सम्पादकीय

जिंदगी का पांसा

Subhi
5 Feb 2022 3:30 AM GMT
जिंदगी का पांसा
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कभी-कभी जिंदगी में बहुत कुछ अच्छा चल रहा होता है कि अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, मानो सांप-सीढ़ी के खेल में निन्यानबे वाला सांप हमारी सबसे ऊंची गोटी को निगल गया, जिससे गोटी सबसे नीचे आ गई।

शालिनी वर्मा: कभी-कभी जिंदगी में बहुत कुछ अच्छा चल रहा होता है कि अचानक कुछ ऐसा हो जाता है, मानो सांप-सीढ़ी के खेल में निन्यानबे वाला सांप हमारी सबसे ऊंची गोटी को निगल गया, जिससे गोटी सबसे नीचे आ गई। उस समय सब धुंधला-सा नजर आने लगता है। हाथ-पांव अपनी जगह जड़ हो जाते हैं। मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। मस्तिष्क के कार्य न करने से वह इंसान कुछ समझ ही नहीं पाता। तो आखिर वह बेबस प्राणी करे तो क्या करे?

उस समय एक-एक क्षण मानो एक-एक वर्ष के बराबर होता है। वह बेचारा प्राणी एक किनारे बैठ कर एक अंधे के समान सब देखता रहता है। गूंगे के समान कुछ भी बोलने में असमर्थ होता है। एक क्षण ऐसा आता है, जब उसके मन ही मन में दुख चरम सीमा पर पहुंच कर उसके मष्तिष्क पर हावी हो जाता है। फिर वह रोता, चिल्लाता और अपना सिर पटकता है। वह यह स्वीकार करने की कोशिश करता है कि जो कुछ उसके समक्ष घटित हो रहा है, वही सच है। फिर भी वह स्वीकार नहीं कर पाता, क्योंकि उसे लगता है कि वह एक बुरे सपने में जी रहा है। अभी एक नया सवेरा होगा और यह बुरा सपना यहीं समाप्त हो जाएगा, पर ऐसा कुछ नहीं होता।

एक नवइसलिए जब वह व्क्ति जी भर रो, चिल्ला लेता है, तब शांत होकर अंदर ही अंदर घुटता रहता है। उसके आसपास के लोग, उसके मित्रगण उसको समझाने का प्रयास करते हैं कि जो तेरे साथ हुआ है वही नियति ने लिख रखा था। उसे स्वीकार करो। फिर वह दुखी इंसान सबकी हां में हां मिलाना शुरू कर देता है, पर उसके अंतर्मन में उस वक्त कुछ और ही चल रहा होता है।

समय गुजरता जाता है, वह घुटता जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है, जब वह इस सबको बिना स्वीकार किए ही इन सबसे निकलने की कोशिश करता है। इसलिए वह उन सभी चीजों का सहारा लेता है, जिनसे उसे झूठी ही सही, पर ऊपरी हंसी मिले, क्योंकि आज का जमाना रोते हुए इंसान के आंसू पोंछने के बजाय उसका मजाक उड़ाता है।

वह इस समय किसी एक ऐसे इंसान का साथ ढूंढ़ता है, जिसके कांधे पर सिर रख कर उसे चैन की नींद मिल सके। जिससे वह अपनी हर छोटी-बड़ी बात कहे सके, जो उसके मन की पीड़ा उसके हाव-भाव के अनुसार जान सके। जो उसे गले से लगा कर एक बच्चे के समान समझा सके। मगर इस समय दोस्त हो या रिश्तेदार कोई भी अपना नहीं लगता और सच तो यही है कि सभी लोग ऐसे समय में उस दुखी इंसान से पीछा छुड़ाना चाहते हैं।

फिर भी वह हर तरह की तकलीफ झेलते हुए अपनी झूठी हंसी बरकरार रखने की कोशिश करता रहता है। उसे पता ही नहीं होता कि उसके जीवन में आखिर चल क्या रहा है। इसी के साथ-साथ वह अपनी आंखों देखे हुए जिंदगी के सारे सपने क्षण भर में ही त्याग देता है, क्योंकि फिर वह ईश्वर और मेहनत से ज्यादा किस्मत पर विश्वास करने लगता है। उसे लगता है कि जो नियति ने रचा है, होना वही है, तो फिर मेरे कुछ भी करने से क्या होगा?

हर पल उसका मन बदलता रहता है। बहुत से सवाल उसके मन में किसी तूफान की तरह उठते रहते हैं। उसे इस संसार की प्रत्येक वस्तु के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति भी नश्वर ही नजर आता है। उसके मन ही मन में एक तरह का उन्माद चलता रहता है, जो उसकी ही समझ से परे होता है, तो आखिर और कोई क्या ही समझेगा? वह दुखी व्यक्ति किसी बेचारे की तरह अपनी बेबसी के साथ इन्ही सब में अपनी कांटों भरी सेज पर बिना किसी मकसद के जिंदगी गुजारता रहता है।

कुछ समय बाद जब वह कुछ नहीं कर पाता, तो वह दूसरों की भलाई करने में लग जाता है, लेकिन दूसरों की भलाई करना भी कभी-कभी उसी पर हावी हो जाती है। वह दुखी इंसान स्वयं के पैर पर ही कुल्हाड़ी मार कर बैठ जाता है। इसलिए वह थक-हार कर अपनी यात्रा जारी तो रखता है, पर उसे फिर भी पता नहीं होता कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है?

ऐसे समय में वह सिर्फ और सिर्फ किसी एक ऐसे इंसान का सहारा खोजता है, जो उसकी खामोशी को समझ कर उसे जीवन की सही राह पर लाकर खड़ा कर सकने में सहायक हो और उसका हाथ थामे सदा के लिए उसके साथ रहे, मगर फिर भी वह बेबस, दुखी और लाचार व्यक्ति किसी का सहारा लिए बिना ही अपनी तपस्या जारी रखता है, क्योंकि उसे अपनी इन सभी उम्मीदों के टूटने का डर सताता रहता है। इसलिए मन में एक टीस लिए वह स्वयं से कहता है, सब ठीक है, अकेला ही काफी हूं।


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