सम्पादकीय

कृषि बिलों को वापस लिए जाने से क्या भारतीय किसानों का भला हुआ ? कब और कैसे होगा इनका सुधार?

Gulabi
21 Nov 2021 12:07 PM GMT
कृषि बिलों को वापस लिए जाने से क्या भारतीय किसानों का भला हुआ ? कब और कैसे होगा इनका सुधार?
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भारतीय किसानों का भला
शंभूनाथ शुक्ल। कोई भी सरकार यदि अपने एजेंडे के तहत कोई भी कदम उठाती है, तो उन कदमों को वापस नहीं लेना चाहिए. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार 19 नवंबर को तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया. उस दिन ग़ुरु नानक जयंती थी और प्रधानमंत्री ने कहा कि वे ग़ुरु परब के पावन अवसर कुछ किसानों की भावनाओं का ख़्याल रखते हुए ये कृषि क़ानून वापस ले रहे हैं. इस घोषणा पर ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई. किसानों ने ख़ुशी जताई, मिठाइयां बाटीं और एक-दूसरे को मुबारकवाद दी.
उधर विरोधी दलों ने इसे आंदोलन कारी किसानों की जीत और उनके दलों का इस आंदोलन को व्यापक समर्थन का नतीजा इसे बताया. कुछ उत्साही लोग इसे राहुल गांधी की जीत बात रहे हैं तो कुछ मोदी की. लेकिन किसान संघों ने मान लिया है कि सरकार झुक गई है इसलिए वे इसे अब और झुकाएं. इसीलिए एमएसपी की गारंटी, मृत किसानों को मुआवजा, बिजली बिलों की माफ़ी जैसे मुद्दे वे उठाने लगे हैं.
जीत किसी की हुई हो, सुधारों की हार हुई
लेकिन कोई भी कृषि के जानकार यह नहीं समझ पा रहा कि प्रधानमंत्री की इस घोषणा से क्या वाक़ई भारतीय कृषि का भला हुआ? उनके अनुसार अब तक के कार्यकाल में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुधार की तरफ़ उठाए अपने कदम वापस खींच लिए हैं. उनके अनुसार बेहतर रहता कि प्रधानमंत्री पहले ही किसान संगठनों से बातचीत करने के बाद ये क़ानून लाते. कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी इस तरह के क़ानून लाना चाहते थे. किंतु पर्याप्त बहुमत न होने से वे शांत रहे. मोदी जी को अपनी पार्टी के बहुमत पर भरोसा था. वे संसद में इन सुधारों के लिए विधेयक लाये और पास भी करा लिया. पहले 5 जून 2020 को एक अध्यादेश ला कर सरकार ने कृषि सुधारों हेतु संसद में पारित हुए बिल को लागू करा दिया. इसके बाद 27 सितंबर 2020 को राष्ट्रपति ने इस पर मुहर लगा दी और यह बिल क़ानून में बदल गया.
सुप्रीम कोर्ट की दख़ल
इसके बाद 26 नवंबर 2020 को किसान दिल्ली की सीमाओं पर आ कर डट गए. 11 दिसंबर को संयुक्त किसान मोर्चा इन क़ानूनों को रद्द कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट गया. फिर 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इन क़ानूनों के अमल पर रोक लगा दी और सरकार को कहा कि वह एक कमेटी बनाए और वह सभी पक्षों से बात कर इन क़ानूनों में ज़रूरी सुधार करे. इसके बाद 26 जनवरी को किसानों ने जो कुछ दिल्ली में किया वह अभूतपूर्व था. सवाल यह उठता है कि सरकार को यदि लगता था कि ये क़ानून भारतीय कृषि के सुधार के लिए लाए गए हैं तो उन्हें वापस क्यों लिया जा रहा है. इसे मोदी सरकार का हताशा में उठाया गया कदम ही कहा जाएगा. जब संसद में क़ानून बना दिया गया तो उस पर अमल भी करना था. आख़िर इसी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाते ही वहां पर अमल कर दिया था. तब कोई हील-हवाली नहीं हुई. फिर ये तो कृषि सुधारों हेतु लाए गए थे.
नाम का अन्नदाता
दरअसल केंद्र सरकार को इन क़ानूनों को लागू करने के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति दिखानी थी. सच बात तो यह है कि भारत का मौसम कृषि के अनुकूल होते हुए भी आज भी किसान यहाँ आर्थिक बदहाली की स्थिति में है. इसकी वजह है कि उसे बस अन्नदाता बता कर खुश कर लिया जाता है. जब वह अन्नदाता खुद ही भूखा रहता है तो क्या भले वह और लोगों का पेट भरेगा. इसी का लाभ उठा कर कुछ किसानों ने खेती को अपनी इज़ारेदारी बना ली है. वे खुद खेती नहीं करते किंतु मंडियों और एमएसपी के बूते वे पूरे देश के अढ़तिया बन गए हैं. पंजाब के किसान दूसरे प्रदेश से किसानों का सस्ता आनाज उठा कर अपने राज्य की मंडियों में बेच लेते हैं. इसीलिए इन क़ानून से पंजाब के किसान अधिक आहत थे.
