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सुशील कुमार सिंह: साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित है। कमोबेश गरीबी का आंकड़ा भी कुछ ऐसा ही है। ऐसे में समावेशी ढांचा, ग्रामीण उत्थान, शहरी विकास और संदर्भित मापदंडों में जन आकांक्षाओं को पूरा किए बिना विकास के प्रतिमान न केवल अधूरे रहेंगे, बल्कि सुशासन को भी चोटिल करेंगे।
साल 1951 में शुरू भारत की पहली पंचवर्षीय योजना मुख्य रूप से बांधों और सिंचाई में निवेश सहित कृषि प्रधान क्षेत्र से प्रेरित थी। फिर 1952 का सामुदायिक विकास कार्यक्रम गांवों के विकास को लेकर केंद्रित था। देखा जाए तो 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद देश के विकास के ये ऐसे दो प्रारूप थे, जहां से भारत को रफ्तार के साथ अपने कदम बढ़ाने थे। हालांकि सामुदायिक विकास कार्यक्रम साल भर में विफल हो गया।
इसी विफलता के बाद पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप सामने आया था जो मौजूदा समय में स्वयं में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के संदर्भ में विकास का एक प्रमुख रूप है। सिलसिलेवार तरीके से चलती आई बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान इसे 2015 में समाप्त कर दिया गया। एक जनवरी 2015 से नीति आयोग को एक वैचारिक संस्था के रूप में स्थापित किया गया।
उक्त कुछ संदर्भों से यह परिलक्षित होता है कि विकास के प्रारूप (माडल) कमोबेश देश में हमेशा रहे हैं। मगर 1991 के उदारीकरण के बाद देश में यह अवधारणा नए अर्थों में पुलकित होने लगी। यह वही दौर था जब दुनिया सुशासन को अंगीकृत कर रही थी। इसी दौर में विश्व बैंक की गढ़ी सुशासन की आर्थिक परिभाषा भी 1992 में परिलक्षित हुई। इसे अपनाने वालों में ब्रिटेन पहला देश था।
बीते तीन दशकों में देश व राज्यों में कई विकास प्रारूप देखे जा सकते हैं। इन्हीं तीन दशकों में सुशासन की पटकथा ने भी विस्तार लिया। राज्यों में विकास का जोशीला और गुंजायमान रूप साल 2014 में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के दौरान सभी की जुबान पर था। बिहार का विकास प्रारूप भी फलक पर आया, जिसमें बिहार की शांति, कानून-व्यवस्था और समावेशी ढांचे में बुनियादी बदलाव का दावा निहित था।
मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश भी सेवा, सुरक्षा और सुशासन को समर्पित एक नया प्रतिमान गढ़ रहा है। दिल्ली एक केंद्रशासित प्रदेश व अधिराज्य है जहां सरकार शिक्षा के एक सशक्त रूप से अभिभूत दिखती है। पर्वतीय प्रदेशों के लिए हिमाचल का विकास माडल सड़कों के जाल, सामाजिक सुरक्षा, पर्यटन और आर्थिकी पर बल को लेकर एक मिसाल के तौर पर परोसा जा रहा है।
सन 2000 में बने तीन राज्यों में छत्तीसगढ़ बेरोजगारी दर को अब तक के न्यूनतम स्तर 0.6 फीसद पर ला आने की वजह से विकास के अच्छे उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है। इसी तर्ज पर दक्षिण के राज्य मसलन तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, गोवा व महाराष्ट्र सहित कई राज्य समावेशी अवधारणा के अंतर्गत अपने-अपने प्रारूपों को सर्वोपरि रूप में प्रस्तुत करने का संदर्भ लिए हुए हैं।
हालांकि उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के कई राज्य ऐसे हैं जिनका अभी तक कोई विकास प्रारूप प्रतिबिंबित नहीं हो पाया है। गौरतलब है कि कृषि और संबद्ध क्षेत्र, वाणिज्य और उद्योग, मानव संसाधन विकास, आर्थिक शासन, समाज कल्याण, पर्यावरण व नागरिक केंद्रित शासन ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो न केवल विकास के प्रतिमान गढ़ने के काम आ रहे हैं, बल्कि सुशासन सूचकांक में भी राज्यों को नई ऊंचाई दे रहे हैं।
