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पिछले दिनों अपने एक संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रेवड़ी’ यानी मुफ्त वाली योजनाओं की संस्कृति पर अपनी पीड़ा जाहिर की थी
एन के सिंह,
पिछले दिनों अपने एक संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'रेवड़ी' यानी मुफ्त वाली योजनाओं की संस्कृति पर अपनी पीड़ा जाहिर की थी। यह बहस अर्थशा्त्रिरयों की व्यापक चिंता के बाद शुरू हुई है। इसमें राज्यों की अर्थव्यवस्था पर रिजर्व बैंक द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट भी शामिल है, जिसमें इस दोषपूर्ण नीति के कारण राज्यों की खस्ता होती आर्थिक हालत और गहराते ऋण संकट का जिक्र किया गया है। इससे पहले, 19 अप्रैल को 'दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स' के सालाना जलसे में मैंने कहा था कि ये रेवड़ियां 'ऐसी हैं, जो कुछ चुकाए बिना आपको दी गई हैं, विशेष रूप से आपका समर्थन हासिल करने के लिए या इसकी अपेक्षा में'। यह विडंबना ही है कि बहुत पहले अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, कभी-कभी लोग उन चीजों की सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं, जो उन्हें मुफ्त में मिलती हैं। जाहिर है, आइंस्टीन ने जो कहा था, उसके गहरे निहितार्थ हैं।
दरअसल, 'फ्रीबीज कल्चर' के गंभीर नतीजों के कारण ही प्रधानमंत्री ने चिंता जताई है। इस लोक-लुभावन संस्कृति ने भारत की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को प्रभावित किया है। सर्वप्रथम, सतत विकास लक्ष्य की तरफ भारत के बढ़ते कदमों को बाधित करने का मुद्दा है। पेरिस जलवायु सम्मेलन (कॉप 21), अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और ग्लासगो कॉप 26 में की गई पहल पीढ़ीगत समानता की दिशा में आगे बढ़ने और तीव्र विकास पर भारत की सहमति का भी प्रतीक है। इसका पालन करने की हमारी क्षमता दूसरी बातों के साथ-साथ दो अन्य प्रतिबद्धताओं पर भी निर्भर है।
एक, ऊर्जा खपत में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाना। मगर एक तरफ जहां मुफ्त बिजली के रूप में किसी न किसी रूप में सब्सिडी का वायदा किया जा रहा है, तो वहीं बिजली आपूर्ति करने वाली राज्यों की कंपनियों की बिगड़ती सेहत उनकी संभावनाओं को कमजोर कर रही है। क्या यह विडंबना नहीं है कि मुफ्त बिजली कभी-कभी सभी घरों, कभी वैकल्पिक, तो कभी आधे घरों को दी जाती है, बल्कि ये वायदे तभी तक कायम रहते हैं, जब तक सरकार आर्थिक झंझावातों में नहीं फंसती और इस सुविधा को वापस लेने को मजबूर नहीं होती? दिल्ली सरकार की तरफ से बिजली सब्सिडी को वैकल्पिक बनाने का फैसला काफी हद तक बढ़ती लागत के कारण लिया गया था। आरबीआई ने बताया है कि पंजाब में मुफ्त बिजली का वायदा सतत विकास की ओर बढ़ने की उसकी क्षमता को कम करता है। कुछ उपभोक्ताओं के लिए कीमतें घटाने और कारोबारी संस्थानों एवं औद्योगिक इकाइयों से अधिक शुल्क वसूलने से दरअसल प्रतिस्पद्र्धा कम होती है और इससे आय व रोजगार में सुस्ती आती है।
इसी तरह, सौर ऊर्जा को गंभीरता से प्रोत्साहित करने की बिजली वितरण कंपनियों की क्षमता उनकी आर्थिक स्थिति और दर-संबंधी संरचनाओं को विकसित न कर सकने जैसी रुकावटों से बाधित होती है। गैर-जीवाश्म ईंधन वाले युग की तरफ बढ़ने की हमारी क्षमता राज्य बिजली बोर्डों की सेहत पर निर्भर है, लेकिन फ्रीबीज संस्कृति के कारण यह प्रभावित हो रही है। मुफ्त योजनाओं की ऐसी परिपाटी दीर्घावधि में अर्थव्यवस्था, जीवन की गुणवत्ता और सामाजिक सामंजस्य के लिए महंगी साबित होती है।
