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इस दौर में एक बड़ा सवाल यह भी है कि हिंदी पट्टी कब तक अपने लेखकों से अनजान रहेगी?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद मुजफ्फरनगर में जिला मुख्यालय से लगभग 22 किलोमीटर दूर हरिद्वार जाने वाली सड़क पर स्थित बरला में सामने से बुग्गी पर एक किसान आते हुए दिखाई देते हैं। मैं उनसे ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में पूछता हूं, लेकिन वह वाल्मीकि जी के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। आगे चलकर कई दुकानों पर वाल्मीकि जी के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करता हूं, लेकिन यहां भी यही हाल है। इन दुकानदारों ने भी वाल्मीकि जी का नाम नहीं सुना है।
मैं दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि के गांव बरला में हूं। यह जानने के लिए कि उनके गांव में कितने लोग इस प्रख्यात लेखक को जानते हैं। दुखद यह है कि वाल्मीकि बस्ती में कुछ लोगों को छोड़कर पूरे गांव में ओमप्रकाश वाल्मीकि को ज्यादा लोग नहीं जानते। 30 जून, 1950 को बरला में ही ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म हुआ था और 17 नवंबर, 2013 को कैंसर के कारण देहरादून में उनका निधन हो गया था।
जैसे ही मैं गांव की वाल्मीकि बस्ती में पहुंचता हूं, तो बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक छात्र दिखाई देता है। मैं उससे वाल्मीकि जी के बारे में पूछता हूं, तो वह इशारा करके बताता है-सामने वाल्मीकि जी के खानदान का घर है। पता चलता है कि यह उनके बड़े भाई सुखबीर सिंह का घर है। बहुत पहले उनकी मृत्यु हो चुकी है। वहां उनके पुत्र नरेंद्र का परिवार रहता है। मैं नरेंद्र के बेटे से पूछता हूं कि क्या उसने वाल्मीकि जी की कोई किताब पढ़ी है, लेकिन वह मना कर देता है।
वाल्मीकि जी के बारे में सुनकर घर की महिलाएं खुश हो जाती हैं। वे सभी खुश होकर आस-पास बैठे घर के युवकों को आवाज देकर बुला लेती हैं। इनमें से कुछ को लग रहा है कि शायद सरकार की ओर से उन्हें कोई आर्थिक सहायता दी जाएगी। जब मैं उन्हें बताता हूं कि मैं एक पत्रकार हूं और मेरे यहां आने का मकसद सिर्फ वाल्मीकि जी के बारे में जानकारी प्राप्त करना है, तो वे कुछ निराश हो जाती हैं।
हालांकि वहां मौजूद लोगों को वाल्मीकि जी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। कोई कह रहा है कि वह बहुत बड़े अफसर थे, तो कोई कह रहा है कि वह बहुत बड़े आदमी थे। परिवार की महिलाएं बताती हैं कि वह गांव ज्यादा नहीं आते थे। कभी-कभी शादी-ब्याह में जरूर आ जाते थे। माता-पिता की मृत्यु पर भी गांव आए थे। पहले उनके कुछ पत्र भी गांव के पते पर आते थे।
परिजन मुझे उनके कुछ पत्र भी दिखाते हैं। उन्हें वाल्मीकि जी से कुछ शिकायत भी है। एक ने कहा, 'वह चाहते तो खानदान के लोगों तथा गांव के वाल्मीकि समाज के लिए बहुत कुछ कर सकते थे।' मैं भी यह सोचने पर मजबूर हो गया कि लेखक अपने गांव से नाता क्यों तोड़ लेते हैं। पिछली बार जब मैं शमशेर बहादुर सिंह के गांव एलम गया था, तो वहां भी यही शिकायत थी कि शमशेर अपने गांव में बहुत कम आते थे।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कक्षा छह से बारहवीं तक की शिक्षा बरला के ही इंटर कॉलेज से प्राप्त की थी। उन्होंने इस कॉलेज में कई शिक्षकों और छात्रों द्वारा उनके साथ किए गए जातिगत भेदभाव का जिक्र अपनी चर्चित आत्मकथा जूठन में किया है। हालांकि उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस कॉलेज के एक-दो शिक्षकों की प्रशंसा भी की है। कुल मिलाकर बरला इंटर कॉलेज का उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा।
बारहवीं में रसायनशास्त्र के शिक्षक द्वारा उनके साथ किए गए जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें प्रैक्टिकल और मौखिक साक्षात्कार में बहुत कम अंक दिए गए। इस कारण वह फेल हो गए। एक बार मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि जी से पूछा था कि क्या सवर्ण या पिछड़े वर्ग के लोग भी दलित हो सकते हैं? तो उन्होंने कहा था-'क्यों नहीं हो सकते! अगर वैसी ही स्थितियां उनके साथ भी हैं और वही सब कुछ उन्होंने भी भोगा है।'
बहरहाल, इस प्रगतिशील दौर में समझदार गैर-दलित, दलितों के दर्द को समझ रहे हैं, लेकिन संपूर्ण गैर-दलित बिरादरी में अब भी दलितों के प्रति पूर्वाग्रह है। वाल्मीकि जी के गांव बरला में घूमते हुए भी यह पूर्वाग्रह दिखाई दिया। इस दौर में एक बड़ा सवाल यह भी है कि हिंदी पट्टी कब तक अपने लेखकों से अनजान रहेगी?
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