किसान बना अढ़तिया
बाज़ार ने अब शरबती गेहूं, बासमती चावल और अरहर की दाल को ही शहरी लोगों का मुख्य भोजन बना दिया है. बाक़ी के सारे खाद्यान्न बाहर हो गए. जिसका बाज़ार उसकी ख़रीद. बाक़ी को सरकार ख़रीदे. पंजाब एक ऐसा प्रांत था, जिसकी छवि सर्वाधिक अन्न उपजाने वाले राज्य की बनी और सारी सरकारी ख़रीद वहीं से होने लगी. जबकि पंजाब न अपने गेहूं न अपने धान अथवा दालों के लिए कभी मशहूर रहा है. जिस सरसों और मक्का के लिए वह मशहूर था वह दूसरी जगह चला गया. अब देश की कुल ख़रीद का 50 से 68 प्रतिशत खाद्यान्न (गेहूँ व धान) पंजाब से ख़रीदे जाने लगे, तो पता चला कि किसानों की आड़ में यह खेल आढ़तिए कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडीसा और मध्यप्रदेश का गेहूं-चावल वे औने-पौने दामों पर ख़रीद कर वे पंजाब भेज देते, जहां वह सरकारी ख़रीद केंद्रों पर बिकता. अर्थात् हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाए. दिक़्क़त तब हुई जब भारतीय खाद्य निगम के पास भंडारण की जगह नहीं है. और दुनियां के सभी देश खाद्यान्न के मामले में आत्म निर्भर हैं. इसलिए सरकार को लगा कि अब न्यूनतम ख़रीद मूल्य (एमएसपी) पर खाद्यान्न ख़रीदना आसान नहीं है.
पंजाब के लिए मुश्किल
पंजाब के लिए वाक़ई यह थोड़ा मुश्किल है, कि वहाँ के लोग बिना एमएसपी के गेहूं उपजाएं. इसलिए उनको नए कृषि क़ानूनों से परेशानी स्वाभाविक थी. एमएसपी उनकी अर्थ व्यवस्था का आधार है. हरियाणा सरकार ने बाहर के व्यापारी और किसानों को रोकने के लिए "मेरी फसल मेरा ब्योरा"नाम से एक सॉफ़्टवेयर लांच किया था. लेकिन पंजाब में ऐसी कोई रोक-टोक नहीं है. इसलिए पंजाब के बहुत सारे किसान खुद आढ़तिए बन कर गेहूं बाहर से लाकर एमएसपी पर बेच लेते हैं. सरकार अब गेहूं की खुद ख़रीद नहीं करना चाहती, इसलिए एमएसपी उसके लिए बोझ बन गई है. किसानों से उनकी फसल ख़रीदने के लिए एमएसपी बनी थी. एमएसपी अगर न हो तो खुले बाज़ार में किसानों को लाभ नहीं मिलेगा. क्योंकि बाज़ार कभी ऊपर तो कभी नीचे. इसमें मांग और सप्लाई का नियम लागू होगा. पूरे देश के लिए समान एमएसपी होती है. कृषि मंत्रालय की ओर से कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सलाह पर एमएसपी होती है. गेहूं, धान, ज्वार, कपास, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन और तिल आदि की ख़रीद एमएसपी पर होती है. किंतु धान और गेहूं की ही सबसे अधिक होती है. हालांकि एमएसपी का लाभ दस फ़ीसदी से कम किसानों को ही मिलता है.
राजनीतिक आंदोलन
किसान आंदोलन ने सरकार और पूरे देश को हिला कर रख दिया था. भले ही इस आंदोलन में सिर्फ़ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ ही ज़िलों के किसान शामिल रहे लेकिन मोदी सरकार इस आंदोलन से हिल गई. यूं यह आंदोलन किसान समर्थक से अधिक राजनीतिक अधिक था. सरकार भी यह समझ रही थी. लेकिन वह इसे विरोधी दलों को भरोसे में लेकर आगे नहीं बढ़ रही थी. राहुल गांधी चूंकि आज वाम दलों के नेताओं के प्रभाव में अधिक हैं इसलिए वे ज़मीन की समस्या से रू-ब-रू नहीं हैं. यह बात कांग्रेस के भी उदारवादी लोग समझ रहे हैं. इसीलिए वे भी चुप रहे. यही कारण था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राजनीतिक दांव चला और ऐन विधानसभा चुनावों के पूर्व इन क़ानूनों की वापसी की घोषणा कर दी. अब सवाल यह है कि क्या इसका लाभ बीजेपी को मिलेगा? क्योंकि उसकी असली लड़ाई उत्तर प्रदेश में है. और उत्तर प्रदेश में मेरठ व सहारनपुर मंडल के किसानों के अलावा अन्य स्थानों के किसानों की भागीदारी नगण्य थी.
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