सम्पादकीय

सिस्टम का काम गड्ढे खोदना

Rani Sahu
1 Oct 2022 8:12 AM GMT
सिस्टम का काम गड्ढे खोदना
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by Lagatar News
Shyam Kishore Choubey
ज्यादा दिन नहीं गुजरे, जब चार सितंबर को देश भर में हायतौबा मच गई थी. उस दिन टाटा सन्स के पूर्व अध्यक्ष 54 वर्षीय साइरस पालोनजी मिस्त्री का आकस्मिक निधन अहमदाबाद-मुंबई राजमार्ग पर सड़क दुर्घटना में हो गया था. उनको ले जा रही मर्सिडीज बेंज कार पालघर जिले में एक पुल से टकरायकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी. इस एक दुर्घटना का प्रभाव यह रहा कि देशभर में कार की पिछली सीट पर बैठे व्यक्तियों को भी सीट बेल्ट पहनने की अनिवार्यता बहाल कर दी गई. दुर्घटनाग्रस्त मर्सिडीज बेंज की पिछली सीट पर बैठे साइरस मिस्त्री ने सीट बेल्ट नहीं लगायी थी.
इस बहुचर्चित दुर्घटना के पखवाड़े भर बाद 20 सितंबर की रात राजधानी रांची के कुसई कॉलोनी इलाके में खुली नाली में डूब जाने से सचिवालयकर्मी 56 वर्षीय राधे साव की मौत हुई, तो इसपर किसी ने गंभीरता से संज्ञान तक न लिया. यह नाली रांची नगर निगम ने बनवायी थी. नाली के साइड से गुजरनेवालों की सुरक्षा को नजरअंदाज करते हुए इस पर स्लैब नहीं डाला गया था. इसी कारण चतुर्थ वर्गीय कर्मी राधे रात के अंधेरे में उसमें गिर गये थे. दुर्घटना स्थल से चंद कदमों की दूरी पर पीएचइडी कॉलोनी है, जिसके एक क्वार्टर में राधे साव सपरिवार रहते थे. देश में हर किसी के वोट का मान भले ही बराबर है, लेकिन राधे की मौत पर आंसू कौन बहाता है?
अकेले राधे ही नहीं, अनेक लोग रांची की खुली नालियों के शिकार बन असमय काल कवलित हो चुके हैं. 7 सितंबर 2020 को एक अन्य नाली में कारपेंटर उमेश राणा बाइक समेत बह गये थे. उनकी लाश नहीं खोजी जा पाई. हार-पारकर उनके परिजनों ने 21 सितंबर 2020 को उनका पुतला संस्कार कर दिया. किस अंधेरी गुफा में जाती हैं, अपनी नालियां? उसके एक साल पहले हिंदपीढ़ी की एक नाली में डूबने से एक बच्चे की जान चली गई थी. ये तीन घटनाएं उदाहरण मात्र हैं. अनेक लोग इस गति को प्राप्त हो चुके हैं. खुली नालियों के कारण न जाने कितने लोग हाथ-पांव तुड़वा चुके हैं.
पालघर महाराष्ट्र का एक जिला है, जिसके सीमा क्षेत्र में साइरस मिस्त्री की कार दुर्घटनाग्रस्त हुई थी. राधे साव या उनके जैसे अनेक लोग, जो नालियों में डूबने से असमय जान गंवा बैठे या गंभीर रूप से चोटिल हुए, ऐसे सभी स्थान झारखंड के राजधानी क्षेत्र में हैं. लेकिन ऐसी गंभीर दुर्घटनाओं को शासन-प्रशासन अथवा भद्र लोक ने चर्चा के काबिल तक नहीं समझा शायद. शासन-प्रशासन से जवाब तलब दूर की बात है. साइरस मिस्त्री और राधे साव में यही फर्क है, वोट भले ही दोनों का बराबर हो. झारखंड और महाराष्ट्र में यही अंतर है. झारखंड के पिछड़ेपन का यह भी एक राज है.
रांची नगर निगम में 53 वार्ड हैं. इस परिधि में 1,401 किलोमीटर नालियां बनवायी जा चुकी हैं. इनमें 557 किलोमीटर नालियों पर ही स्लैब डाला जा सका है.यानी 844 किलोमीटर नालियां खुली हुई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपने पहले कार्यकाल में स्वच्छता अभियान चलाया था, तब इस निगम के कर्ता-धर्ता भी गलियों में झाड़ूदारी करने उतरे थे. वह भागीदारी शायद फोटो सेशन के लिए थी. वे ही कर्ता-धर्ता आधी से अधिक लंबी नालियां खुली छोड़कर स्वच्छता अभियान चला रहे हैं या मच्छरों और बदबू को खुली छूट दे रहे हैं, यह समझा जा सकता है. सूचना यह भी है कि इन खुली नालियों के स्लैब बनवाने के लिए निगम ने सूबाई सरकार से दो सौ करोड़ रुपये की मांग की थी, जो मिली नहीं.
झारखंड राज्य की स्थापना के बाद स्थानीय निकायों का गठन किया गया था. इसमें काफी समय लगा था. झारखंड गठन के वर्षों पहले से यह संवैधानिक कार्य नहीं किया जा सका था. स्थानीय निकायों के गठन से लगा था कि अब अच्छे दिन आ जाएंगे. लेकिन हो यह रहा है, जानलेवा नालियां बनवा दी जा रही हैं. यह स्थिति केवल रांची नगर निगम क्षेत्र की ही नहीं, अपितु राज्य भर की है.
सवाल केवल नालियों का ही नहीं, राजमार्गों का भी है.खुली नाली में डूबने से राधे साव की मौत की सुबह 21 सितंबर को एक विधायक को विरोध स्वरूप एक राजमार्ग पर जमे कीचड़युक्त पानी में नहाते देखा गया. उसे भले ही 'राजनीति' की संज्ञा दी जाय, लेकिन सड़क की बदहाली और उस पर किसी के बैठकर नहाने भर का पानी जमा होना तो सच्चाई है. मजे की बात यह कि अपने वार्ड काउंसलर से लेकर विधायक, सांसद तक गली, नाली बनवाने पर खूब ध्यान देते हैं. काउंसलरों की ही मेहरबानी है कि नालियों का संजाल खड़ा हो गया, लेकिन काम आंशिक ही रहा, गुणवत्ता का सवाल बाद में. बिना स्लैब की नाली आंशिक कार्य की ही श्रेणी में आती है. अलॉटमेंट के अनुरूप स्लैबयुक्त नालियां बनवाते तो कितना अच्छा रहता! लेकिन सवाल वोट का है. हर जगह नाली तो हो गई, भले ही मच्छरों का साम्राज्य व्यापक हो जाय और भले ही उसमें गिरने से कोई मर जाय या अपंग हो जाये.
तीन साल पहले तक झारखंड के गांवों में डोभा की धूम थी. आंशिक रूप से सिंचित इस राज्य में कृषि क्रांति के नाम गांव-गांव में अनेक डोभा बनवाये गये. इससे कृषि उपज कितनी बढ़ी, इसका आकलन भले ही न होता हो, लेकिन डोभाओं में डूबकर कितने बच्चे और वयस्क मर गये, यह भूलने की बात नहीं. सरकार ने ऐसा कोई सिस्टम बहाल नहीं किया, जो डोभा का हिसाब-किताब और उससे आयी 'खुशहाली' का रिकॉर्ड रखे. शहरों में नाली; गांवों में डोभा, है न गड्ढे खोदने की होड़!
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