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संपूर्ण विश्व अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में है और ये प्राकृतिक घटनाएं बहुत जल्दी-जल्दी घट रही हैं। सरकारें और प्रभावित लोग हर बार इसे महज प्राकृतिक घटना समझकर नजरअंदाज कर रहे हैं। वर्षों से ही यह क्रम चला आ रहा है। कुदरत कभी तरस नहीं खाती और जो इसके साथ खिलवाड़ करते हैं, उनको कभी भी माफ नहीं करती। अब प्रश्न उठता है कि सरकारें और लोग इन प्राकृतिक आपदाओं से कुछ सीखेंगे और अपनी की हुई गलतियों में सुधार करेंगे या कुदरत की आपदा समझकर इसको सामान्य ही लेते रहेंगे। पूरे विश्व में अगर नजर दौड़ाई जाए तो सभी जगहों से समाचार आ रहे हैं कि चरम जलवायु परिवर्तन से तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं, जैसे भयंकर बारिश और इसके कारण धरती के बहुत से देशों में प्रलयंकारी बाढ़ देखी जा रही है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत पर भी पड़ता दिख रहा है। हालांकि भारत 3.7 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन ही कर रहा है। भारी बारिश से आई बाढ़ ने भारत में तांडव मचाया हुआ है जिससे बड़ी संख्या में लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना और बेघर होना पड़ रहा है। बादल फटने की घटनाएं तो हिमालयी क्षेत्रों में आम हो गई हैं। आकस्मिक बाढ़ में पिछले 3 वर्षों में 40 प्रतिशत इजाफा हुआ है और आगे भी यह रुझान चलता रहेगा। अगर हिमाचल की बात करें, तो यहां प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, ग्लेशियर से बनी झीलें, बादलों का फटना, भीषण तूफान, जमीनों का खिसकना आम बात हो गई है और साल दर साल बढ़ती ही जा रही हैं जो हमें याद दिला रही हैं कि हमने प्रकृति से ज्यादा ही छेड़छाड़ कर दी है।
हर साल हम इन भीषण प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हैं और कुदरत का कहर समझ कर भूल जाते हैं। सरकारें भी प्राकृतिक आपदाएं समझ कर इनको सामान्य ढंग से लेकर कोई ठोस नीति इन आपदाओं से निपटने के लिए नहीं बनाती हैं। हिमाचल में भारी बारिश और बादल फटने की घटनाएं कुछ वर्षों से बहुत ही बढ़ गई हैं। इसके पीछे मुख्य कारण पर्यावरण का गर्म होना है जो लगातार वृक्षों के काटने से तथा जंगलों में आग लगने से होता है। जंगलों में चोरी छिपे वृक्ष काटे जा रहे हैं। माफिया इतना सक्रिय है कि जो कर्मचारी या अधिकारी कड़ी निगरानी करते हैं उनको माफिया नुकसान पहुंचाने से नहीं डरता। सैंज (कुल्लू) में आई बाढ़ में 3133 स्लीपरों तथा 723 क्यूबिक मीटर बालन की लकड़ी का बहते आना, जिसको वन विभाग ने पकडक़र अपने कब्जे में लिया, इस बात को सिद्ध करता है कि पेड़ों का अवैध कटान किया जा रहा है। फोरलेन को बनाते समय भी सैकड़ों पेड़ों को काटा गया और उनको बचाने की कोशिश भी नहीं की गई जो कि होनी चाहिए थी। इसलिए तो हिमाचल में जगह-जगह भूमि कटाव की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। हिमाचल प्रदेश सरकार को विकास और पर्यावरण के बीच में समन्वय स्थापित करना होगा और मौजूदा नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है। शिमला शहर में भी कोई बड़ी घटना न हो, इससे पहले ही कार्य शुरू कर देना चाहिए और शिमला विकास नियोजन (एसडीपी) को एनजीटी के दिशा-निर्देशों के अनुरूप ही लागू करना चाहिए। हिमाचल में फोरलेन प्रोजेक्टों के बारे में दोबारा सोचना चाहिए जो हिमाचल की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए पहाड़ों और पेड़ों को बचाए जा सकने में कारगर हो। वर्तमान सरकार को बाढ़ तथा उससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए कुछ उपायों पर विचार करना चाहिए।
