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गांधी का गंगौर और ग्रेट इंडियन माइग्रेशन
संस्कृति का इतिहास शौकिया शैली में ही लिखा जा सकता है.
– रामधारी सिंह दिनकर
समय के साथ तेली ने तेल पेरना छोड़ दिया. कुम्हार से घैला मांगते हैं तो वह बाज़ार से खरीदकर पहुंचा देता है. कंसार में आग जलाने के लिए जरना ही नहीं बचा. बढ़ई के बाल-बच्चे हमारी तरह ही खटने-कमाने दिल्ली-बम्बई (मुंबई) निकल गए.
मैय्यों के साथ उनकी खटिया और बोरसी भी चली गई. जिस डोभा में पाट के पौधे गलाए जाते थे, वह कबका भर गया. जूट बोर्ड तो बन गया, पर पटसन की खेती बंद हो गई. जहां चरका और कैला बैलों की जोड़ी बंधती थी, वहां लालों का ट्रैक्टर लगने लगा.
बिहार से निकले एक युग बीत गया. इन दिनों भोपाल में हूं, जिसके बारे में कहा जाता है – 'तालों में ताल भोपाल ताल, बाकी सब तलैया'. कहा जाता है कि इस शहर को राजा भोज ने बसाया था. राजा भोज का नाम पहली दफा तब सुना था, जब अक्षर ज्ञान भी नहीं हुआ था.
अंगुरी के आकार के अंगुरिया नामक बच्चे का विस्मयकारी किस्सा सुनने की चाहत अक्सर हमें घूरे के पास खींच लाती थी. घूरा ताप रहे बड़े-बूढ़े हमारा ज्ञान वर्धन करने के लिए दो घुट्टी रटाते थे. एक, हम भोज के वंशज थे. दो, हमारा हाल-मुकाम भले गंगौर हो, पर हमारा घर था, धारा नगरी. धारा नगरी का संगीतमय नाम सुनकर एक ज़माने में लगता था कि वह चंद्रकांता संतति के चुनार किले सी कोई रोमांचक जगह होगी. बाद में पता चला कि वह मध्य प्रदेश के धार शहर का प्राचीन नाम था.
मालवा से मिथिला
पता नहीं किस भीषण युद्ध या प्राकृतिक आपदा के चलते परमारों के उस कुनबे ने कब धारा नगरी से पलायन किया. पर इतना पक्का था कि इंद्र सिंह और चन्द्र सिंह नामक दो भाइयों ने 1500 किलोमीटर का सफ़र तय कर बूढ़ी गंडक के किनारे गंगौर गांव में अपना लाव-लश्कर डाला था.
जगह बड़ी सोच-समझ कर चुनी गई थी. थोड़ी दूर आगे ही बूढ़ी गंडक का मुहाना था, जहां वह गंगा में मिलती थी. अर्थात इफरात पानी. बचपन की मुझे याद है. गांव के बाहर केवल सात-आठ हाथ खोदने पर पानी निकल आता था.
गांव के बाहर इतने पेड़-पौधे और बांसों के झुरमुट थे कि एक छोटा-मोटा जंगल बन जाता था. बांसबिट्टी, आम-लीची-कटहल-जामुन-सखुआ की गाछियां और अरहर-ईख-सरसों के सघन खेत कई दफा प्रेमियों के मिलने के भी काम आते थे. पर, गाहे-बगाहे उन्हीं कॉरीडोर से चहल कदमी करते बाघ-तेंदुए कई दफा आबादी के पास भी आ जाते थे. ऐसा ही एक बाघ या तेंदुआ ओलापुर के ज्वाला डाक्टर ने गांव के सीमा पर 1950 के दशक में मारा था. उसका एक दांत कई साल तक ताबीज बनकर मेरे गले में लटकता रहा.
