सम्पादकीय

लोकतंत्र की कठिन होती राह

Subhi
15 Sep 2022 4:43 AM GMT
लोकतंत्र की कठिन होती राह
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लोकतंत्र एक आदर्श व्यवस्था अवश्य है, पर जब तक जनता लोकतंत्र के सुचारु संचालन और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त परिपक्वता अर्जित नहीं कर लेती, तब तक किसी भी देश का लोकतंत्र स्थिर और सशक्त नहीं बन सकता। जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व जिन लोकप्रिय नेताओं और राजनीतिक दलों पर है

राजू पांडेय: लोकतंत्र एक आदर्श व्यवस्था अवश्य है, पर जब तक जनता लोकतंत्र के सुचारु संचालन और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त परिपक्वता अर्जित नहीं कर लेती, तब तक किसी भी देश का लोकतंत्र स्थिर और सशक्त नहीं बन सकता। जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व जिन लोकप्रिय नेताओं और राजनीतिक दलों पर है, दुर्भाग्य से उन्हें सत्ता पर वर्चस्व बनाए रखना अधिक महत्त्वपूर्ण लगता है।

लोकतंत्र एक प्रक्रिया और लक्ष्य दोनों है। इसे सफल बनाने के लिए आम आदमी, नागरिक समाज, सरकारों तथा अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, सभी की सहभागिता आवश्यक है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और सिविल तथा राजनीतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा में राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की विस्तृत व्याख्या की गई है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का अनुच्छेद 21(3) मानवाधिकारों की रक्षा और लोकतंत्र की मजबूती के मध्य अटूट रिश्ते को रेखांकित करता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा समय-समय पर जारी प्रस्तावों ने मूल निवासियों, अल्पसंख्यकों और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा को उच्च प्राथमिकता दी है।

शीतयुद्ध की समाप्ति को विशेषज्ञों ने प्रजातंत्र की निर्णायक विजय और पूंजीवाद की अधिनायकवादी समाजवाद पर जीत के रूप में व्याख्यायित किया था। 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में लोकतंत्रीकरण की तीसरी लहर उठनी शुरू हुई। नए उभरते लोकतंत्र पश्चिम के उदार लोकतंत्र के माडल का अनुकरण करने लगे। 1989 में सोवियत संघ बिखर गया, तो पश्चिम के कुछ अति उत्साही विश्लेषक यह कल्पना करने लगे कि पश्चिम का उदार लोकतांत्रिक माडल सरकार का सर्वश्रेष्ठ और परिपूर्ण माडल है और इसे विश्व द्वारा अपनाया जाना तय है।

मगर 2008 के 'वाल स्ट्रीट क्रैश' और इसके बाद आई वैश्विक मंदी ने पश्चिम के आर्थिक-राजनीतिक माडल की सीमाओं को उजागर कर दिया। फिर अधिनायकवादी व्यवस्था के प्रति आकर्षण बढ़ा। खासकर चीन इन चर्चाओं के केंद्र में था। धीरे-धीरे विश्व फिर अलग-अलग खेमों में बंटने लगा। धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों को महत्त्व मिला और एक ऐसा राष्ट्रवादी माडल लोकप्रिय होने लगा, जिसकी मूल प्रवृत्ति लोकतंत्र विरोधी थी।

आज उदार लोकतंत्र स्वयं खतरे में नजर आ रहा है। एशिया के लोकतांत्रिक परिदृश्य को बहुत से विशेषज्ञ अधिनायकवादी चीन और लोकतांत्रिक अमेरिका के बीच एशिया में अपना दबदबा कायम करने के संघर्ष के रूप में देखते हैं। हालांकि अपने सामरिक-आर्थिक हित साधने के लिए कठपुतली सरकारों के गठन की अमेरिका की प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि उसका उदार लोकतांत्रिक माडल केवल अपने देश तक सीमित है।

चीन लोकतांत्रिक ताइवान को लेकर हमेशा आक्रामक बना रहता है। म्यांमा में सेना के विद्रोह के बाद आधा-अधूरा प्रजातंत्र भी समाप्त हो गया है। थाईलैंड में राजतंत्र के साथ सैन्य नियंत्रण लोकतंत्र की वापसी की उम्मीदों को असंभव बना रहा है। हाल ही में 30 जून, 2022 को फिलीपींस की सत्ता छोड़ने वाले रोड्रिगो दुतेर्ते की अनुदार नीतियों ने फिलीपींस के प्रजातंत्र को जो क्षति पहुंचाई है उसकी भरपाई की उम्मीद उनके उत्तराधिकारी फिलीपींस के तानाशाह रह चुके फर्डिनांड मार्कोस के बेटे फर्डिनांड मार्कोस जूनियर से करना बेमानी है।

विएतनाम में नागरिक असहमति का कठोर दमन जारी रहा है। मलेशिया में वास्तविक लोकतंत्र की ओर संक्रमण अवरोध का शिकार है। सिंगापुर की गिनती भी अनुदार लोकतंत्रों में होती है। एशिया के सबसे पुराने लोकतंत्र जापान में भी शिंजो आबे के शासन के आठ वर्ष लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं रहे हैं। दक्षिण कोरिया की वाम रुझान वाली सरकार न्यायिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के हनन के आरोपों से घिरी हुई है। स्वयं भारतीय प्रजातंत्र में गिरावट का संकेत अनेक स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं देती रही हैं।