सभी पन-बिजली परियोजनाओं के डैम प्राधिकारियों को अपने-अपने डैम के अनुप्रवाह क्षेत्र की खड्डों, नदियों का चैनेलाइजेशन तथा सुरक्षा दीवार लगाकर सडक़ तथा साथ लगती बस्तियां को सुरक्षित करने के आदेश देने चाहिए। हिमाचल प्रदेश सरकार को बीबीएमबी प्रबंधन को सुंदरनगर झील की सिल्ट के निष्पादन के दूसरे उपाय ढूंढने के आदेश देने चाहिए ताकि लोगों की उपजाऊ भूमि को बंजर होने से बचाया जा सके तथा बरसात में जमीन व घरों को जलमग्न होने से बचाया जा सके। फोरलेन परियोजनाएं विकास के लिए जरूरी हैं, परंतु हमें भूविज्ञान को मद्देनजर रखकर फोरलेन की शर्तों में तथा इसके नियोजन के लिए सरकार और एनएचएआई की संयुक्त पर्यावरण तथा तकनीकी कमेटी को बनाकर आगामी योजना बनानी चाहिए ताकि हिमाचल के पर्यावरण, नदियों, झीलों और पहाड़ों को बचाया जा सके। नदियों में मलबा आदि न फेंका जाए और इसके लिए निर्माण कंपनियों को डंपिंग कानून का शक्ति से पालन करवाना चाहिए और अवेहलना करने पर सख्त कार्यवाही हो। हिमाचल सरकार को वैज्ञानिक तरीके से नदियों में से रेत और पत्थर आदि निकाल कर इसकी गहराई को बढ़ाना चाहिए। सरकार को नदियों के किनारे से 100 मीटर से बाहर ही निर्माण करना चाहिए तथा जनता से भी इस शर्त को सख्ती से अपनाने के लिए कदम उठाने चाहिए। झीलों और नदियों के किनारे बने अस्थाई टापुओं पर कोई भी पर्यटक गतिविधियां नहीं होने देनी चाहिए। पर्यटन का नियोजन करने के लिए एक विशेष टीम का गठन करना चाहिए जो सही राय प्रस्तुत करे तथा सरकार को ईमानदारी से इसके लिए ध्यान देना चाहिए ताकि हर साल यह आपदा न हो। छलनी हुई पहाडिय़ों पर पौधारोपण करके इन पहाडिय़ों को और खिसकने से बचाना चाहिए तथा पहाड़ों पर जहां-जहां नालियां पानी की निकासी के लिए आवश्यक हैं, बनाकर बागीचों, जंगलों तथा निजी मकानों को बचाया जाए।
हिमाचल में जो ग्रीन क्षेत्र हैं, उनको बचाया जाए। अगर कोई परियोजना वहां लगाई भी जाती है तो उसे किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित किया जाए। इस बार की तबाही का अध्ययन करके जहां जहां तक नदी के किनारे, खतरनाक बाढ़ के क्षेत्र बने हैं वहां पर कोई भी निर्माण न हो तथा सुरक्षा दीवार आदि लगानी चाहिए। नदी-नालों को रोकना तथा डाइवर्ट करना सख्ती से बंद कर देना चाहिए, अवैध भवनों के मालिकों को कोई भी मुआवजा न दिया जाए और न ही वहां दोबारा निर्माण होने देना चाहिए। पहाड़ों की कटिंग 45 डिग्री के कोण पर तथा स्टैप में करनी चाहिए, न कि 90 डिग्री के कोण पर। सभी संरचनाओं में गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए।
सत्यपाल वशिष्ठ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
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