इन्द्र सिंह, चंद्र सिंह ऐसा सफर करने वालों में अकेले नहीं थे. 2001 के सेन्सस के मुताबिक हिंदुस्तान में आज ऐसे 30 करोड़ से ज्यादा लोग हैं जो अपने पुरखों की धरती से माइग्रेट कर दूसरी जगह बस गए हैं. इस क्रॉस-कन्ट्री माइग्रेशन ने हिन्दुस्तानी समाज के ताने-बाने में तमाम चटकीले रंग भरे. और यही माइग्रेशन सैकड़ों साल में बुने गए हमारे सामाजिक ताने-बाने की कई गुत्थियों को खोलता है. ज्यादा जिज्ञासा हो तो आप चिन्मय तुम्बे की अद्भुत किताब, 'इंडिया मूविंग: ए हिस्ट्री ऑफ माइग्रेशन' जरूर पढ़ें.
सिंह बंधु धार से आ तो गए, पर धार से कभी अलग नहीं हो पाए. धार में रहने वाले उनके पुरोहित 1500 किलोमीटर का सफ़र तय कर हर साल गंगौर आया करते थे. मक्सद होता था, फसल में अपना हिस्सा वसूलना. यह सिलसिला पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक चलता रहा. सैकड़ों वर्षों तक साल-दर-साल चलने वाली इस दुष्कर यात्रा के बारे में सोचकर अभी भी देह में फुरहरी छूटती है. अब तो रेलगाड़ी है. जब नहीं थी, तब कैसे आते होंगे? 1500 किलोमीटर तय करने में कितने दिन लगते होंगे? और रास्ते में ठग और पिंडारी, लुटेरे और डाकू!
ठग-पिंडारियों का खात्मा करने वाले कर्नल स्लीमन (1788-1856) के नाम पर मध्यप्रदेश के कटनी में आज भी एक कस्बा आबाद है – स्लीमनाबाद. इन गिरोहों को अक्सर स्थानीय सामंतों का प्रश्रय होता था. लंबी यात्राएं खतरनाक हो गई थीं. ठग लूट के बाद सबूत खत्म करने के लिए अपने शिकार को जान से भी मार देते थे. स्लीमन लिखते हैं: 'मैं नर्मदा घाटी में नरसिंहपुर जिले का मजिस्ट्रेट था. सागर होकर भोपाल जाने वाले रास्ते में मुंडेसर गांव के जंगलनुमा बगीचों से 100 यात्रियों की लाशें गड़ी मिली. कुंडली में पेशेवर कातिलों का एक गिरोह था, जो पूना और हैदराबाद तक धावा बोलता था.'
उस काल में ऐसी लंबी यात्राओं के दौरान 719 यात्रियों की हत्या करने वाले एक पेशेवर कातिल पर ब्रिटिश आर्मी के मिडोस टेलर ने 1839 में एक किताब लिखी – 'कनफेसन्स ऑफ ए ठग'. वे लिखते हैं: 'यात्री या तो पैदल चलते थे, या घोड़ों पर. जंगलों, पहाड़ों, निर्जन इलाकों के बीच पगडंडियों से गुजरना पड़ता था. सोना, चांदी, कीमती जवाहरात लेकर चलने वाले लोग, इन लुटेरों और ठगों से बचने के लिए दरिद्रों की तरह सफर करते थे, पर बच नहीं पाते थे.'
ऐसे ही रास्तों से होकर इन्द्र सिंह और चंद्र सिंह ने 1500 किलोमीटर का सफर तय किया था और बाद में उनके पुरोहित हर साल आते रहे.
वह क्या सेतु था जिसने इस रिश्ते को इतने अरसे तक टिकाये रखा? क्या केवल कुछ मन अनाज या चांदी के चंद सिक्के? गैबरियल गर्शिया मार्खेज कहते हैं, घर वहीं है जहां आपके पुरखों की हड्डियां गड़ी हैं.
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(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार
चार दशक से पत्रकारिता जगत में सक्रिय. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक भास्कर में संपादक रहे. समसामयिक विषयों के साथ-साथ देश के सामाजिक ताने-बाने पर लगातार लिखते रहे हैं.
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