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हमारे देश की आबादी में यदि वर्तमान गति से वृद्धि जारी रही तो आगामी तीन दशकों में यह आंकड़ा दो अरब तक पहुंच सकता है
हमारे देश की आबादी में यदि वर्तमान गति से वृद्धि जारी रही तो आगामी तीन दशकों में यह आंकड़ा दो अरब तक पहुंच सकता है। हम असीमित विकास की ओर आगे अवश्य बढ़ रहे हैं, लेकिन हमारे नागरिकों का एक बड़ा वर्ग अर्थव्यवस्था के 'सबसे निचले पायदान' पर स्थित है। मध्य वर्ग हमेशा की तरह 'प्रदाता' की भूमिका में है, फिर भी उसकी ओर अपेक्षाकृत सबसे कम ध्यान दिया जाता है। यह सही है कि सक्षम लोग विकास और बड़े पैमाने पर सरकार को फायदा पहुंचाते हैं। साथ ही, यह भी सही है कि अमीर और शक्तिशाली व्यक्ति संसाधनों पर एकाधिकार रखते हैं और जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में उनका वर्चस्व कायम रहता है। ऐसे में यह भी स्पष्ट होता है कि भारत की समस्या वृद्धिशील सोच से हल नहीं हो सकती है। इसके लिए नवोन्मेष को बढ़ावा देना होगा।
यहां तक कि अगर हम आठ प्रतिशत की दर से वृद्धि करते हैं तो भी हम कई आíथक और सामाजिक चुनौतियों का सामना नहीं कर पाएंगे। हमें विशेष रूप से इस बात की चिंता करनी चाहिए कि समाज का सबसे गरीब तबका अभी भी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। इसी तरह यह भी महत्वपूर्ण है कि हम अपने लगभग 50 प्रतिशत बुजुर्गो को आराम का जीवन, सामाजिक गरिमा और युवाओं को बेहतर भविष्य कैसे प्रदान करते हैं? गरीबी उन्मूलन, सभी के लिए स्वास्थ्य, योग्य लोगों को रोजगार, शिक्षा और समावेश के लिए काम तेज करना होगा
आर्थिक उदारीकरण का असर
आर्थिक तौर पर पिछले तीन दशकों को कई तरह से परिभाषित किया गया है और पिछली सदी के आखिरी दशक के आरंभिक दौर में शुरू किए गए आर्थिक सुधार वास्तव में परिवर्तनकारी थे। दरअसल यह वृद्धिशील विकास संसाधनों जैसे भूमि, श्रम तथा पूंजी के एकत्रीकरण व संकलन से प्रेरित था और एक सुधारवादी पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर स्थापित किया गया था। हालांकि कोरोना संक्रमण से प्रभावित अर्थव्यवस्था के दौर को छोड़ भी दें तो बीते कुछ वर्षो से विकास दर धीमी हो गई है, जो चिंतनीय है और आर्थिक विकास के इस मॉडल में सामयिक बदलाव को इंगित करता है।
नई तकनीक से अपेक्षित विकास की उम्मीद
हमारे नीति निर्माताओं को सतर्क और चुस्त व दूरदर्शी बनने की आवश्यकता है। उन्हें एक नए प्रतिमान गढ़ने की जरूरत है। अगले दशक के लिए एक अलग सोच और योजना की जरूरत है। ऐसे में नीति निर्माताओं को तकनीकी क्रांति के बारे में समझना और उसे स्वीकार करना चाहिए। हमने अक्सर नौकरशाही को देर से प्रतिक्रिया देते हुए देखा है। लेकिन समय की मांग है कि आगामी कई दशकों को ध्यान में रखते हुए हमारे नीति निर्माताओं को इस दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने की जरूरत है।
