सम्पादकीय

उच्च शिक्षा और शोध की दिशा

Subhi
23 Aug 2022 4:32 AM GMT
उच्च शिक्षा और शोध की दिशा
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किसी भी देश का विकास वहां के लोगों के विकास से गहरा संबंध रखता है। कोई देश विकास के पथ पर तभी आगे बढ़ा है और बढ़ सकता है जब उसके पास उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों।

सुशील कुमार सिंह: किसी भी देश का विकास वहां के लोगों के विकास से गहरा संबंध रखता है। कोई देश विकास के पथ पर तभी आगे बढ़ा है और बढ़ सकता है जब उसके पास उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों।

प्रशासनिक चिंतक पीटर ड्रकर ने दशकों पहले कह दिया था कि आने वाले वक्त में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बन जाएगा। किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहां शिक्षा का स्तर कैसा है। बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अब दुनिया इस आकलन पर भी आकर अपना मंतव्य रखेगी कि अमुख देश का शोध और अनुसंधान किस स्तर का है। गौरतलब है कि शिक्षण, शोध एवं विस्तार कार्य इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम उच्च शिक्षा है, जबकि मानव जाति, संस्कृति और समाज का ज्ञान शोध से संचालित होता है। यूनेस्को के अनुसार ज्ञान के भंडार को बढ़ाने के लिए योजनाबद्ध ढंग से किए गए सृजनात्मक कार्य को ही शोध एवं विकास कहा जाता है।

देखा जाए तो ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था और सीखने के समाज में उच्चत्तर शिक्षा अति महत्त्वपूर्ण है। जहां तक व्यावसायिक शिक्षा और पेशेवर प्रशिक्षण का सवाल है, बीते कुछ दशकों से इसकी मांग बढ़ी है। नई शिक्षा नीति 2020 भी ऐसी ही भावनाओं से ओत-प्रोत है। उच्च शिक्षा को लेकर जो सवाल उभरते हैं, उसमें एक यह कि क्या विश्व परिदृश्य में तेजी से बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर शिक्षा और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार बदल रहे हैं? और दूसरा यह कि क्या शिक्षा का तकनीकी होने का बड़ा लाभ देश उठा पा रहा है? शोध और अनुसंधान को लेकर भी ऐसे ही सवाल मानस पटल पर उभरते रहे हैं। इसलिए कुछ ऐसे सवाल हैं जो भारत के संदर्भ में प्रासंगिक बने हुए हैं। जैसे- आज की वैज्ञानिक प्रतिस्पर्धा वाली दुनिया में भारत के अनुसंधान एवं विकास की क्या स्थिति है? चीन व जापान जैसे देशों से भारत शोध कार्यों के मामले में पीछे क्यों है? शोध व विकास को लेकर भारत की प्रगति में वह कौनसी रुकावट है जो अनुसंधान का पहिया रोक रही है?

गौरतलब है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में शुरू में ज्ञान के सृजन का हस्तांतरण भूमंडलीय सीख और भूमंडलीय हिस्सेदारी के आधार पर हुआ था। बाजारवाद के चलते शिक्षा मात्रात्मक रूप से तो बढ़ी और निजी संस्थाओं में भी विकसित होती गई, मगर गुणवत्ता के मामले में कमजोर पड़ती गई। यहीं से उच्च शिक्षा और उसमें निहित अनुसंधान की प्रगति का पहिया धीमा पड़ने लगा। इसमें संदेह नहीं कि अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में भारत के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं।

पड़ताल बताती है कि लगभग पांच दशक पहले पचास फीसद से अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वविद्यालयों में ही होते थे। इतना ही नहीं, विश्वविद्यालयों को उच्च शिक्षा के गढ़ और शोध केंद्र के तौर पर भी देखा जाता था। मगर मौजूदा समय में अब स्थिति केवल उपाधियों के वितरण तक ही सीमित दिखाई देती है। इसके पीछे एक बड़ा कारण अनुसंधान के लिए धन की उपलब्धता में कमी भी है। साथ ही युवाओं का शोध में कम तथा अन्य क्षेत्रों में जुड़ाव का अधिक होना भी है। महिलाओं के मामले में यह कहना अतार्किक नहीं होगा कि उच्च शिक्षा तक पहुंच ही उनके लिए बड़ी उपलब्धि है।

कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में उपलब्धियों को छोड़ दें, तो शोध और अनुसंधान के मामले में वैश्विक पटल पर भारत की स्थिति मजबूत नहीं दिखती। मौजूदा समय में देश में उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या सभी प्रारूपों में चार करोड़ से अधिक है। सभी प्रकार के विश्वविद्यालयों की संख्या भी हजार से अधिक है। चालीस हजार से ज्यादा महाविद्यालय हैं। इसके अलावा कई सरकारी और निजी शोध संस्थाएं भी देखी जा सकती हैं।

