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आज दोपहर टीवी पर देखा कि फ़िल्म कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की अंत्येष्टि ब्रह्मा कुमारी रीति से मुंबई के ओशिवारा श्मशान घाट पर संपन्न हुई
शंभूनाथ शुक्ल। आज दोपहर टीवी पर देखा कि फ़िल्म कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की अंत्येष्टि ब्रह्मा कुमारी रीति से मुंबई के ओशिवारा श्मशान घाट पर संपन्न हुई. अब जो लोग सिर्फ़ नाम से सिद्धार्थ शुक्ला को हिंदू और ब्राह्मण मान कर उनसे अपनापा दिखा रहे थे, उनके लिए यह एक झटका है. ठीक इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता को ब्राह्मण समझने वाले लोग हाथ मलते रह गए थे.
उनके पार्थिव शरीर का दाह कर्म नहीं हुआ था बल्कि उनके शव को दफ़नाया गया था. यही भारत की विशेषता है और यही उसकी विविधता. यह शायद यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका में नज़र नहीं आएगी. भारत की यह विशेषता उसे बहुलतावाद से भिन्न करती है और अल्पसंख्यकों तथा वंचित समाज को उनके अधिकार दिलाने को प्रेरित करती है. लेकिन इसके लिए भारतीय समाज को उसके कालखंड से देखना होगा.
अंग्रेजों ने तोड़ी समरसता
दरअसल अंग्रेजों ने भारत में औपनिवेशिक राज स्थायी करने के लिए उसकी इस समरस विविधता को भंग किया. पहले तो उन्होंने जनगणना में हिंदू आबादी की बहुलता का प्रचार किया. उन्होंने ग़ैर मुस्लिम, ग़ैर ईसाई और ग़ैर पारसी को हिंदू मान लिया. इस तरह कबीरपंथी भगत, नाथ, योगी और कनफटा तथा बौद्ध और जैन एवं नानकपंथी सब हिंदू हो गए. जबकि इन सबकी मान्यताओं में काफ़ी अंतर था.
इसी तरह मुस्लिम के बीच के शिया, सुन्नी, अहमदिया जैसे भेदों को ख़त्म कर दिया. जबकि इतिहास बताता है कि इस विविधता के चलते ही भारत में न तो सांप्रदायिक दंगे होते थे न राजा के धर्म से प्रजा के धर्म का वास्ता रहता था. भारत में मुट्ठी भर तुर्क आ कर किसी भी राज्य को ले लेते और उस पर अपना क्षत्रप नियुक्त कर देते. लेकिन प्रजा को इससे कोई तकलीफ़ नहीं थी.
क्यों आया था मुहम्मद बिन क़ासिम
भारत में तुर्कों और अरबी लोगों का संपर्क बहुत पुराना है. सन 712 में अरबी राजकुमार मोहम्मद बिन क़ासिम ने सिंध के राजा दाहिर पर हमला किया था. अब सिंध न तो अरब का पड़ोसी था न दोनों के बीच कोई शत्रुता थी. अगर इस्लाम धर्म का प्रसार या हिंदुस्तान पर राज करना उसका मक़सद था तो 713 में मुल्तान विजय के बाद उसने हमला बंद क्यों कर दिया? क़ासिम के बाद 979 में सुबुक्तगीन ने हमला किया और फिर 1001 से 1027 के बीच महमूद गजनवी ने. आख़िरी के दोनों सुल्तान तुर्क थे और लूट-पाट उनका उद्देश्य था. भारत पर राज करने के लिए मुहम्मद गोरी आया 1192 में. अर्थात् क़ासिम और गोरी के बीच 480 वर्ष का फ़ासला है. जबकि इस बीच आधा यूरोप मुसलमानों के हमले से थर्रा गया था और पूरा पश्चिम व मध्य एशिया में लोग धड़ाधड़ इस्लाम धर्म में गए थे.
