सम्पादकीय

क्या देवीलाल की रैली से डरकर वीपी सिंह ने मंडल का ब्रह्मास्त्र चला था?

Gulabi
7 Aug 2021 2:37 PM GMT
क्या देवीलाल की रैली से डरकर वीपी सिंह ने मंडल का ब्रह्मास्त्र चला था?
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उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आने के साथ ही उत्तर भारत की राजनीति में तीन दशक पुराने मंडल दौर के वापसी

उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आने के साथ ही उत्तर भारत की राजनीति में तीन दशक पुराने मंडल दौर के वापसी के संकेत मिलने लगे हैं. कई क्षेत्रीय दल जाति जनगणना और मंडल कमीशन की शेष सिफारिशें लागू करने का दबाव बना रही हैं. इनमें वो अधिकतर नेता मुखर हैं, जिन्होंने 90 के दशक में अपनी स्थिति मजबूत की थी. लेकिन सवाल ये है कि क्या अब मंडल की 'शेष राजनीति' सियासत में अपना प्रभाव दिखा पाएगी. इसे समझने के लिए वीपी सिंह की मंडल यात्रा समझते हैं. समझते हैं कि क्या मंडल से वीपी सिंह की मसीहा बनने की हसरत पूरी हो सकी?


राजा नहीं फकीर है. देश की तकदीर है. बोफोर्स की आंधी में कांग्रेस को विदा करने वाला ये नारा वीपी सिंह के लिए लगा था, लेकिन आरक्षण की आग ऐसी लगी कि हिंदुस्तान जाति के आधार पर दो स्पष्ट खेमों में बंट गया. पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों में उनका हक दिलाकर वीपी सिंह पिछड़ों के महीसा बन गए. तो दूसरी ओर समाज का अगड़ा वर्ग अपना हक मारे जाने से गुस्से में था. वीपी सिंह उनके लिए खलनायक बन गए. तो चलिए पड़ताल करते हैं वीपी सिंह सरकार के ग्यारह महीने के छोटे से कार्यकाल की. जो 1989 में राजीव गांधी के खिलाफ ईमानदारी के महीसा बन कर उभरे थे.

पहले आपको समझना होगा कि मंडल कमीशन की सिफारिश और आरक्षण का मुद्दा क्या था. केंद्र की जनता सरकार ने वंचितों को आगे लाने के लिए मंडल कमीशन बनाया था. कमीशन ने सिफारिश की थी कि सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरियों में से 27 परसेंट सीटें रिजर्व कर दी जाएं. एससी और एसटी के लिए 22.5 परसेंट आरक्षण पहले से ही था, लेकिन जब मंडल कमीशन ने रिपोर्ट दी थी. उसी समय जनता सरकार गिर गई थी. आखिर इसके एक दशक बाद वीपी सिंह की सरकार ने मंडल रिपोर्ट पर आदेश जारी किया.

वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बने अभी केवल 8 महीने ही बीते थे और 8 महीने के अंदर देश की सड़कें छात्रों के खून से लाल हो रही थीं. दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश समेत हर कोने से स्टूडेंट्स के आत्मदाह करने, आत्मदाह की कोशिश करने की खबरें आने लगीं. वीपी सिंह का ये सामाजिक सरोकार कितना राजनैतिक था. ये सवाल आज भी पूछे जाते हैं.

देवीलाल का पुत्रमोह और वीपी सिंह की मसीहा बनने की हसरत
आखिर 10 साल से धूल फांक रही मंडल कमीशन की रिपोर्ट को अचानक लागू कराने के पीछे वीपी सिंह का क्या मकसद था. क्या वाकई मंडल कमीशन को लागू कराने के पीछे समाज में बराबरी लाना ही मकसद था या फिर ये वीपी सिंह की सिय़ासी मजबूरी थी. इसे समझने के लिए आपको उस दौर में चलना होगा. जब 1989 में देश में दूसरी बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी. संसद के सेट्रल हॉल में नेशनल फ्रंट के साथ साथ बीजेपी और वाम दल के सांसद एक साथ जुटे थे. माइक ताऊ देवीलाल के हाथ में था. देवीलाल के प्रस्ताव से वीपी सिंह पहले संसदीय दल के नेता चुने गए और फिर 2 दिसंबर 1989 को वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली. तब वो देश के दूसरे गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे.