यह बात जितनी शीघ्रता से समझ ली जाएगी कि शोध एक समुचित, सुनिश्चित और आकलन व प्राक्कलन से भरा विकास का एक ऐसा वैज्ञानिक रास्ता सुझाता है, जिससे देश के समावेशी ढांचे को न केवल मजबूत करना संभव है, बल्कि आत्मनिर्भर भारत का फलक भी इसी से हासिल किया जा सकता है। किसी भी देश का विकास वहां के लोगों के विकास से गहरा संबंध रखता है। कोई देश विकास के पथ पर तभी आगे बढ़ा है और बढ़ सकता है जब उसके पास उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध और अनुसंधान के पर्याप्त साधन उपलब्ध हों।

शोध और नवाचार के मामले में भारत अपने कुल सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.7 फीसद ही खर्च करता है, जबकि अमेरिका 2.8 फीसद और चीन 2.1 फीसद के साथ तुलनात्मक बढ़त लिए हुए है। इतना ही नहीं इजराइल और दक्षिण कोरिया जैसे देश शोध संबंदी क्रियाकलापों पर कुल जीडीपी का चार फीसद से अधिक खर्च करते हैं। अमेरिका और चीन के समावेशी खर्च को शोध की दृष्टि से देखें तो व्यापार युद्ध और कूटनीतिक लड़ाई के अलावा दोनों देशों में शोध और उच्च शिक्षा को लेकर भी भारी प्रतिस्पर्धा है।

चीन ने शोध प्रकाशित करने और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। जापान के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की रिपोर्ट पर नजर डालें तो साफ है कि पूरी दुनिया में जितने शोध पत्र प्रकाशित होते हैं, उसमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी चीन की ही है। इसके बाद अमेरिका और जर्मनी का स्थान आता है। गौरतलब है कि साल 2018 से 2022 के बीच चीन ने 27.2 फीसद शोध पत्र प्रकाशित किए, जबकि अमेरिका में यही आंकड़ा 24.9 फीसद है। रिपोर्ट से यह भी परिलक्षित होता है कि चीन में जहां इंजीनियरिंग, गणित, सामग्री विज्ञान में सबसे ज्यादा शोध हो रहे हैं, वहीं अमेरिका बुनियादी जीवन विज्ञान और भौतिक विज्ञान में सबसे ज्यादा शोध कर रहा है। चीन से पिछड़ने के चलते अमेरिका ने अपने शोध कार्यों को मजबूती देने के लिए आगामी दस वर्षों में दो सौ अमेरिकी डालर खर्च करने का फैसला लिया है।

अब बात भारत की। शोध में भारत का वैश्विक स्थान अच्छा नहीं है। यही वजह है जिसके चलते शोध का फायदा जनता को नहीं मिल पाता है। जब तक शोध में खर्च नहीं बढ़ाया जाएगा, तब तक जमीनी हकीकत कुछ और ही रहेगी। ज्ञान और शोध की वैश्विक स्थिति को देखते हुए भारत को भी अनुसंधान के लिए प्रयास बड़ा करने की जरूरत है। हालांकि नेशनल रिसर्च फाउंडेशन स्थापित करने की बात पहले ही की जा चुकी है। इसकी स्थापना के साथ ही सभी मंत्रालयों को आइआइटी के साथ भी विज्ञान एवं शोध के क्षेत्र में अधिक सहयोग करने की जरूरत है। दो टूक कहें तो उच्च शिक्षा और शोध ऐसे चमकते शब्द हैं जिसकी बेहतर तरीके घिसाई कर दी जाए तो दुनिया में भारत की चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।

उच्च शिक्षा और शोध किसी राष्ट्र की प्रगति की रीढ़ होते हैं। उच्च शिक्षा में शोध की भूमिका सबसे अहम होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। उच्च शिक्षा और शोध का संयोजन जय अनुसंधान के नारे से यदि तुलनात्मक बढ़त लेता है तो समावेशी विकास के साथ सुशासन को भी बुलंदी मिलेगी। हालांकि वैश्विक नवाचार सूचकांक में भारत सत्तावनवें पायदान पर है, जबकि स्विट्जरलैंड पहले, अमेरिका छठे और चीन सत्रहवें स्थान पर है। नीदरलैंड, स्वीडन, ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे कम जन-घनत्व वाले देश नवाचार के मामले में क्रमश: दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें स्थान पर हैं। इसीलिए शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल ने कहा था कि जिन शिक्षण संस्थानों में अनुसंधान और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता वे न तो शिक्षा का भला कर पाते और न ही समाज का।


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