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दिल्ली स्थित पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने मंगलवार को 22 वर्षीय एक्टिविस्ट दिशा रवि को जमानत दे दी.
दिल्ली स्थित पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने मंगलवार को 22 वर्षीय एक्टिविस्ट दिशा रवि को जमानत दे दी. दिल्ली पुलिस ने दिशा रवि को कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों के समर्थन में टि्वटर पर एक 'टूलकिट' शेयर करने के मामले में 13 फरवरी को गिरफ्तार किया था. दिशा रवि मामला राजद्रोह कानून के उपयोग पर सवाल उठाता है. साथ ही सरकार को यह भी सोचने का मौका देता है कि क्या राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए नए कानून की आवश्यकता है?
दिशा रवि के खिलाफ आईपीसी की धारा 124 ए (देशद्रोह), धारा 153 ए (ऐसे कृत्य पर दंडित करता है, जो विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषीय या क्षेत्रीय समूहों या जातियों या समुदायों के बीच सद्भाव के खिलाफ है और जिनसे सार्वजनिक शांति भंग होती हो या भंग होने की संभावना पैदा होती हो) और 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था. दिशा रवि पर आरोप हैं कि उनके संबंध कुछ देश विरोधी संगठनों से थे जो किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता फैलाने की मंशा से काम कर रहे हैं.
कोर्ट के फैसले में क्या है
न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा के फैसले के विस्तृत विश्लेषण से यह पता चलता है कि अभियुक्त को जमानत देने के साथ-साथ यह जजमेंट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच सामंजस्य जैसे मुद्दों पर प्रकाश डालता है. अदालत के फैसले से यह स्पष्ट होता है कि अभियोजन पक्ष दिशा रवि के खिलाफ कोई भी ठोस साक्ष्य अदालत के समक्ष रखने में असफल रहा. साथ में दिशा रवि के किसी भी देश विरोधी और प्रतिबंधित संगठनों के साथ कोई भी सीधा और स्पष्ट संबंध स्थापित करने में भी असफल रहा. रवि को जमानत देते हुए अदालत ने जो टिप्पणियां की हैं वह पुलिस और प्रशासन को इस तरह के मामलों में और अधिक संवेदनशीलता और सावधानी बरतने के लिए निर्देशित भी करती हैं.
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि नागरिक लोकतांत्रिक सरकार की अंतरात्मा होते हैं. उन्हें आप सिर्फ इस वजह से सलाखों के पीछे नहीं रख सकते कि वे सरकार की नीतियों से सहमत नहीं हैं. साथ में तीखी टिप्पणी करते हुए और 'निहारेंदु दत्त मजूमदार बनाम राजशाही' को उद्धृत करते हुए कहा कि सिर्फ सरकारों के चोटिल अहम् को मरहम लगाने के लिए किसी पर देशद्रोह का दोष नहीं लगाया जा सकता है.
अदालत के फैसले के मायने
अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जिन महान लोगों ने इस राष्ट्र और संविधान को बनाने में मदद की उन्होंने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक अमूल्य मौलिक अधिकार मानते हुए वैचारिक मतभेद की मान्यता दी. सहमत नहीं होने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित है. जिन-जिन धाराओं में रवि के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया है, उन सभी के उपयोग और दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट में कई बार बहस हो चुकी है.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल एक मामले में धारा 120बी के संबंध में बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि असंबंधित तथ्यों या अलग-अलग समयों और जगहों पर हुई घटनाओं के बीच बिना कोई तार्किक संबंध स्थापित किए साजिश की बात नहीं मानी जा सकती. धारा 124 ए (जो कि देशद्रोह के अपराध को परिभाषित करती है) पर भी काफी बहस हो चुकी है. 6 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसने धारा 124 ए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं और उसे ultra-vires घोषित करने के अपील की. पर सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया.
पहले भी हुईं कई घटनाएं
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां देशद्रोह के इस कानून का दुरुपयोग हुआ है और पिछले कुछ साल में इस मुद्दे का इतना राजनीतिकरण हुआ कि लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने इस कानून को खत्म करने का ऐलान अपने घोषणा पत्र में कर दिया था. हाल ही के समय में देशद्रोह के कानून पर बहस 2016 में पूर्व जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी से शुरू हुई थी. कुमार पर भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप लगा था. पर पांच साल बाद भी कुमार के ऊपर देशद्रोह का अपराध अभी तक साबित नहीं हो सका है.
2016 में संवैधानिक विशेषज्ञ प्रोफेसर उपेंद्र बक्शी ने इस लेखक के साथ बात करते हुए कहा था कि किसी को भी भारत की अखंडता और संप्रभुता को चुनौती देने का हक नहीं है. पर साथ में उन्होंने स्पष्ट रूप से यह भी कहा था कि लोकतांत्रिक भारत में राजद्रोह कानून का कोई स्थान नहीं है. प्रोफेसर बक्शी के अनुसार अगर सरकार को लगता है कि राष्ट्र की अखंडता और संप्रभुता को कुछ लोगों से खतरा है तो उससे निबटने के लिए अलग कानून बने.
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