सम्पादकीय

विरोध और आतंकवाद का फर्क

Triveni
17 Jun 2021 4:49 AM GMT
विरोध और आतंकवाद का फर्क
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हाल के कुछ अहम फैसलों पर नजर डालें तो ऐसा लगता है जैसे अदालतें लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा में लगी हुई हैं।

हाल के कुछ अहम फैसलों पर नजर डालें तो ऐसा लगता है जैसे अदालतें लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा में लगी हुई हैं। राजद्रोह से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद मंगलवार को जामिया स्टूडेंट आसिफ इकबाल तनहा, पिंजरा तोड़ कार्यकर्ता नताशा नरवाल और देवांगना कालीता को जमानत देने का दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला भी इस लिहाज से गौर करने लायक है। हालांकि मूलत: यह फैसला जमानत पर है, लेकिन अदालत ने इसमें कई ऐसी बातें कही हैं, जो व्यापक प्रभाव वाली हैं। इन तीनों के खिलाफ पुलिस ने आतंकवादी गतिविधियों के आरोप लगाए थे, जिनका कोई ठोस सबूत वह अदालत के सामने पेश नहीं कर पाई। अदालत को कहना पड़ा कि ऐसा लगता है जैसे असंतोष को दबाने की चिंता में सरकार की आंखों के सामने वह रेखा धुंधली पड़ गई, जो विरोध करने के संवैधानिक अधिकार को आतंकी गतिविधियों से अलग करती है। ध्यान रखना होगा कि यह मामला तब का है, जब दिल्ली के शाहीन बाग समेत देश के विभिन्न हिस्सों में सीएए-एनआरसी के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा था। कुछ ही समय बाद दिल्ली के उत्तर पूर्वी हिस्से में सांप्रदायिक दंगे भड़के। पुलिस ने इन लोगों को दंगे भड़काने की साजिशों में शामिल बताया। केस अभी चल ही रहा है, मगर ताजा फैसले से जो पहलू सबसे महत्वपूर्ण रूप में उभरता है वह है यूएपीए जैसे कड़े कानूनों के इस्तेमाल का।

चूंकि इस कानून के प्रावधान बहुत ज्यादा सख्त हैं और इसके तहत आरोपी को जमानत मिलनी मुश्किल हो जाती है, इसलिए भी यह ज्यादा जरूरी हो जाता है कि इसके इस्तेमाल में संजीदगी बरती जाए। अदालत ने ठीक ही कहा कि अगर थोड़ी देर को यह मान भी लिया जाए कि इन लोगों ने सरकार के खिलाफ विरोध को व्यापक रूप देने की कोशिश की तो इससे ये आतंकवादी नहीं हो जाते। लोकतंत्र में सरकार का विरोध करना सामान्य बात है और अक्सर ये विरोध कानून द्वारा तय किए गए दायरे से आगे भी निकलते रहे हैं। लेकिन अगर ऐसा होता है तो संबंधित लोगों पर कानून की वे धाराएं लागू की जानी चाहिए, जो उन मामलों में उपयुक्त हों। आतंकी गतिविधियों से जुड़ी धाराओं का सामान्य मामलों में इस्तेमाल लोकतंत्र में नागरिकों को दिए गए स्पेस को कम करता है। इसीलिए अदालत ने आगाह किया कि अगर ऐसा होता रहा तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा। बहरहाल, एक महत्वपूर्ण पहलू दिल्ली दंगों की जांच का भी है। चूंकि पुलिस की साजिश की थिअरी न्यायिक समीक्षा में ठहर नहीं पा रही, इसलिए यह जरूरी हो गया है कि वह दंगों की अपनी अब तक की जांच पर फिर से गौर करके उसकी कमियों को दूर करे। इस सवाल का सबूतों पर आधारित ठोस जवाब मिलना ही चाहिए कि राजधानी को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंकने वाले आखिर कौन थे।


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