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बेहद कुशल मैनपावर की जरूरत है। तभी जाकर देश का सेमीकंडक्टर मिशन सफल हो सकेगा।
माइक्रोचिप की लगातार बढ़ती मांग को देखते हुए भारत के लिए इसमें अवसर की अपार संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, क्योंकि देश में हर साल 70 करोड़ एलईडी बल्ब बनते हैं। इनमें एक ड्राइवर चिप लगती है, जिसे चीन से आयात किया जाता है। चूंकि अगले कुछ वर्षों में देश में एलईडी बल्ब की खपत एक अरब का आंकड़ा पार कर लेगी, ऐसे में, यहां चिप की खपत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
तेजी से बदलते डिजिटल दौर में सेमीकंडक्टर या माइक्रोचिप का महत्व भी बढ़ा है। सिलिकॉन की बनी लगभग आधे इंच की इस चिप की उपयोगिता मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट और फिटनेस बैंड से लेकर अस्पतालों में उपयोग में आने वाली टेस्टिंग मशीन तक में देखी जा सकती है। सेमीकंडक्टर भविष्य का न्यू ऑयल है। कोविड के समय से ही इसकी कमी देखी गई है, क्योंकि चीन, अमेरिका, ताइवान इसके सबसे बड़े निर्माता देशों में शुमार हैं। इस चिप में पैलेडियम धातु का उपयोग किया जाता है।
रूस इसका सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश है। रूस-यूक्रेन युद्ध के असर से भी हमारे देश में इसकी कमी देखी गई है। देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारूति-सुजूकी माइक्रोचिप की कमी के कारण ही विगत अप्रैल में डेढ़ लाख कारें कम बना पाईं। इसका कारण यह है कि हमारे यहां अब भी माइक्रोचिप का बाहर से आयात किया जाता है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने सेमीकंडक्टर निवेशकों को भरोसा दिया है कि वर्ष 2026 तक देश में 80 अरब डॉलर के सेमीकंडक्टर की खपत होने लगेगी और 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर 110 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।
भारत के इंजीनियर बड़ी कंपनियों के लिए चिप डिजाइन करते हैं, साथ ही, साथ उसकी पैकेजिंग तथा टेस्टिंग भी करते हैं। लेकिन ये चिप अमेरिका, चीन, ताइवान तथा यूरोपीय देशों में बनाए जाते हैं। अपने देश में चिप के फेब्रिकेशन प्लांट का न होना एक विडंबना है। हमारे यहां कच्चे तेल और सोने के बाद सबसे ज्यादा आयात इलेक्ट्रॉनिक्स का होता है और भारत अभी सिर्फ सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन यानी कि चिप डिजाइन का मात्र एक हिस्सा है।
अतः सेमीकंडक्टर के मामले में भारत को पूरी तरह आत्मनिर्भर बनने की दिशा में पहल करनी होगी और इसके लिए एक पूरा पारिस्थितिकी तंत्र तैयार करना होगा, क्योंकि अपने यहां हुनर, प्रतिभा तथा योग्यता की कोई कमी नहीं है। भारत में ग्लोबल चिप पावर हाउस बनने की क्षमता है। दुनिया में इसकी बढ़ती हुई अहमियत को ध्यान में रखते हुए भारत ने 10 अरब डॉलर का इंसेंटिव ग्लोबल चिप कंपनियों को देने की बात कही है। आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव का मानना है कि अगले साल मई-जून तक देश में पहली सेमीकंडक्टर फैब यूनिट तैयार हो जाएगी।
हालांकि यूनिट लगाने तथा मैन्यूफैक्चरिंग शरू करने में चार-पांच साल लग जाते हैं। कई अन्य कंपनियों ने कर्नाटक के मैसूर में तीन अरब डॉलर का निवेश करने की बात कही है। केंद्र सरकार ने भी इस योजना में अहम भूमिका निभाते हुए पहले की अपेक्षा 50 फीसदी तक का लाभ कंपनियों को देने की बात कही है। जाहिर है, इससे निवेशकों को बहुत राहत मिलेगी। भारत में दो तरह से सेमीकंडक्टर प्लांट लगेंगे, सिलिकॉन फैब यूनिट और कंपाउंड सेमीकंडक्टर प्लांट।
इनमें से सिलिकॉन फैब प्लांट बनने में तीन से चार साल लग जाएंगे, लेकिन कंपाउंड सेमीकंडक्टर प्लांट अगले साल तक तैयार हो जाएंगे। माइक्रोचिप की लगातार बढ़ती मांग को देखते हुए भारत के लिए इसमें अवसर की अपार संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, क्योंकि देश में हर साल 70 करोड़ एलईडी बल्ब बनते हैं। इनमें एक ड्राइवर चिप लगती है, जिसे चीन से आयात किया जाता है। चूंकि अगले कुछ वर्षों में देश में एलईडी बल्ब की खपत एक अरब का आंकड़ा पार कर लेगी, ऐसे में, यहां चिप की खपत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में टैबलेट की अहमियत बढ़ती जा रही है, जो कि चीन, ताइवान आदि देशों से बनकर आते हैं। यदि हम भारत में ही इनका निर्माण करने लगें, तो हमारी विदेशी मुद्रा भी काफी हद तक बच सकती है। इसलिए भारत को न सिर्फ चिप डिजाइन, बल्कि मैन्यूफैक्चरिंग, असेंब्लिंग, टेस्टिंग, पैकेजिंग, मार्केटिंग तक के सभी स्तरों पर एक साथ काम करने के बारे में सोचना होगा। सेमीकंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग के लिए 10 अरब डॉलर के भारी निवेश, प्राकृतिक संसाधन और बेहद कुशल मैनपावर की जरूरत है। तभी जाकर देश का सेमीकंडक्टर मिशन सफल हो सकेगा।
सोर्स: अमर उजाला
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