सम्पादकीय

राजनय और झुंझलाहट

Subhi
18 March 2021 4:47 AM GMT
राजनय और झुंझलाहट
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विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले दिनों जारी अमेरिकी एनजीओ फ्रीडम हाउस और स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टिट्यूट की रिपोर्टों को सिरे से खारिज कर दिया।

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले दिनों जारी अमेरिकी एनजीओ फ्रीडम हाउस और स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टिट्यूट की रिपोर्टों को सिरे से खारिज कर दिया। यह तो खैर कोई बड़ी बात नहीं है, पर पिछले कुछ समय से विदेशों में हो रही आलोचना को लेकर सरकार के रुख में जो एक किस्म की झुंझलाहट दिख रही है, उसके कारणों पर समय रहते विचार किया जाना चाहिए। फ्रीडम हाउस की सालाना रिपोर्ट में भारत का दर्जा फ्री (स्वतंत्र) से घटाकर पार्टली फ्री (आंशिक रूप से स्वतंत्र) कर दिया गया है। लगभग इसी तर्ज पर वी-डेम इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अब इलेक्टोरल डेमोक्रेसी नहीं रहा, यह इलेक्टोरल ऑटोक्रैसी यानी चुनावी तानाशाही में बदल चुका है। निश्चित रूप से ये बड़े निष्कर्ष हैं जो अधिक तथ्यों, गंभीर अध्ययन और जिम्मेदार बहस की मांग करते हैं। इन सबके अभाव में इन निष्कर्षों की विश्वसनीयता पर यूं भी पूरी दुनिया में सवाल उठेंगे और भारत सरकार की भूमिका इतनी ही हो सकती है कि वह इस वितंडावाद को उचित मंचों पर तथ्यों के जरिये खारिज करे।

इससे पहले भी सरकारें अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय संगठनों की रिपोर्टों को प्रश्नांकित करती रही हैं और इसमें प्रायः उन्हें विपक्ष का समर्थन भी प्राप्त होता रहा है। नरसिंह राव के दौर में जम्मू-कश्मीर को लेकर आई कुछ विदेशी रिपोर्टें देशव्यापी एकजुटता का सबब बन गई थीं। इसलिए मुद्दा भारत सरकार द्वारा ऐसी रिपोर्टों को ठुकराने का नहीं बल्कि कई स्तरों पर दिख रही बेचैनी का है। यह बेचैनी सरकार और उससे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े व्यक्तित्वों की असंयत प्रतिक्रिया में जाहिर हो रही है। अगर हमारे देश के अंदर हो रहे किसान आंदोलन पर विदेशी हस्तियां कोई टिप्पणी करती हैं या किसी और देश की संसद में इसे लेकर बहस होती है, या फिर लोकतांत्रिक अधिकारों में कथित कटौती पर कहीं कोई सवाल उठता है तो इसके पीछे जानकारी की कमी और कुछ मामलों में गलतफहमी भी हो सकती है। सरकार उन संगठनों और संस्थाओं से संवाद में उतर सकती है, उनकी गलतफहमियों को दूर करने का प्रयास कर सकती है या ज्यादा कुछ किए बिना इस बात का इंतजार कर सकती है कि देर-सबेर हकीकत उनकी समझ में आ जाएगी।
इसके विपरीत ऐसे मामलों में आक्रामक प्रतिक्रिया देने या बाहर हर तरफ अपने दुश्मन फैले हुए मान लेने में नुकसान ही नुकसान है। किसी जिम्मेदार व्यक्ति का यह संकेत देना विशेष रूप से चिंताजनक है कि हम अपने थिंक टैंक के जरिए लोकतंत्र के खास अपने मानक लेकर सामने आएंगे और उस कसौटी पर बाकी दुनिया को कसेंगे। लोकतंत्र और मानवाधिकार जैसे जीवन मूल्यों को लेकर इस तरह की बात बाहर से आ रही आलोचनाओं को प्रामाणिक बना देगी और इससे हमारा अलगाव और बढ़ेगा। अच्छा यही होगा कि सरकार देश के भीतर टकराव के कुछ बड़े मामलों में तत्काल सौहार्दपूर्ण बातचीत का रास्ता पकड़े ताकि पहले देश में, फिर विदेश में भारतीय लोकतंत्र को लेकर कटूक्तियों की कोई जगह ही न बचे।


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