इस अवधि का इतिहास कोई बहुत पुख़्ता सूचना नहीं देता. लेकिन जनश्रुतियां इसमें बहुत सहायक हैं. मुहम्मद बिन क़ासिम के हमले का उद्देश्य राजा दाहिर द्वारा शियाओं को पनाह देना था. कर्बला के युद्ध के बाद बहुत से शिया हिंदुस्तान में आ बसे थे. मोहम्मद बिन क़ासिम इन सैयदों की तलाश में हिंदुस्तान आया था. दाहिर ने पराजित होकर इन शियाओं को मुल्तान भेज दिया और जब अगले साल क़ासिम ने मुल्तान पर हमला किया तो ये लोग कन्नौज चले गए. चूंकि कन्नौज साम्राज्य बहुत विशाल और समृद्ध था इसलिए क़ासिम ने आगे हमला नहीं किया. एक तरह से शिया लोग हिंदुस्तान में बहुत पहले आ बसे थे. सैयदों की जनश्रुतियों में इसके संकेत मिलते हैं. यही कारण था कि भारत में अरबों या तुर्कों के बहुत पहले उनकी भाषा आ गई थी.
तुर्की भाषा पहले आई
गीताप्रेस गोरखपुर ने कल्याण का एक 'वीर बालिकाएं' अंक निकाला था. इसमें कानपुर के निकट एक राजा का उल्लेख है जिसका नाम सज्जन सिंह था और उसकी बेटी का नाम ताज क़ुंवरि. इस राज्य पर क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने हमला किया था. अब 13 वीं शताब्दी में सज्जन सिंह तथा ताज क़ुंवरि जैसे नाम क्या हिंदू लोग धारण करते थे? यह बड़ा सवाल है. किंतु जब कल्याण छप रहा है तो सच मानना पड़ेगा. इससे यह तो पता चलता ही है कि सज्जन और ताज जैसे तुर्की नाम भारत में प्रचलित हो चुके थे. ऐसा मुस्लिमों के संपर्क से हुआ होगा. चूंकि पारसी लोग सिर्फ़ गुजरात के ही इलाक़े में बसे तो ज़ाहिर है उत्तर के हिंदुस्तान में ये नाम वे मुसलमान लाए जिनको अरब में सम्मान नहीं मिला और वे हिंदुस्तान आ गए. उनके साथ ही उनकी रवायतें भी आईं.
उत्तर में भक्ति आंदोलन ने जातियों को तोड़ा
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन भले दक्षिण से आया हो लेकिन निम्बार्काचार्य के साथ जो विशिष्टाद्वैत आया उस वज़ह से उसमें जाति पर हमला कम था क्योंकि दक्षिण में चाहे अलवार रहे हों या नयनार उन्हें हिंदू धर्म की जातिवादी व्यवस्था से कम जूझना पड़ा. क्योंकि जाति का रूप वहां श्रेष्ठतावाद की हायरार्की से नहीं बंधा था. पेशवाओं ने ज़रूर बांधा पर मध्य काल में वहां ब्राह्मण और ग़ैर ब्राह्मण के अलावा जातियां नहीं थीं.
जबकि उत्तर में हिंदुओं का वैदिकीय जगत चातुर्वर्ण व्यवस्था से बंधा था. इसलिए भक्ति आंदोलन ने, चाहे वहे निर्गुण रहा हो अथवा सगुण हिंदू धर्म की इसी वर्ण व्यवस्था पर प्रहार किया. अंग्रेजों के आने के समय वैदिकीय हिंदुओं में यह व्यवस्था थी, लेकिन उतनी जड़ नहीं जैसी कि अंग्रेजों ने उसकी व्याख्या की. इसकी वजह थी भक्ति आंदोलन के चलते अधिकांश हिंदू इस वर्ण व्यवस्था से बाहर थे. मगर जनगणना में सभी हिंदुओं को एक बता कर अंग्रेजों ने न सिर्फ़ साम्प्रदायिक बीज बोए बल्कि जाति की नै व्याख्या कर दी.
सबसे अहम बात यह है कि जाति की इस श्रेष्ठता को पनाह देने या उकसाने की बजाय हिंदुओं के वैविध्य को फिर से बहाल किया जाए तब ही हम जातिवाद के कुचक्र से बाहर आ सकते हैं. ब्रह्मा कुमारी, कृष्ण प्रणामी आदि संप्रदाय आज भी हिंदुओं में हैं और उन्हें बनाए रखा जाए. आजकल लोग ईरानी बाबा मेहरचंद को भूल चुके हैं, जिन्होंने एक बड़ा आंदोलन चलाया था और हिंदुओं की अगड़ी कही जाने वाली जतियां उनके साथ थीं. यह वैविध्य ही समता लाएगा.
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