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- हमारी संसद की गरिमा
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारतीय लोकतंत्र में सबसे ऊंचा दर्जा अगर संसद को है तो इसका दमदमाता नगीना राज्यसभा है, जो उच्च सदन है। कितने ही विधेयक आते हैं और लोकसभा में लम्बी-चौड़ी बहस के बाद उच्च सदन राज्यसभा में पहुंचते हैं। वहां फिर बहस ही बहस होती है। अगर ऐसा है तो यह परम्परा है। तर्क-वितर्क का चलना लोकतंत्र में सहमति के मामले में बहुत आवश्यक भी है। अगर हम इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो बहस होती रही है, बिल पास होते रहे हैं और आगे भी यह चलता रहेगा। लेकिन सब कुछ मर्यादा के दायरे में होना चाहिए। सब कुछ स्वस्थ वातावरण में होना चाहिए। यही भारतीय संसद की एक बड़ी पहचान है जिस पर देश गर्व करता है। लेकिन पिछली 11 अगस्त को सदन के अन्दर विपक्षी सांसदों के साथ कथित रूप से अभद्र व्यवहार किए जाने का मामला सामने आया है। ऐसा नहीं होना चाहिए। मार्शलों की व्यवस्था कामकाज को बाधित करने वाले सांसदों की तैनाती के रूप में होती है आैर वह होहल्ला करने वाले सांसदों को उठवा कर बाहर भी करते रहे हैं। लेकिन विपक्ष ने इस 11 अगस्त को ज्यादा ही तूल देकर सरकार को निशाने पर ले रखा है। अतः सदन के सभापति वेंकैया नायडू ने इस दिन की घटना की जांच कराने के लिए जिस समिति का गठन करने का प्रस्ताव रखा उसे कांग्रेस के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में समूचे विपक्ष ने यह कह कर ठुकरा दिया है कि समिति का उद्देश्य ही विपक्ष के सांसदों को बदनाम करने व चुप कराने के लिए है। विपक्ष के इस वक्तव्य की आलोचना इस मायने में हो सकती है कि इससे जांच की भावना आहत होती है। विपक्ष का काम नीतियों पर प्रहार करना है आैर हंगामे को वे अपना अधिकार समझ लेते हैं, परन्तु हमारा मानना है कि हंगामा स्वस्थ रूप से किसी चीज के विरोध के रूप में होना चाहिए। हंगामा कभी भी हंगामे के लिए नहीं होना चाहिए। सदन के नियम स्वयं सांसद ही बनाते हैं जिससे सदन की कार्यवाही सुचारू ढंग से चल सके। ये नियम इस बात की परवाह किये बगैर बनाये गये हैं कि भविष्य में कौन सा राजनैतिक दल सत्ता में आयेगा? इन नियमों का पालन करना और स्वयं इन पर अमल करना सदन के पीठासीन अधिकारी का काम होता है। हमने देखा कि संसद के वर्षाकालीन सत्र के दौरान केवल पिछड़े वर्ग के आरक्षण के विधेयक को छोड़ कर शेष सभी 19 के लगभग विधेयक भारी शोर-शराबा होते हुए औऱ नारेबाजी के बीच पारित किये गये ( शोर शराबे या हंगामे के बीच विधेयक पारित न करने का भी नियम है जिससे बाकायदा चर्चा होने के बाद कोई भी विधेयक पारित किया जाये) 11 अगस्त को भी बीमा संशोधन विधेयक सायं छह बजे के बाद सदन का समय इकतरफा सहमति से बढ़ा कर पारित करने का प्रयास जब भारी शोर- शराबे और विरोध के बीच किया जा रहा था तो विपक्षी सांसदों ने इस विधेयक को सदन की प्रवर समिति के पास भेजने की सहमति का मुद्दा उठाया मगर बात नहीं बनी। सहमति नहीं बनती तो शोर-शराबा होता ही है। लेकिन अब सदन के बाहर हंगामा क्यों? विपक्षी सदस्य यह आरोप कैसे लगा सकते हैं िक सरकार नियमों के तहत कुछ भी नहीं करा रही, यह सब आरोप हैं। आरोप लगाने वालों को पहले जमीनी तह तक जाना होगा तब जांच की बात करनी होगी। संपादकीय :एन.डी.ए. में बेटियां... फख्र की बातअर्थव्यवस्था के संकेत अच्छेेवाराणसी अदालत और उच्च न्यायालयबुलंद हुई भारत की आवाजकोरोना आंकड़ों का दफन होता सचभारत, रूस और अफगानिस्तानआज अगर विपक्षी सदस्य बाधा डालने को अपना अधिकार बताते हैं तो नियमों को क्यों नहीं याद रखा जाता। संसदीय नियम दंड के लिए तय हैं। आज कई सदस्य जांच की मांग कर रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि संसद तर्क-वितर्क के बाद सही फैसला करने के लिए होती है मगर इसके लिए सत्ता व विपक्ष दोनों को ही अनुकूल वातावरण बनाना पड़ता है। यह वातावरण तभी बनता है जब सभी सांसद शुद्ध अन्त-करण से सदन के नियमों का पालन करें। वैसे इस व्यवस्था को मजबूत बनाये रखने की प्रणाली भी सदन में ही मौजूद रहती है और सांसदों के आचार-व्यवहार की जांच करने के लिए सदाचार या शिष्टाचार समिति (ईथिक्स कमेटी) होती है। संसद की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए सबसे पहले िनयमों का पालन करना जरूरी है। नियमों का पालन होगा तो संसद की गरिमा भी बनेगी। वरना 11 अगस्त को कुछ िवधेयकों को लेकर अगर सदस्य दुर्व्यवहार की बात करते हैं तो उन्हें खुद भी अपने अन्दर झांकना होगा और वजह का जवाब भी खुद ही देना होगा। हम तो इतना जानते हैं कि जब संसद में मर्यादा कायम रहेगी तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का मंदिर संसद एक अलग पहचान बनाए रखेगा और लोकतंत्र तथा व्यवस्था के प्रति सबका विश्वास भी बना रहेगा। यही समय की मांग है। इस तथ्य को सत्तारूढ़ दल के सदस्य और विपक्षी सदस्यों को बराबरी का दर्जा देकर न िसर्फ स्वीकार करना चाहिए बल्कि इसका सम्मान भी करना चाहिए।