सम्पादकीय

खोपड़ी पर चर्चा

Rani Sahu
12 Jun 2022 7:07 PM GMT
खोपड़ी पर चर्चा
x
आज के दौर में सबसे कठिन काम है किसी सियासी पार्टी का प्रवक्ता बनना

आज के दौर में सबसे कठिन काम है किसी सियासी पार्टी का प्रवक्ता बनना। एक ऐसी योग्यता जो न तो प्रमाणित है और न आधिकारिक, फिर भी हर विषय और हर बहस के अनुरूप खरा साबित होने की चुनौती में अपने कपड़े बचाने और दूसरे के दागदार बताने का अत्यंत दुष्कर कार्य एक प्रवक्ता को हर सूरत करना है। विषय कोई भी ढूंढ लें, यह महाशय अपने अस्तित्व को तराशते हुए हर चर्चा को विषयविहीन करके सामने वाले के चेहरे से इतने मुखौटे हटा सकता है कि बहस करने वाला भी इस संशय में फंस जाता है कि आखिर उसने मुखौटे पहने कब। अब गौर से देखिए कि राजनीतिक प्रवक्ताओं की महफिल में हर रोज कितने जंगल उगते हैं और किस अदा से वे अपने तर्कों को हांकते-हांकते इनमें आग लगा देते हैं और हम सोचते रह जाते हैं कि यह आग लगी कैसे। खैर आज देश में शांति थी- विचारों, मुद्राओं-मनन और मनौतियों में चारों तरफ किसी को कोई शिकायत नहीं मिल रही थी। तभी किसी को अचानक एक जंगल में इनसान की खोपड़ी मिल गई। सभी पार्टियों के प्रवक्ताओं के लिए यह जीने-मरने का प्रश्न बन गया। कोई मरा होगा, तभी तो खोपड़ी में इनसान का विषय जंगल में धरा होगा। सवाल देश से बड़ा इसलिए भी था क्योंकि एक इनसान की खोपड़ी पर जिंदा खोपडि़यां विचार-विमर्श कर रही थीं। यह खोपड़ी महज खोपड़ी ही होती अगर जंगल की आग में जल जाती या बारिश-बाढ़ में बह जाती। हर साल इसी तरह कितने ही इनसान खोपड़ी में परिवर्तित होकर गुमनाम हो जाते हैं, इससे बहस नहीं बनती। आज क्योंकि खोपड़ी अपने तथ्य और सत्य के साथ हाथ आई है, तो मीडिया की खोपड़ी भी इस विषय को राष्ट्रीय मसला मान रही है।

खोपड़ी पर चर्चा लगभग हर चैनल पर थी, तो सभी इसे सुर्खी बनाकर मैदान पर थे। मीडिया अपनी खोपड़ी से कहीं ज्यादा इस खोपड़ी को अपने हैडिंग से विद्रूप बनाने में जुटा था। एक अच्छी भली और साबुत खोपड़ी मीडिया के पास जाकर हर क्षण भयानक हो रही थी। हैडिंग खुद बोल रहे थे, 'अब खोपड़ी लेगी इंतकाम', 'खोपड़ी का सच-गरीब की झौंपड़ी तक', जंगल में उगी खोपड़ी, यह खोपड़ी करेगी ब्लास्ट, यह खोपड़ी जीतेगी चुनाव तथा 'यह खोपड़ी बोल रही है' बगैरा-बगैरा। बहस में शरीक सभी पार्टियों के प्रवक्ता भी कम से कम ऐसी ही खोपड़ी के अवतार में थे। कभी श्रोताओं को लग रहा था कि लगभग सभी पार्टी प्रवक्ताओं की खोपड़ी जंगल में मिली खोपड़ी की तरह होगी, फिर भी इस खोपड़ी के आगे पूरी बहस राष्ट्रहित में थी। लगभग हर प्रवक्ता को खोपड़ी में साजिश दिखाई दे रही थी, लेकिन पहली बार राजनीतिक तौर पर यह तय नहीं हो पा रहा था कि लावारिस खोपड़ी का धर्म और जाति क्या है। किसी ने कहा कि यह राष्ट्रद्रोह का मामला है, तो किसी ने कहा यह भारतीय स्वाभिमान का मसला है। 'अगर इनसान खोपडि़यां बनकर कहीं गुम हो गए, तो फिर हमारी बहस का क्या होगा। हम इनसान को खोपड़ी बनाने में धर्म और जाति का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन खोपड़ी को किसी के साथ नहीं जोड़ सकते।' पहली बार टीवी बहस के सारे एंकर एक लावारिस खोपड़ी में न धर्म और न ही जाति खोज पा रहे थे, फिर भी प्रवक्ताओं ने यह मान लिया कि यह खोपड़ी भारत के खिलाफ कोई साजिश है। इसी साजिश को ढूंढने में सारे पार्टी प्रवक्ताओं के साथ-साथ टीवी एंकरों की खोपडि़यां मशगूल हो गईं।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक

By: divyahimachal


Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story