इसके बाद ताऊ देवीलाल ने भी हरियाणा से दिल्ली का रुख किया और हरियाणा में अपनी विरासत अपने बेटे ओम प्रकाश चौटाला को सौंप दी. राजनीति का इतिहास कहता है कि वीपी सिंह सरकार के गठबंधन में विरासत के सवाल पर ही दरार पड़ गई. ओमप्रकास चौटाला हरियाणा के सीएम तभी बन सकते थे. जब वो विधायक हों और विधायक बनने के लिए चौटाला ने मेहम सीट से उपचुनाव के लिए पर्चा भर दिया. ओमप्राकश चौटाला चुनाव तो जीत गए लेकिन उन पर चुनाव में धांधली करने और हिंसा का सहारा लेने के आरोप लगे. इसी सियासी उठापटक के बीच वीपी सिंह ने अपना कद बढ़ाने लिए एक ऐसे कमीशन की रिपोर्ट निकाली थी, जिससे दिल्ली और यूपी ही नहीं, गुजरात भी सुलग उठा.

सियासत में सबकुछ सीधा-सीधा नहीं होता और देवीलाल के पुत्रमोह में भी सीधी सियासत नहीं थी. हरियाणा में चौटाला की जीत दिल्ली में वीपी सिंह के चरित्र पर उंगली उठाने लगी. फिर वीपी सिंह ने चौटाला से इस्तीफा मांग लिया. चौटाला को सीएम पद छोड़ना पड़ा. यहीं से पुत्र मोह में फंसे देवीलाल की वीपी सिंह से ठन गई. देवीलाल ने वीपी सिंह को जवाब देने की ठानी. बेटे को दूसरी सीट से चुनाव जिताया और ताऊ ने रातों रात चौटाला को हरियाणा का सीएम बनवा दिया.

आपको एक बार फिर बता दें कि तब देवीलाल देश के उप प्रधानमंत्री थे और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव उन्होंने ही रखा था, लेकिन सियासत में दबाव बढ़ता गया. वीपी सिंह के मंत्रियों ने इस्तीफा भेजना शुरू किया और उनके इस्तीफे स्वीकार करने की जगह प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने खुद इस्तीफा देने की पेशकश कर दी. देवीलाल और वीपी सिंह के बीच मतभेद इतने बढ़े कि 8 महीने में ही वीपी सिंह ने देवीलाल को उपप्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया. वीपी सिंह खुद भी जानते थे कि अब उनकी सरकार किसी भी वक्त गिर सकती है. ऐसे में वीपीसिंह ने अपना मास्टर स्ट्रोक चला, लेकिन ये मास्टर स्ट्रोक क्या था, इसका खुलासा हुआ 6 अगस्त 1990 की कैबिनेट मीटिंग में हुआ. जब वीपी सिंह ने कहा कि वो मंडल कमीशन की रिपोर्ट को जल्द से जल्द लागू करना चाहते हैं.

देवीलाल की रैली से डर गए थे वीपी सिंह?
वीपी सिंह को शतरंज खेलने का खूब शौक था और वो इस खेल के माहिर खिलाड़ी भी थे. अब अपनी राजनीतिक बिसात पर उन्होंने मंडल के मोहरे को आगे बढ़ा दिया था. 1990 में वीपी सिंह ने 6 अगस्त को जो अहम बैठक की, उसमें राम विलास पासवान और शरद यादव भी मौजूद थे. सरकार वेंटिलेटर पर थी, जिसे वीपी सिंह ने मंडल का ऑक्सीजन दिया था.