पिछले कुछ वर्षों में लोकतंत्र की मजबूती और टिकाऊपन के आकलन की पद्धतियों में बदलाव आया है। अब चुनाव प्रक्रिया और सत्ता संचालन की पद्धतियों के विश्लेषण के आधार पर किसी लोकतंत्र को आंकने के अलावा उस लोकतंत्र में जन सहभागिता के स्तर तथा गहन और सोद्देश्य सामूहिक चर्चा तथा विवेचना के बाद सुविचारित निर्णय लेने की प्रवृ-ित्त पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाने लगा है।

यूरोपियन यूनियन जबसे अस्तित्व में आई है तब से यह एक ऐसी बहुस्तरीय शासन व्यवस्था तैयार करने की कोशिश करती रही है, जो केंद्रीय सत्ता और स्थानीय प्रशासन के संबंधों को नया स्वरूप देने में सक्षम हो। यह शासन व्यवस्था बाजारीकरण को बढ़ावा देती है और इसमें जन सुविधाओं को आम जनों तक पहुंचाने के लिए 'नान स्टेट एक्टर्स' की सहायता ली जाती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन में राजनीतिक मूल्यों के बजाय आर्थिक सिद्धांतों को अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा है और लगभग प्रत्येक निर्णय का आधार आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण का निर्माण और मौद्रिक स्थिरता जैसे आर्थिक कारक बन रहे हैं।

पिछले कुछ वर्षों में उदार लोकतंत्र की अवधारणा पर विश्वास करने वाले यूरोपीय देशों में लोकतंत्र का ह्रास देखने में आया है। आश्चर्य है कि लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर करने का प्रयास निर्वाचित सरकारों द्वारा ही किया जा रहा है। ये सरकारें लोकतंत्र संचालन के औपचारिक-अनौपचारिक पारंपरिक नियमों को सुविचारित रूप से महत्त्वहीन बना रही हैं और हम राजनीतिक अधिकारों में कटौती तथा चुनावों में निष्पक्षता की कमी जैसी स्थितियां बनते देख रहे हैं।

'वेरायटी आफ डेमोक्रेसी' संस्थान की 'वर्ल्ड डेमोक्रेसी' रिपोर्ट 2022' के अनुसार सन 2021 में वैश्विक स्तर पर एक आम नागरिक को उपलब्ध लोकतांत्रिक प्रणाली की गुणवत्ता का स्तर वर्ष 1989 के स्तर से भी नीचे चला गया है। शीत युद्ध के बाद के कालखंड में अर्जित लोकतांत्रिक लाभ तेजी से घट रहे हैं। सन 2012 में उदार लोकतंत्रों की संख्या बयालीस थी। अब केवल चौंतीस देश शेष हैं तथा विश्व की केवल तेरह फीसद आबादी उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था का आनंद ले पा रही है।

तानाशाही की जकड़न मजबूत हुई है और वर्ष 2020 के पच्चीस देशों की तुलना में अब तीस देश इसकी गिरफ्त में हैं। यानी विश्व में नब्बे देश एकतंत्र या निरंकुश शासन-व्यवस्था द्वारा संचालित हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है 'इलेक्टोरल आटोक्रेसी' यानी चयनित एकतंत्र की बढ़ती प्रवृत्ति, जिसका विस्तार अब साठ देशों में हो चुका है। विश्व की चौवालीस प्रतिशत आबादी यानी 340 करोड़ लोग इन देशों में बसते हैं।

इन देशों में विषाक्त ध्रुवीकरण देखने में आ रहा है। चर्चा और विमर्श का अभाव, असहमत स्वरों और तर्क-वितर्क के प्रति असहिष्णुता इस ध्रुवीकरण की विशेषताएं हैं। ध्रुवीकरण ने इन देशों में ऐसे नेताओं को विजयी बनाया है, जो बहुलता विरोधी हैं। समाज और राजनीति के ध्रुवीकरण के लिए गलत और भ्रामक सूचनाओं का सुनियोजित प्रसार और घृणा की भाषा का खुलकर प्रयोग इनकी कुछ आम रणनीतियां हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के हनन और नागरिक स्वतंत्रता के दमन की प्रवृत्ति भी इन देशों में बढ़ी है।

'इलेक्टोरल आटोक्रेसी' 1980 के दशक से लोकप्रिय हुई है और इसे तानाशाही का सर्वाधिक सामान्य रूप माना जाता है। बहरहाल, सबसे विचारणीय प्रश्न है कि चुनाव द्वारा स्थापित इस एकतंत्र या निरंकुश शासन-व्यवस्था में नेता या राजनीतिक दल जनता की राय को लोकतांत्रिक लगने वाली विधियां अपनाते हुए अपने अलोकतांत्रिक एजेंडे के प्रति कैसे पक्ष में कर लेते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जनता की इच्छा भी इसमें सम्मिलित होती है? 'इलेक्टोरल आटोक्रेसी' के उभार में मीडिया की भूमिका निर्णायक रही है।

राजनीतिक दलों द्वारा मीडिया का भ्रम फैलाने के लिए उपयोग करने और मीडिया पर कुछ लोगों के नियंत्रण की आलोचना हम अवश्य करते हैं, पर हम जनता की भ्रम की दुनिया में रहने की इच्छा पर विचार नहीं करते। लोकतंत्र एक आदर्श व्यवस्था अवश्य है, पर जब तक जनता लोकतंत्र के सुचारु संचालन और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त परिपक्वता अर्जित नहीं कर लेती, तब तक किसी भी देश का लोकतंत्र स्थिर और सशक्त नहीं बन सकता। जनता को लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा देने का उत्तरदायित्व जिन लोकप्रिय नेताओं और राजनीतिक दलों पर है, दुर्भाग्य से उन्हें सत्ता पर वर्चस्व बनाए रखना अधिक महत्त्वपूर्ण लगता है।


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