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- खोपड़ी पर चर्चा
आज के दौर में सबसे कठिन काम है किसी सियासी पार्टी का प्रवक्ता बनना। एक ऐसी योग्यता जो न तो प्रमाणित है और न आधिकारिक, फिर भी हर विषय और हर बहस के अनुरूप खरा साबित होने की चुनौती में अपने कपड़े बचाने और दूसरे के दागदार बताने का अत्यंत दुष्कर कार्य एक प्रवक्ता को हर सूरत करना है। विषय कोई भी ढूंढ लें, यह महाशय अपने अस्तित्व को तराशते हुए हर चर्चा को विषयविहीन करके सामने वाले के चेहरे से इतने मुखौटे हटा सकता है कि बहस करने वाला भी इस संशय में फंस जाता है कि आखिर उसने मुखौटे पहने कब। अब गौर से देखिए कि राजनीतिक प्रवक्ताओं की महफिल में हर रोज कितने जंगल उगते हैं और किस अदा से वे अपने तर्कों को हांकते-हांकते इनमें आग लगा देते हैं और हम सोचते रह जाते हैं कि यह आग लगी कैसे। खैर आज देश में शांति थी- विचारों, मुद्राओं-मनन और मनौतियों में चारों तरफ किसी को कोई शिकायत नहीं मिल रही थी। तभी किसी को अचानक एक जंगल में इनसान की खोपड़ी मिल गई। सभी पार्टियों के प्रवक्ताओं के लिए यह जीने-मरने का प्रश्न बन गया। कोई मरा होगा, तभी तो खोपड़ी में इनसान का विषय जंगल में धरा होगा। सवाल देश से बड़ा इसलिए भी था क्योंकि एक इनसान की खोपड़ी पर जिंदा खोपडि़यां विचार-विमर्श कर रही थीं। यह खोपड़ी महज खोपड़ी ही होती अगर जंगल की आग में जल जाती या बारिश-बाढ़ में बह जाती। हर साल इसी तरह कितने ही इनसान खोपड़ी में परिवर्तित होकर गुमनाम हो जाते हैं, इससे बहस नहीं बनती। आज क्योंकि खोपड़ी अपने तथ्य और सत्य के साथ हाथ आई है, तो मीडिया की खोपड़ी भी इस विषय को राष्ट्रीय मसला मान रही है।
By: divyahimachal