इधर, देवीलाल ने अगस्त क्रांति के दिन यानी 9 अगस्त को दिल्ली में बड़ी रैली का ऐलान कर रखा था, जिसमें खुद कांसीराम भी आने वाले थे. लोग कहते हैं कि इसी क्रांति से वीपी सिंह डर गए थे और वो मंडल के ब्रह्मास्त्र से देवीलाल को हराना चाहते थे. असल में मंडल कमीशन की रिपोर्ट कई सालों से धूल चाट रही थी. इस आयोग का गठन मोरार जी देसाई सरकार ने किया था. बिहार के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद इस मंडल कमीशन के अध्यक्ष थे और साथ में 6 सदस्य भी थे. कमीशन का काम था कि वो समाज में पिछड़े वर्ग की पहचान करे और उनको मुख्यधारा में लाने का खाका तैयार करे. मंडल कमीशन ने इसके लिए जातियों को आधार बनाया. आरक्षण की वकालत की.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक, कमीशन ने 3743 जातियों का सर्वे किया, जिनकी आबादी भारत की आधी थी, लेकिन प्रशासन में इनका प्रतिनिधित्व बहुत कम था. खासतौर पर बड़े पदों पर. कमीशन का आंकड़ा कह रहा था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ 12.55 फीसदी ओबीसी थे, जबकि क्लास वन की गजेटेड नौकरियों में इनका हिस्सा सिर्फ 4.83 प्रतिशत था.

कमीशन की नीयत पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन वीपी सिंह के हालात उनके इरादों पर उंगली उठा रहे थे. 1980 में जब तक कमीशन ने रिपोर्ट सौंपी तब तक मोरार जी देसाई की सरकार गिर चुकी थी, जिसे दस साल बाद 7 अगस्त को वीपी सिंह से लागू करने की घोषणा की. जिनको आरक्षण से फायदा होना था उनकी आबादी तब 52 फीसदी के करीब थी. माना जाता है कि वीपी सिंह की राजनीतिक मंशा. इस 52 फीसदी वोट बैंक को हासिल करने की थी.

मंडल के बावजूद वीपी सिंह मसीहा नहीं बन सके
सरकार ने 13 अगस्त 1990 को अधिसूचना जारी कर मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर दी यानी उसी तारीख से सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू हो गया. अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए 22.5% आरक्षण पहले से लागू था. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी का आरक्षण लागू हुआ. इस तरह कुल आरक्षण 49.5 % हो गया.

वीपी सिंह का ये दांव विरोधियों पर भारी पड़ा. किसी भी राजनेता के लिए इसका विरोध कर पाना नामुमकिन हो गया. एक फैसले ने वीपी सिंह को एक बड़े वर्ग का महीसा बना दिया और वो इस फैसले से पीछे हटने वाले नहीं थे. तब दक्षिण भारत में 10 परसेंट से कम अपर कास्ट थे. उत्तर भारत में 20 परसेंट थे, जिन्होंने इस फैसले का विरोध किया. छह राज्यों में पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें 50 से ज्यादा मौतों की रिपोर्ट आई.

इस रिपोर्ट को लागू करने के बाद पूरा भारत चार वर्गों में बंट गया. एससी/एसटी पहले से थे. मंडल के बाद ओबीसी और जनरल भी विभाजन के पैमाना बन गए. ये बात अलग है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करके भी वीपी सिंह महानायक नहीं बन सके. पिछड़े वर्ग ने वीपी सिंह को कभी अपना नेता नहीं माना और मंडल के बीच ही कमंडल की हवा ने वीपी सिंह को बाहर कर दिया.

ये बयार थी राम जन्मभूमि की. जिसमें लालकृष्ण आडवाणी रथ लेकर निकले थे और उन्हें बिहार के समस्तीपुर में रोक लिया गया. बीजेपी ने इस घटना के बाद नेशनल फ्रंट से समर्थन खींच लिया. हालांकि वीपी सिंह ने नो कंफिडेंश मोशन तक हार नहीं मानी. वीपी सिंह जब संसद में 142 के मुकाबले 346 वोट से हारे तो उनके साथ नेशनल फ्रंट भी पूरी नहीं थी. 7 नवंबर 1990 को वीपी सिंह ने इस्तीफा दे दिया और इसके बाद शुरू हुआ चंद्रशेखर का युग.


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