खीझ उठता है, घर में अशांति बनाए रखता है तथा अपने आप पर झल्ला कर बाल नोचता है। बात यहीं खत्म नहीं होती, अनेक साहित्यकार बाकायदा रात को तेल के दीपक जलाकर दिवाली के यथार्थ को चार महीने पूर्व ही जीते हैं तथा फिर काव्य सृजन की ओर प्रवृत्त होते हैं। आजकल साहित्यकार संपादक के पत्र की भी प्रतीक्षा नहीं करते तथा तीन माह की एवज चार माह पहले ही अपनी अमूल्य रचनाएं समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं को भिजवाना प्रारंभ कर देते हैं। चार माह पहले इसलिए, क्योंकि कॉम्पीटीशन इतना बढ़ गया है कि दूसरे रचनाकारों की रचनाएं पहुंचें, उससे पूर्व ही वे उसे स्वीकृत करा लेना चाहते हैं। जबकि संपादकीय विभाग लेखक की इन चालाकियों को जानबूझ कर नजरअंदाज करके अपने चहेते साहित्यकारों से रचनाएं चुपचाप लेकर विशेषांक प्रकाशित कर देता है। जब अंक आते हैं तो बात निराशा तक आ पहंुचती है। इस तरह से इस खेल में फायदे में रहता है तो वह टाइप करने वाला, जो रचनाओं के पैसे पहले ही धरा लेता है।

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक


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