आज दुनियाभर में डिजिटल तकनीक एक 'सामान्य उद्देश्य' के रूप में उभर रही है यानी एक ऐसी तकनीक जो लगातार रूपांतरित होती है, तेजी से बढ़ती है और हर क्षेत्र में उत्पादकता लाभ को बढ़ा रही है। अपेक्षित विकास से आवधिक विस्तार और स्थायी उन्नति में तेजी आती है, जो मजबूत और दीर्घकालिक फायदे सृजित करती है। इसे पाने का प्रभावी तरीका है सवरेत्तम साधनों, संसाधनों व ज्ञान को आगे बढ़ाना और अवसरों का सदुपयोग करना। स्मार्टफोन व कंप्यूटर के माध्यम से बैंकों तक सभी की घर बैठे आसान पहुंच और तमाम विधाओं में घर से काम करने के प्रारूप के तौर पर बीते लगभग एक वर्ष से हमने इसका अनुभव भी किया है। तकनीक ने वित्तीय उद्योग में लोगों के लेन-देन के तरीके को बदल कर रख दिया है। आज बैंकों के अधिकांश क्रियाकलापों को डिजिटल तकनीक ने घर बैठे संभव बना दिया है। इससे वित्तीय समावेशन सशक्त बन रहा है।
पिछले कुछ समय के चुनिंदा देशों के उदाहरणों को देखें तो ऐसा महसूस होता है कि भारत औद्योगिक क्रांति से चूक गया। ऐसा दक्षता, पारिस्थितिकी तंत्र और सुधार के बाद विकास को बढ़ाने के लिए आíथक पैमाने की कमी के कारण हुआ। दरअसल हमारी कमजोर और अर्थव्यवस्था की नाजुक प्रकृति, बाहरी लोगों (नौकरशाही व नियंत्रित सोच) का संयोजन हमें नीचे धकेलती है। जबकि दक्षता सशक्तीकरण से आती है।
स्पष्ट है कि व्यापक क्षमता होने के बावजूद हम कुछ खास हासिल नहीं कर सके हैं। इसी तरह 25 करोड़ युवा भारतीयों में से अधिकांश क्षमतावान तथा शिक्षित होने के बावजूद रोजगार के मामले में लाचारी का सामना कर रहे हैं। बेरोजगारी एक महामारी के समान है, विशेष रूप से उत्तर भारत में। जबकि आज का युवा जागरूक है तथा ऊंची उड़ान भरना चाहता है। देश के करीब पांच करोड़ 'उद्यमी' और इस अर्थव्यवस्था के रोजगार संचालक एक ऐसे समाधान की तलाश कर रहे हैं, जो उनके व्यवसाय को बढ़ाए ताकि वे 'मध्यम स्थिति' से आगे बढ़ सकें। इतिहास में कई सबक छिपे हुए हैं। अल्पकालिक अव्यवस्थाओं के बावजूद, क्रांतिकारी तकनीकों के आसपास अर्थव्यवस्था को पुनर्गठित करना अल्पावधि में एक प्रेरक और दीर्घावधि में एक विशाल मल्टीप्लायर का काम करता है।
हमारे नीति निर्माताओं, विशेष रूप से प्रधानमंत्री की इस बात के लिए सराहना करनी चाहिए कि भारत को दुनिया की 'फैक्ट्री' बनाना स्वाभाविक पसंद नहीं है। कुछ अर्थो में हम उन देशों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं जिन्होंने तुलनात्मक लाभ प्राप्त किया है। ऐसे में भारत को अपनी क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है। यह सही है कि डिजिटलीकरण प्रतिस्पर्धी फायदे के पारंपरिक सिद्धांत को खत्म कर देगी। लिहाजा विनिर्माण क्षेत्र में भी तेजी से डिजिटल तकनीक को अपानाया जा रहा है। समझना होगा कि अर्थव्यवस्थाओं को किसी भी निर्णायक प्रतिस्पर्धी लाभ का फायदा उठाने के लिए प्रासंगिक, मजबूत और अद्यतन तकनीक में निरंतर निवेश करने की आवश्यकता होगी। आज डिजिटल दुनिया तुलनात्मक लाभ के नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रही है। जबकि हम तकनीक में निवेश करने के लिए एकत्रीकरण और संसाधनों के संग्रहण के लिए जूझ रहे हैं।
यह सही है कि स्वचालन आधारित विकास में न केवल नौकरियों की संख्या में कमी आती है, बल्कि यह विस्थापित भी हो सकता है, यहां तक कि अकुशल और सघन-श्रम उत्पादों और कार्यो की मांग भी कम कर सकता है। लेकिन इसके अन्य कई लाभकारी पहलू भी हैं, जिनके बारे में हमें समग्रता से विचार करना चाहिए।
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