सम्पादकीय

मुश्किल : वादों में ही डूब जाते हैं तालाब, सरकार हो या समाज, क्रियान्वयन की कमी से जूझते लोग

Neha Dani
3 May 2022 2:17 AM GMT
मुश्किल : वादों में ही डूब जाते हैं तालाब, सरकार हो या समाज, क्रियान्वयन की कमी से जूझते लोग
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तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, न देश का कंठ सूखा रहेगा, न ही जमीन की नमी मारी जाएगी।

सरकार हो या समाज, सभी मानते हैं कि तालाब के बगैर जल संकट से पार पाना मुश्किल है। योजनाएं तो बनती हैं, पर क्रियान्वयन के स्तर पर पानी की दौड़ भूजल की ओर ही दिखती है। वर्ष 2016 के केंद्रीय बजट में पांच लाख तालाब खोदने की बात की गई थी। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के पहले कार्यकाल के पहले सौ दिनों के कार्य संकल्प में तालाब विकास प्राधिकरण का संकल्प हो, राजस्थान में कई सालों पुराना झील विकास प्राधिकरण हो या फिर मध्य प्रदेश में 'सरोवर हमारी धरोहर' या 'जल अभिषेक' जैसे नारों के साथ तालाब-झील सहेजने की योजनाएं-इन्हें देखकर लगता है कि अब ताल-तलैयों के दिन बहुरेंगे।

पर जब गर्मी शुरू होते ही देश में पानी की मारा-मारी, खेतों के लिए नाकाफी पानी और पाताल में जाते भूजल के आंकड़े उछलने लगते हैं, तब समझ में आता है कि तालाबों को सहजने की प्रबल इच्छाशक्ति में या तो सरकार का पारंपरिक ज्ञान का सहारा न लेना आड़े आ रहा है या तालाबों की बेशकीमती जमीन को धन कमाने का जरिया समझने वाले ज्यादा ताकतवर हैं। अभी फिर घोषणा हुई कि आजादी के 75 साल के उपलक्ष्य में हर जिले में 75 तालाब खोदे जाएंगे।

क्या हमें फिलहाल नए तालाबों की जरूरत है? या क्या हमारी नई अभियांत्रिकी तालाब खोदने के पारंपरिक जोड़-घटाव को समझती है? बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में चार दशक पहले एक हजार तालाब थे। आज भी वहां 600 तालाब ऐसे हैं कि यदि उनमें नाली का पानी मिलने से रोक दिया जाए और कब्जे हटा दें, तो पूरा टीकमगढ़ पानी से तर होगा तथा मछली, कमल गट्टा और सिंघाड़ा से आम लोगों के घर में लक्ष्मी प्रवेश कर जाएंगी।
करीबी जिले छतरपुर में किशोर सागर तालाब से अवैध कब्जे हटाकर उसे संपूर्ण रूप देने के लिए एनजीटी से लेकर उच्च न्यायालय तक कई बार आदेश दे चुका है, पर पिछले एक दशक से प्रशासन तालाब की माप ही नहीं कर पा रहा! उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैकड़ोंनिजी तालाबों के कारण पड़ा था। कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, पर जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी, उन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया।

फिर तालाबों से बदबू आई, तो उन्हें ढककर नई कॉलोनियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया। कालाहांडी हो या मणिपुर की लोकटक झील, भोपाल के तालाब हों या तमिलनाडु में पुलीकट-हर कोने में ऐसे तालाब-सरोवर पहले से हैं, जिनकी देखभाल की दरकार है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें हों या 1944 के बंगाल दुर्भिक्ष के बाद गठित आयोग का दस्तावेज, सभी में कहा गया है कि भारत में सिंचाई के लिए तालाब ही मजबूत माध्यम हैं। नए तालाब जरूर बनें, पर पुराने तालाबों को जिंदा करने से क्यों बचा जा रहा है?

आजादी के समय देश में करीब 24 लाख तालाब थे। पर 2000-01 में तालाब, पोखरों की गणना से पता चला कि हम करीब 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इनमें से करीब चार लाख, 70 हजार का इस्तेमाल हो रहा है और करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यदि सरकार तालाबों के संरक्षण के प्रति गंभीर है, तो गत पांच दशकों के दौरान तालाब या उसके जल ग्रहण क्षेत्र में हुए अतिक्रमण हटाने, तालाबों के जल आगमन क्षेत्र में बाधा खड़ी करने पर कड़ी कार्रवाई करने, नए तालाबों के निर्माण के लिए आदि-ज्ञान हेतु समाज से स्थानीय योजनाएं तैयार करवाना जरूरी है।

यह तभी संभव है, जब न्यायिक अधिकार संपन्न तालाब विकास प्राधिकरण का गठन ईमानदारी से हो। हमने नए तालाब तो नहीं ही खोदे, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने उन इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा कर खूब मुनाफा कमाया, जिसमें राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी उनके साझेदार बने। यदि नदी-जोड़ जैसी किसी योजना के समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार पूरे देश के पारंपरिक तालाबों की गाद हटाने, उन्हें अतिक्रमण मुक्त बनाने और उनके पानी की आवाजाही के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च की जाए, तो भले ही कितनी भी कम बारिश हो, न देश का कंठ सूखा रहेगा, न ही जमीन की नमी मारी जाएगी।

सोर्स: अमर उजाला

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