दूसरी प्रतिबद्धता, मोदी सरकार बुनियादी सुविधाओं की एक विस्तृत शृंखला तक पहुंच सुनिश्चित करके विषमता की चुनौती से निपटना चाहती है। इन सुविधाओं में शामिल हैं- बैंकिंग, बिजली, आवास, बीमा, जल, स्वच्छ ईंधन आदि। इनकी असमानता दूर करने से हमारी आबादी की उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी।
तीसरी प्रतिबद्धता, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान व जल जीवन अभियान जैसी कल्याणकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ ने आम नागरिकों की एक बड़ी बाधा खत्म कर दी है। यह बाधा थी, इन सुविधाओं को हासिल करने की लागत। इसके अलावा, ये लोगों को सशक्त व आत्मनिर्भर बना रही हैं। जैसे, पीएम आवास योजना के तहत बने घर लाभार्थी परिवार के लिए जीवन भर की संपत्ति है।
चौथी प्रतिबद्धता, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण में तकनीक का इस्तेमाल। एसईसीसी के माध्यम से लाभार्थियों की पहचान और वंचित सुविधाओं के मानदंड के आधार पर प्राथमिकता तय करने की परंपरा ने सरकार को उन लोगों की मदद करने में सक्षम बनाया है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूर है। जो सरकारें सार्वभौमिक सब्सिडी वाला शॉर्टकट अपनाती हैं, वे अक्सर गरीबों की अनदेखी करती हैं। दिल्ली में निचले तबकों के असंख्य परिवार पानी के कनेक्शन की कमी और दिल्ली जल बोर्ड की सीमित आपूर्ति के कारण पानी के लिए महंगे टैंकरों पर निर्भर हैं। इन घरों के लिए मुफ्त जल योजना का कोई मतलब नहीं है।
पांचवीं, विकास करने वाली वस्तुओं पर खर्च करने की प्राथमिकता न होने से पीढ़ीगत असमानता पैदा हो रही है। पीढ़ीगत ऋण अदला-बदली का विज्ञान और अर्थशास्त्र अपने शुरुआती चरण में बेहतर स्थिति में हैं। यह राज्यों व राष्ट्रों की सरकारों के बारे में भी सच है। मसलन, एक राज्य अपना कर्ज दूसरे राज्य को हस्तांतरित नहीं कर सकता, न ही कोई राष्ट्र दूसरे देश के साथ ऐसा कर सकता है। मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियों में एक यह भी है कि वर्षों की राजकोषीय फिजूलखर्ची के बाद साल 2014 में हम राजकोषीय ईमानदारी के रास्ते पर लौट आए।
छठी, विनिर्माण और रोजगार पर मुफ्त उपहारों का दुष्प्रभाव पड़ता है। यह कुशल और प्रतिस्पद्र्धी बुनियादी ढांचे से ध्यान भटकाकर विनिर्माण क्षेत्र की गुणवत्ता और प्रतिस्पद्र्धात्मकता को कम करती है।
साफ है, मुफ्त चीजें देने की संस्कृति के खतरों के बारे में प्रधानमंत्री की टिप्पणी से उन लोगों को सीख लेनी चाहिए, जो अविवेकपूर्ण सब्सिडी का वायदा करते हैं। इसे निचले तबकों को राज्यों द्वारा दिए जाने वाले समर्थन के विरोध में नहीं देखा जाना चाहिए, प्रधानमंत्री ने तो कल्याणकारी शासन का एक सफल मॉडल पेश किया है। अरस्तू ने कहा था, विषमता का सबसे बुरा रूप असमान चीजों को समान बनाने का प्रयास है। साफ है, 'मुफ्त की संस्कृति' समृद्धि का मार्ग नहीं, बल्कि वित्तीय आपदा का एक पासपोर्ट है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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