सम्पादकीय

आगे है मुश्किल डगर

Gulabi
28 Feb 2022 7:38 AM GMT
आगे है मुश्किल डगर
x
यह निर्विवाद है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में भारत की विदेश नीति अमेरिका के अधिक करीब होती गई है
By NI Editorial.
दरअसल, यह अमेरिका के लिए चिंता का विषय है। अगर क्वैड का एक सदस्य एक महत्तवपूर्ण सामरिक मसले पर उसके साथ नहीं है, तो क्वैड की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैँ।
यह निर्विवाद है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में भारत की विदेश नीति अमेरिका के अधिक करीब होती गई है। यहां तक कि भारत क्वाड्रैंगुलर सिक्युटिरी डायलॉग (क्वैड) का भी सदस्य बन गया है, जिसके बारे में आम समझ है कि यह चीन को नियंत्रित करने के अमेरिकी प्रयास का हिस्सा है। इसके बावजूद भारत सरकार का आधिकारी रुख यही है कि भारत कूटनीतिक स्वायत्तता की राह पर चल रहा है। बेशक रूस के मामले में भारत सरकार ने इस स्वायत्तता को जताया भी है। मसलन, उसने अमेरिकी प्रतिबंधों की आशंका को दरकिनार करते हुए रूस से आधुनिक हथियार प्रणालियों को खरीदना जारी रखा है। अमेरिका ने भी संभवतः भारत के रूस से पुराने संबंधों को समझते हुए इस पहलू से आंख हटाए रखी है। लेकिन यूक्रेन पर रूस के हमले बाद ये सूरत बदल सकती है। यूक्रेन के मामले में पहले भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जो रुख लिया, उससे अमेरिका को मायूसी हुई, जिसे अमेरिकी अधिकारियों ने जताने में कोई कोताही नहीं की।
अमेरिकी शासक वर्ग की सोच को व्यक्त करने वाली पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में छपे एक लेख में तो यहां तक कहा गया कि अगर भारत ऐसे ही रुख लेता रहा, तो एक विश्वसनीय सहभागी के रूप में उसकी छवि टूट जाएगी। बहरहाल, यूक्रेन पर हमले के बाद स्थिति निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई। हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर बात की। इस दौरान मोदी ने पुरानी समझ को दोहराया कि नाटो और रूस के बीच मतभेद ईमानदार और नेकनीयत बातचीत से ही सुलझाए जा सकते हैं। मोदी ने पुतिन से फौरन हिंसा रोकने का आग्रह किया। सभी पक्षों से बातचीत और कूटनीति के रास्ते पर लौटने के लिए ठोस प्रयास करने की अपील की। लेकिन भारत की ये पहल अमेरिका को पर्याप्त महसूस नहीं हुई। वॉशिंगटन में खुद राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि इस मसले पर अमेरिका भारत से बातचीत कर रहा है। उनकी टिप्पणी में अमेरिका को हुई निराशा साफ झलकी है। दरअसल, यह उसके लिए चिंता का विषय है। अगर क्वैड का एक सदस्य एक महत्तवपूर्ण सामरिक मसले पर उसके साथ नहीं है, तो क्वैड की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े हो जाते हैँ। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत को जल्द ही आर या पार की नीति तय करनी होगी। वरना, वह दोनों तरफ से जाने की आशंका से घिर सकता है।
Next Story