सम्पादकीय

दिलीप रे को जेल की सजा

Gulabi
28 Oct 2020 3:40 AM GMT
दिलीप रे को जेल की सजा
x
भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यह अपनी खामियों को स्वयं ही संशोधित करता हुआ चलता है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि यह अपनी खामियों को स्वयं ही संशोधित करता हुआ चलता है। इस कार्य में स्वतन्त्र न्यायपालिका भारतीय राजनीति का शुद्धिकरण करते हुए चलती रही है। हाल ही में भ्रष्टाचार के एक मामले में दिल्ली की विशेष अदालत ने पूर्व केन्द्रीय मन्त्री दिलीप रे को तीन साल की सजा सुनाते हुए जिस तरह 10 लाख रुपए का जुर्माना ठोका उससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजनीति को व्यापार में तब्दील करने की कोशिशें न्यायपालिका की नजरों से बच नहीं सकती हैं। दिलीप रे 1999 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कोयला राज्यमन्त्री थे। उन्होंने मनमाने ढंग से झारखंड में एक कोयला खदान का आवंटन एक निजी कम्पनी सीटीएल को कर दिया था। सीबीआई की विशेष अदालत के माननीय जज ने पाया कि रे के इस कार्य से बहुत बड़ा राष्ट्रीय नुकसान हुआ क्योंकि कोयला खदान ऐसी कम्पनी और व्यक्ति को आवंटित की गई जिसका आगे उत्पादक परियोजना लगाने की कोई मंशा नहीं थी। राष्ट्र की खनिज सम्पदा का इस तरह मनमाने ढंग से सभी नीतियों के विरुद्ध व बिना किसी वैधानिक तर्क के वितरण करके पूर्व मन्त्री महोदय ने अपने अधिकारों का खुला दुरुपयोग किया। थोड़ा पीछे चलें तो यह वह समय था जब विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में निजी कम्पनियों के प्रवेश की भूमिका तैयार की जा रही थी।

वाजपेयी सरकार ने ही इस सम्बन्ध में विद्युत उत्पादन कानून में संशोधन किया था, जिससे निजी कम्पनियां बिजली उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश कर सकें और इसके लिए कोयला खदानों का आवंटन उन्हें किया जा सके, परन्तु श्री रे ने इस कानून के बनते-बनते ही कमाल कर दिया और अपनी मनपसन्द की निजी कम्पनी को एक कोयला खदान झारखंड में आवंटित कर डाली। मूल प्रश्न यह है कि राजनीतिक अधिकारों का इस्तेमाल लोकतन्त्र में निजी लाभ कमाने की गरज से किस प्रकार किया जा सकता है? हालांकि भ्रष्टाचार का यह पहला मामला नहीं है जिसमें किसी मन्त्री पद पर रहे व्यक्ति को सजा हुई है। इससे पहले झारखंड के ही पूर्व मुख्यमन्त्री मधु कौडा समेत बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री श्री लालू प्रसाद यादव को भी सजा हो चुकी है मगर दिलीप रे का मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार करने के लिए किसी उलझी हुई सरकारी प्रक्रिया का सहारा नहीं लिया बल्कि सीधे अपनी कलम से ही इसे अंजाम दिया।

श्री राय के इस काम की उस समय भी कड़ी निन्दा व आलोचना हुई थी और संसद में बैठी विपक्षी पार्टियों ने खासा शोर भी मचाया था। यही वजह रही की तब सीबीआई ने उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया था, किन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के चालू होने पर जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों पर विशेष जिम्मेदारी आ जाती है कि वे राष्ट्रीय आय स्रोतों को निजी हाथों में देते समय पूरी सावधानी और पारदर्शिता के साथ काम करें। इसके साथ ही यह पारदर्शिता केवल कागजों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि सार्वजनिक रूप से दिखनी भी चाहिए।

पाठकों को याद दिलाना आवश्यक है कि वाजपेयी सरकार के दौरान ही जब पेट्रोल पंप घोटाला हुआ था तो उसमें पारदर्शी ​सिद्धांत का जरा भी पालन नहीं हुआ था जिसकी वजह से तत्कालीन पेट्रोलियम मन्त्री को बगले झांकनी पड़ी थी। पेट्रोल पंपों का आवंटन इतने भौंडे और बेतुके तरीके से किया गया था कि धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी पैट्रोल पम्पों के मालिक बन गये थे। इस मामले के सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बाद देश में जो माहौल बना था उससे आम लोगों की लोकतन्त्र में आस्था को गहरा धक्का लगा था। यही वजह थी कि तब स्वयं प्रधानमन्त्री की हैसियत से स्व. अटल जी ने सभी पेट्रोल पंपों के लाइसेंस रद्द करने का फैसला किया था। इसके बाद मनमोहन सरकार में जिस तरह 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले का शोेर मचा उसका सम्बन्ध भी बाजारमूलक अर्थव्यवस्था से था और बहुत गहरे तक था, परन्तु इस मामले में सीबीआई की अदालत को ही कुछ नहीं मिला। इसकी वजह यही थी कि स्पैक्ट्रम लाइसेंसों का आवंटन जिन निजी कम्पनियों को दिया गया था। उन्होंने देश भर में मोबाइल सेवाओं को अनपेक्षित रूप से सस्ता बना दिया जिससे राष्ट्रीय स्रोतों के सस्ते दाम पर आवंटन की उपयोगिता सिद्ध हो गई। तब के सूचना टैक्नोलोजी मन्त्री डी. राजा ने स्पैक्ट्रम को 'सस्ते राशन के चावल' की संज्ञा दी थी। मगर ये चावल बड़े-बड़े पूंजीपतियों को दिये गये थे, इस वजह से खूब विवादों में रहे थे, किन्तु श्री रे ने कोयला खदान का आवंटन करते समय निजी लाभ पर ध्यान रखा और राष्ट्रीय हित में आय स्रोतों के इस्तेमाल से आंखें मूंद लीं।

यह सवाल पैदा होता है कि संविधान की शपथ लेकर मन्त्री पद पर बैठा व्यक्ति किस तरह अपनी नीयत को तुच्छ बना सकता है कि वह जनता के हित की जगह निजी हित को लक्ष्य बना ले। इसकी मुख्य वजह राजनीतिक स्तर में आयी गिरावट के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि जब 1963 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. जवाहर लाल नेहरू ने सीबीआई की स्थापना की थी तो ध्येय स्पष्ट था कि बड़े पदों पर बैठे व्यक्तियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना। इस कानून का डर ही तब राजनीतिज्ञों को भ्रष्टाचार करने से रोकता था और आलम यह था कि अपने ऊपर धांधली के आरोप लगने की आशंका से ही मुख्यमन्त्री पद तक पर बैठे नेता इस्तीफा दे दिया करते थे। ऐसा 1965 में हुआ जब पंजाब के मुख्यमन्त्री स्व. प्रताप सिंह कैरों ने अपना नाम जिला अस्पतालों के लिए खरीदे गये चिकित्सा उपकरणों में हुई वित्तीय धांधली की जांच करने के लिए बने जांच आयोग की रिपोर्ट में आने की आशंका में ही अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था जबकि यह रिपोर्ट अगले दिन संसद में रखी जानी थी, परन्तु दिलीप रे को 20 साल बाद सजा सुना कर अदालत ने यह सिद्ध कर दिया है कि जनता के चुने हुए नुमाइंदें मालिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय सम्पत्ति के केवल संरक्षक (केयर टेकर) होते हैं।

Next Story