सम्पादकीय

क्या वोटर्स को लुभाने में फेल हो गए किसान आंदोलन के बड़े नेता राकेश टिकैत और बलबीर सिंह राजेवाल?

Rani Sahu
9 March 2022 12:20 PM GMT
क्या वोटर्स को लुभाने में फेल हो गए किसान आंदोलन के बड़े नेता राकेश टिकैत और बलबीर सिंह राजेवाल?
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) और पंजाब (Punjab) के एग्जिट पोल उन किसान नेताओं के लिए अच्छी भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं

अजय झा

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) और पंजाब (Punjab) के एग्जिट पोल उन किसान नेताओं के लिए अच्छी भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं, जिन्होंने एक साल तक तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया, जो कि अब वापस ले लिए गए हैं. आधिकारिक तौर पर 10 मार्च को पता चलेगा कि अपने-अपने गृह राज्यों में राजनीतिक तौर पर वे कहां खड़े हैं, लेकिन अगर एग्जिट पोल (Exit Poll) कोई पैमाना है तो यह बात एक बार फिर सही साबित हो जाती है कि एक बहुत बड़े आंदोलन का नेतृत्व करना राजनीति में सफलता का पासपोर्ट नहीं है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जो कि किसान आंदोलन का गढ़ रहा, में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) को समाजवादी पार्टी (SP) राष्ट्रीय लोक दल (RLD) गठबंधन की तुलना में ज्यादा सीटें मिलने का अनुमान है. हालांकि, इनके खराब प्रदर्शन का प्रभाव संभवत: समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और RLD के जयंत चौधरी पर उतना नहीं पड़ेगा जितना कि भारतीय किसान यूनियन (BKU) नेता राकेश टिकैत पर पड़ेगा. कई एग्जिट पोल्स में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अंदर बीजेपी को 50 से 58 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है, जहां पर 10 फरवरी को पहले चरण का मतदान किया गया.
राकेश टिकैत ने एसपी-आरएलडी गठबंधन को खुले तौर पर समर्थन दिया था
समाजवादी पार्टी इस इलाके में कभी बड़ी ताकत नहीं मानी गई, यही कारण रहा कि उसने RLD के साथ गठबंधन किया, जो कि इस इलाके में जनाधार रखती है. पश्चिमी यूपी के किसान आज भी जयंत चौधरी के दादा चौधरी चरण सिंह के नाम की कसमें खाते हैं, वह भारत के प्रधानमंत्री भी रहे, जबकि जयंत के पिता चौधरी अजीत सिंह भी इस क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय रहे. राकेश टिकैत ने सपा-आरएलडी गठबंधन को खुले तौर पर समर्थन दिया, इस वजह से कुछ वर्ग ऐसा मान रहे थे कि बीजेपी का सूपड़ा साफ हो जाएगा.
राकेश टिकैत के पास अपने पिता की विरासत है, जो कि प्रसिद्ध किसान नेता थे. ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि दो प्रसिद्ध परिवारों के वंशज, जयंत और टिकैत जब साथ आएंगे तो बीजेपी का सफाया कर देंगे. राकेश टिकैत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं. वे दो बार चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन वोटर्स ने उन्हें खारिज कर दिया. हालांकि, आंदोलन के दौरान उनका कद पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गया. उन्होंने इस बात को छिपाया नहीं कि 2017 विधानसभा चुनाव और 2019 लोकसभा चुनाव में वे बीजेपी के साथ खड़े थे. इन दोनों चुनावों में बीजेपी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबका सूपड़ा साफ कर दिया था. उन्हें संभवत: नतीजे का आभास हो गया, इसलिए उन्होंने ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) में गलत वोट रजिस्टर होने और वोटों की गिनती में गड़बड़ी की बातें शुरू कर दी हैं. ये बयान जिस वक्त आए उस समय तक यूपी के कई इलाकों में मतदान होना बाकी था. ये सब बातें संकेत देती हैं जो आकलन किया गए वे गलत थे.
इसी तरह दो अन्य बड़े किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी और बलबीर सिंह राजेवाल का भविष्य भी अनिश्चित ही नजर आ रहा है, इन्होंने पंजाब में संयुक्त समाज मोर्चा (SSM) नाम से राजनीतिक दल बनाया और बुरी तरह असफल हुए, राज्य में आम आदमी पार्टी (AAP) स्वीप करती दिख रही है. SSM को 22 किसान यूनियनों ने पंजाब में लॉन्च किया, लेकिन इन्हें उम्मीदवारों के चयन में बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. जब तक चुनाव आए तब तक 9 किसान यूनियन इससे अलग हो गए और SSM कमजोर हो गया.
आंदोलन से पैदा हुए राजनीतिक दलों के सफल होने की संभावना बेहद कम होती है
एग्जिट पोल प्रोजेक्शन में टिकैत, चढूनी और राजेवाल को अस्वीकार किया जाना अंतत: इस सिद्धांत को पुष्ट कर सकता है कि आंदोलन से पैदा हुए राजनीतिक दलों के सफल होने की संभावना बेहद कम होती है. उत्तराखंड क्रांति पार्टी ने उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन किया, लेकिन जब उत्तर प्रदेश से इसे अलग कर दिया गया तब यह पार्टी बड़ी राजनीतिक ताकत बनने में नाकाम रही और इस पहाड़ी राज्य में मामूली खिलाड़ी बनकर रह गई. इस मामले में आम आदमी पार्टी जरूर अपवाद रही, जिसका जन्म अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाए गए इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन से हुआ. AAP ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में दो बार बड़ी विजय हासिल की और अब पंजाब में भी इसी तरह के प्रदर्शन को दोहराती नजर आ रही है.
एक अहम फैक्टर जो कि शायद राजनीति के क्षेत्र में किसान नेताओं के खिलाफ गया, वो है भारतीय मतदाता का अलग-अलग चुनावों में अलग-अलग तरह से मतदान करना. लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे होते हैं, जबकि राज्य के चुनावों में स्थानीय विषय प्रभाव डालते हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के दम पर सत्ता में आने के तुरंत बाद बिहार और दिल्ली के वोटर्स ने बीजेपी को अस्वीकार कर दिया था. दिल्ली के मतदाता अब तक चार बार लोकसभा और विधानसभा चुनावों के बीच के इस गठनात्मक अंतर को स्थापित कर चुके हैं.
बीजेपी ने 2014 और 2019 के आम चुनावों में दिल्ली की सभी सातों सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन इसी दिल्ली के मतदाता ने विधानसभा चुनावों में AAP को प्रचंड बहुमत दिया. चूंकि, उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनाव में किसान आंदोलन निर्णायक फैक्टर नहीं रहा, इसलिए आंदोलन के दौरान टिकैत, चढूनी और राजेवाल जैसे नेताओं के साथ खड़े दिखाई देने वाले लोग आज अन्य दलों के पक्ष में वोट दे रहे हैं.
Rani Sahu

Rani Sahu

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