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- विरोध और आतंकवाद का...

हाल के कुछ अहम फैसलों पर नजर डालें तो ऐसा लगता है जैसे अदालतें लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा में लगी हुई हैं। राजद्रोह से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद मंगलवार को जामिया स्टूडेंट आसिफ इकबाल तनहा, पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता नताशा नरवाल और देवांगना कालीता को जमानत देने का दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला भी इस लिहाज से गौर करने लायक है। हालांकि मूलत: यह फैसला जमानत पर है, लेकिन अदालत ने इसमें कई ऐसी बातें कही हैं, जो व्यापक प्रभाव वाली हैं। इन तीनों के खिलाफ पुलिस ने आतंकवादी गतिविधियों के आरोप लगाए थे, जिनका कोई ठोस सबूत वह अदालत के सामने पेश नहीं कर पाई। अदालत को कहना पड़ा कि ऐसा लगता है जैसे असंतोष को दबाने की चिंता में सरकार की आंखों के सामने वह रेखा धुंधली पड़ गई, जो विरोध करने के संवैधानिक अधिकार को आतंकी गतिविधियों से अलग करती है। ध्यान रखना होगा कि यह मामला तब का है, जब दिल्ली के शाहीन बाग समेत देश के विभिन्न हिस्सों में सीएए-एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा था। कुछ ही समय बाद दिल्ली के उत्तर पूर्वी हिस्से में सांप्रदायिक दंगे भड़के। पुलिस ने इन लोगों को दंगे भड़काने की साजिशों में शामिल बताया। केस अभी चल ही रहा है, मगर ताजा फैसले से जो पहलू सबसे महत्वपूर्ण रूप में उभरता है वह है यूएपीए जैसे कड़े कानूनों के इस्तेमाल का।
