सम्पादकीय

नीतीश क्या फेल हुए?

Gulabi
31 Oct 2020 4:05 PM GMT
नीतीश क्या फेल हुए?
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मैं नहीं मानता और न ही मैं लालू यादव और नरेंद्र मोदी को फेल मानता हूं।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मैं नहीं मानता और न ही मैं लालू यादव और नरेंद्र मोदी को फेल मानता हूं। बिहार के लोग याकि हम हिंदू जो चाहते रहे हैं और हम हिंदुओं का जो डीएनए है तो उसी अनुसार हमें लालू यादव, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी का नेतृत्व प्राप्त है। ध्यान रहे, नोट रखें कि आज भी लालू प्रसाद यादव के मुरीद हिंदू हैं। उधर इस चुनाव में भी नीतीश कुमार के बहुत मौन समर्थक हैं, जो चुपचाप नीतीश कुमार के तीर पर वोट डालेंगे। उन्हें पचपनिया जातियों के वोट कहें या अतिपिछड़े, महादलित की किसी जाति का नाम दें। ऐसे ही नरेंद्र मोदी के लोग दिवाने हैं और वे उन्हें पंद्रह साल प्रधानमंत्री चाहेंगे तबइन नेताओं पर ठिकरा फोड़े या जनता पर?

दरअसल हिंदू को अवतार और मूर्ति चाहिए। इसमें अलग-अलग समूहों को अलग-अलग मूर्तियां चाहिए। इसलिए मूर्तियों को कसूरवान न मानें। लालू प्रसाद की एक बार ब्रांडिंग हो गई, उनकी मूर्ति बन गई, उनके आस्थावान लोग हो गए तो लालू यादव जेल जाएं या वे कितने ही बदनाम, नाकारा साबित हों उन्हें लोग पूजते रहेंगे। बिहार में लालू के पच्चीस-तीस प्रतिशत वोट पहले भी थे और अब भी हैं।

तभी मसला जनता का, मतदाता का, आबादी का है। यथा प्रजा तथा राजा। फिर दूसरा फैक्टर है मूर्ति और भक्त, के बीच के, सत्ता मंदिर के पंडे-पुजारियों का। मतलब अफसरशाही का। भारत में अंग्रेज जो ढांचा रच गए है उसमें नौकरशाही में लालू-राबड़ी देवी को चलाने वाली राजबाला वर्मा हों या नीतीश कुमार के आरसीपी-चंचल-प्रत्यय या नरेंद्र मोदी के पीके मिश्रा, अजित डोवाल, जयशंकर ये सभी अपने-अपने मंदिर को चलाए रखने के नित्यकर्म के ऐसे आदी हैं, उसके प्रसाद, भोग में ऐसे रमे होते हैं कि इन्हें मतलब नहीं कि दुनिया में भारत माता के मंदिर का क्या बन रहा है। जैसे राजबाला वर्मा राबड़ी और लालू को चलाते हुए थीं वैसे नरेंद्र मोदी को पीके मिश्रा-डोवाल-जयशंकर चलाते हुए हैं और भक्त लोग, धर्मादाभोगी जनताइसी में प्रसन्न, संतुष्ट है कि वाह-वाह भगवानजी का आज क्या खूब शृंगार है, क्या झांकी है। उनकी कृपा जो पांच किलो गेहूं-एक किलो चने की भिक्षा प्राप्त हो जा रही है। सो, महीने भर घर चल जाएगा। इस धर्मादा, मूर्ति महिमा-शृंगार-पूजा-चढ़ावे-प्रसाद-पंडे-पुजारी की पूरी सत्ता व्यवस्था में लालू यादव का राज जहां खूब महिमामय रहा है तो पंद्रह साल से नीतीश कुमार का है और अखिल भारतीय स्तर पर इन दिनों नरेंद्र मोदी का है। सब आशीर्वाद देते हुए। सब प्रजा पर देवत्व टपकाते हुए। न लालू, नीतीश और न नरेंद्र मोदी को ज्ञान-बुद्धि की जरूरत है और न वैसा कोई मॉडल इन्हें चाहिए, जिससे विकसित-सभ्य देशों की व्यवस्था चलती है।

तब बेचारे नीतीश कुमार को खलनायक मानने का हल्ला क्यों?उन्हें फेल क्यों करार दिया जा रहा है?मूल वजह एक है। कुछ अपनी तकलीफ और कुछ बहकाने के या नए बड़े मंदिर की बड़ी मूर्ति की कथा से लोक आस्था में घटत-बढ़त होती है। फलां दस लाख नौकरियां दे रहा है या फलां अच्छे दिन लिवा ला रहा है और फलां के सत्संग में कितनी हंसी आती है जैसे शोर से लोगों की पाला बदली होती है। मौजूदा बिहार प्रसंग में नीतीश कुमार पर नरेंद्र मोदी का शैड़ो है। वहीं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान हमउम्र नौजवानों के बीच वह मार्केटिंग बनाए हैं, जिससे दोनों की दबंगी का हल्ला बन रहा है। ऐसे में कोई न कोई तो खलनायक होना था, किसी के मंदिर से तो भक्त टूटने थे तो नीतीश कुमार वक्त के शिकार होते लगते हैं।

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