सम्पादकीय

करवट बदलते दौर में कूटनीति

Rani Sahu
30 Dec 2021 6:39 PM GMT
करवट बदलते दौर में कूटनीति
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यह साल कोविड-19 के साए में ही गुजरा। इस महामारी ने हर देश में उथल-पुथल मचाई

विवेक काटजूयह साल कोविड-19 के साए में ही गुजरा। इस महामारी ने हर देश में उथल-पुथल मचाई। स्थिति यह है कि 2020 में बिगड़ चुका वैश्विक संतुलन इस वर्ष भी पटरी पर नहीं लौट सका। साल 2021 की मांग थी कि विश्व की महाशक्तियां आपसी सहयोग से कोविड-19 को खत्म करने की कोशिशें करतीं और हरेक देश की पर्याप्त मदद करतीं। हर महाशक्ति ने यह तो माना कि दुनिया में कोई भी देश महामारी से तब तक सुरक्षित नहीं है, जब तक कि हरेक देश सुरक्षित नहीं होगा, लेकिन इस सिद्धांत पर किसी ने अमल नहीं किया। महाशक्तियों के शीर्ष नेतृत्व ने प्राथमिकता अपने ही लोगों को दी, जिस कारण दुनिया भर में 'टीका असमानता' देखी गई।

