सम्पादकीय

गले नहीं उतरी बात

Subhi
7 April 2021 2:51 AM GMT
गले नहीं उतरी बात
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ब्रिटेन की सरकार ने जिस तरह नस्लभेद की समस्या पर परदा डालने की कोशिश की,

NI एडिटोरियल: ब्रिटेन की सरकार ने जिस तरह नस्लभेद की समस्या पर परदा डालने की कोशिश की, उससे उसकी फजीहत होनी ही थी। जिस समय पूरी दुनिया में नस्लभेद के खिलाफ एक नई चेतना आई है, अगर तब बोरिस जॉनसन सरकार की ये उम्मीद पूरी नहीं होनी थी कि कुछ औपचारिकताओं के जरिए समस्या को ढका जा सकता है। जॉनसन सरकार ने समस्या की पड़ताल के लिए एक जांच समिति बनाई। उसकी रिपोर्ट में कहा गया कि भले ही ब्रिटेन एक उत्तर-नस्लीय समाज नहीं बन पाया है, लेकिन लोगों के जीवन में नस्ल के बजाय पारिवारिक ढांचे और सामाजिक वर्ग की भूमिका ज्यादा अहम है। अमेरिका में काले व्यक्ति जॉर्ज फ्लाएड की मौत के बाद ब्रिटेन के भीतर उपजे तनाव और 'ब्लैक लाइव्स मैटर' प्रदर्शनों के बाद ये कमीशन स्थापित किया गया था।

रिपोर्ट में ब्रिटेन के भारतीय समुदाय समेत कुछ अन्य जातीय समूहों का उदाहरण देते हुए ये साबित करने की कोशिश की गई है कि नस्लवाद भले ही मौजूद हो, लेकिन वो ब्रिटिश जीवन में अब निर्णायक भूमिका में नहीं निभाता। कमीशन के अध्यक्ष टोनी सिवेल ने कहा है कि सुबूत ये दिखाते हैं कि हमारा समाज एक खुला समाज है। पिछले पचास सालों में देश ने लंबा रास्ता तय किया है। यहां शिक्षा व कुछ हद तक आर्थिक क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदायों की तरक्की, बहुसंख्यक गोरी आबादी वाले मुल्कों के लिए एक आदर्श के तौर पर मानी जानी चाहिए। मगर रिपोर्ट जारी होते ही इसकी कड़ी आलोचना शुरू हो गई। नस्लीय समानता के लिए काम करने वाली तमाम संस्थाओं ने एक सुर में इसे समाज में दरार डालने वाली और राजनीतिक मकसदों से प्रेरित रिपोर्ट करार दिया। मसलन, गैर-सरकारी संस्था रेस इक्वॉलिटी फाउंडेशन ने कहा कि अगर इरादा नस्लभेद को नकारने का हो, तो फिर अल्पसंख्यक समुदायों की सामाजिक असमानता के कारण उनके घर में ही ढूंढे जाएंगे। ये हमने पहले 1960-70 में देखा है, जब कैरिबियाई पुरुषों और अपराधों के बीच संबंधों पर किए गए शोध अध्ययनों में नस्ल, पुलिस और कानून की भूमिका को देखने के बजाय उनके घरों की सांस्कृतिक स्थितियों में कारण ढूंढे गए। हकीकत यह है कि समाज में होने वाले सभी प्रकार के भेद-भाव को नस्लभेद की नजर से ना देखने की अपील करती ये रिपोर्ट रेखांकित करती है कि नस्ल का मसला अब भेद-भाव, कड़वाहट और पूर्वाग्रहों के रूप में भले ही मौजूद हो, सामाजिक ढांचे अब नस्लभेद पर आधारित नहीं हैं। मगर दावा लोगों के गले नहीं उतरा है।

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