भारत ने इसमें अलहदा रुख अपनाया। उसने वर्ष की शुरुआत में ही टीकों का निर्यात शुरू कर दिया, जबकि उसकी अपनी जनता को इनकी जरूरत थी। इससे हमने खुद को एक अच्छा वैश्विक नागरिक साबित किया। बाद में, जब टीकों की घरेलू आवश्यकता बढ़ गई और यह दबाव बना कि टीके निर्यात न किए जाएं, तो विदेशों में टीके न भेजने का अच्छा फैसला लिया गया, क्योंकि दूसरी लहर ने भारत में भयानक तबाही मचाई। वर्ष के अंत तक फिर टीकों को बाहर भेजना आरंभ किया गया, लेकिन ओमीक्रोन का खतरा बढ़ने के बाद एक बार फिर अपनी जनता को अधिक प्राथमिकता देने की जरूरत है।
बहरहाल, सामरिक दृष्टि से यह वर्ष काफी चुनौतीपूर्ण रहा। सबसे बड़ी चुनौती तो चीन के आक्रामक रवैये से मिली। उसने 2020 में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह अब वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति बनाए रखने के सिद्धांत को छोड़ने को तैयार है। इस साल एलएसी पर स्थिति कुछ सामान्य तो हुई, लेकिन 2020 के अतिक्रमण से पहले की यथास्थिति पर जाने को चीन तैयार नहीं था। भारत-चीन वार्ता में भारतीय प्रतिनिधियों ने यह साफ कर दिया कि जब तक वह एलएसी पर शांति बनाए रखने को प्राथमिकता नहीं देगा, तब तक स्थिति सामान्य नहीं हो सकती। नतीजतन, चीन के साथ तनाव चलता रहा, इसलिए एलएसी पर हमें ज्यादा सेना तैनात करनी पड़ी, आगे भी पड़ेगी। वैसे, इस बीच उसने हमारे पश्चिम पड़ोस के देशों के साथ-साथ अन्य करीबी राष्ट्रों में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।
इस साल अफगानिस्तान में तालिबान की जीत से भारत की अफगान नीति को क्षति पहुंची है। दुखद है कि जब ये संकेत दिख रहे थे कि गनी सरकार के हाथ से वक्त फिसलता जा रहा है और भारतीय हितों की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक हो गया है कि तालिबान से संबंध बनाए जाएं और बातचीत शुरू हो, तब भारत ने ऐसा करने से परहेज किया। अंत में, जब तालिबान ने सत्ता पर कब्जा कर लिया, तब भारतीय और तालिबानी प्रतिनिधियों में कुछ खुली बैठकें हुईं जरूर, लेकिन अफगानिस्तान में जिस त्वरित और लचीली नीति की दरकार थी, उसका अभाव रहा। इसका फायदा पाकिस्तान और चीन ने उठाया। पश्चिम एशिया में जरूर भारत ने इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात के साथ नई पहल शुरू की, जिससे ऐसे संकेत मिले कि भारत इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की अपनी नीतियों में बदलाव कर रहा है, लेकिन नई दिल्ली किस रास्ते पर आगे बढे़गी, यह अब भी साफ नहीं हो सका है।
साल 2021 जैसे-जैसे आगे बढ़ा, यह भी स्पष्ट होने लगा कि दुनिया एक नए शीत युग में प्रवेश कर गई है। एक तरफ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका और उसके मित्र देश अपना प्रभाव कायम रखने की कोशिशों में जुटे रहे, तो दूसरी तरफ चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में ऐसे-ऐसे कदम उठाए, जिनसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से चल रही विश्व व्यवस्था बदली जा सके। बीते चार दशकों में चीन आर्थिक रूप से बहुत सफल रहा है। इसी बुनियाद पर उसने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई है, और अपनी सेनाओं का आधुनिकीकरण किया है। लेकिन जो सबसे बड़ी कामयाबी उसने हासिल की है, वह विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में है। अब वह अमेरिका, यूरोप और जापान को तकनीकी क्षेत्र में चुनौती देने लायक बनता जा रहा है। इसका एक उदाहरण 5जी कम्यूनिकेशन तकनीक है। इसी तरह, वह बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के जरिये दुनिया के हर कोने में, खासतौर से हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों को वह तभी तक मानेगा, जब तक उन कानूनों और उसके हितों में टकराव न हो।
नए शीत युग की वजह से इस साल भारत को बहुत नरम कूटनीति अपनानी पड़ी। एक तरफ उसने 'क्वाड', यानी अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन और प्रशांत महासागर के अन्य देशों को यह संदेश दिया कि वह बीजिंग की आक्रामक गतिविधियों को मंजूर नहीं करता, तो दूसरी तरफ उसने रूस से अपने रिश्ते बनाए रखे, खासतौर पर रक्षा के क्षेत्र में। इन सबके जरिये चीन को भारत यह संकेत देने में सफल रहा कि नई दिल्ली एक संतुलित रिश्ते की हिमायती है, लेकिन वह अपने हितों को कतई नजरंदाज नहीं करेगी। दुनिया के लिए भी भारत का यही संदेश रहा कि वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ हर क्षेत्र में अपने रिश्ते बढ़ाना चाहता है, लेकिन वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति या सामरिक नीति का त्याग नहीं करेगा। यही वजह है कि अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत रूस से एस 400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की खरीदारी पर अटल रहा।
इस साल पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते हमेशा की तरह खराब ही रहे। इस बीच पाकिस्तान का दुष्प्रचार भी चलता रहा। वह मोदी सरकार, भारत की नीतियों और विशेषकर संघ परिवार की विचारधारा के खिलाफ मुखर रहा। हां, यह जरूर है कि वर्ष की शुरुआत में ही नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम पर सहमति बनी, जो कमोबेश पूरे साल कायम रहा। एक वक्त तो ऐसा लगा था कि संबंध अब सामान्य हो चले हैं, लेकिन ऐसा दीर्घावधि में हो नहीं सका, क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का दामन छोड़ने को तैयार नहीं है। चीन के साथ उसके रिश्ते गहरे बने रहे, जिसके कारण उनका गठजोड़ भारत के लिए सामरिक समस्या बना रहा।
इन सबसे यही साफ हो रहा है कि इस साल सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को कोई खास सफलता तो नहीं मिली, मगर अफगानिस्तान में छोड़कर उसे कहीं विशेष क्षति भी नहीं पहुंची।


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