विकास लोगों की प्रगति को बढ़ावा देने की एक योजना है, ताकि मनुष्य के जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो सके। इसे विकसित और लागू करने के दौरान सरकार जनसंख्या की आर्थिकी और श्रम की स्थिति में सुधार, स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुंच की गारंटी और अन्य मुद्दों के साथ सुरक्षा प्रदान करने का काम करती है। गौरतलब है कि विकास प्रतिरूप की सफलता कई कारकों पर निर्भर करती है।
सुशासन का विकास माडल से गहरा नाता है। इसके केंद्र में ही लोक सशक्तिकरण होता है। देखा जाए तो विकास एक प्रकार का बदलाव है जिसका सरोकार जनता से है। जब यही विकास बेहतर अवस्था को ले लेता है, मसलन गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, किसान कल्याण, कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाएं, शिक्षा, शहर के साथ ग्राम विकास सहित महिला सुरक्षा जैसे कई बुनियादी संदर्भों को लेकर अपेक्षित परिणाम बार-बार मिलते हैं, तो यही विकास एक प्रतिमान के रूप में स्थापित हो जाता है।
विकास को गति देने में अच्छी सरकार व अच्छे प्रशासन की भूमिका ही प्रमुख होती है। पारदर्शी व्यवस्था, जनभागीदारी, सत्ता का विकेंद्रीकरण, दायित्वशीलता, कानून का शासन और संवेदनशीलता के साथ लोक कल्याण का निहित परिप्रेक्ष्य सुशासन की अवधारणा को मजबूत बनाता है। स्पष्ट है कि विकास और सुशासन एक दूसरे के पूरक हैं। एक मजबूत विकास माडल सुशासन को ताकत दे सकता है और ताकत से भरा सुशासन मजबूत और टिकाऊ विकास को स्थायित्व प्रदान कर सकता है। इन दोनों परिस्थितियों में जन सरोकार निहित है और यही देश या राज्य विशेष का उद्देश्य भी है।
आजादी के बाद भारत के समक्ष एक बड़ी चुनौती सशक्त विकास प्रारूप खोजने की भी थी। पचास के दशक में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के तमाम देश जो औपनिवेशिक सत्ता से आजाद हुए थे, उन्हें बुनियादी विकास के लिए विश्व बैंक से मिलने वाली आर्थिक सुविधा का बेहतर उपयोग न हो पाने से यह चिंता बढ़ी कि आखिर विकास का स्वरूप कैसा हो।
दरअसल ये तमाम देश उन्हीं देशों की नकल कर रहे थे जिनके ये गुलाम थे। इसे देखते हुए 1952 में तुलनात्मक लोक प्रशासन के अंतर्गत अध्ययन की परिपाटी आई और ठीक दो साल बाद 1954 में विकास प्रशासन की भी अवधारणा एक भारतीय सिविल सेवक यूएल गोस्वामी ने रखी। निहित पक्ष यह है कि प्रत्येक देश की अपनी पारिस्थितिकी होती है ऐसे में बिना सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक अवधारणा को समझे विकास के लिए नीतियां विकसित होती हैं, तो संभव है कि समस्याएं बनी रहें और आर्थिकी भी खतरे में रहे।
दुनिया के ऐसे तमाम देश औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, संसाधनों के मजबूत दोहन और निरंतर विकसित होती तकनीक को विकास का बड़ा जरिया समझते हैं। जबकि भारत जैसे देश के लिए एक अच्छा विकास वही है जिसको अपना कर गरीबी, बीमारी, बेरोजगारी, शिक्षा, चिकित्सा जैसी व्याप्त समस्याओं से मुक्ति पाई जा सके, संघवाद को मजबूती मिले और महिला सशक्तिकरण और सुरक्षा को पुख्ता करने की दिशा में बढ़ा जा सके।
हालांकि भारत अब नई प्रौद्योगिकी को अंगीकृत करते हुए डिजिटल पहचान, वित्तीय प्रौद्योगिकी क्रांति सहित कई मामलों में भी छलांग लगा रहा है। देखा जाए तो विकास माडल केवल एक विषय विन्यास नहीं, बल्कि समय के साथ बढ़ती समस्या के अनुपात में विकसित एक उपकरण है जिसे मजबूत सुशासन द्वारा सुसज्जित करना और जन सरोकार को पोषित करना संभव रहता है।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दो दशक पहले 'विजन 2020' का दृष्टिकोण सामने रख भारत को विकसित करने का सपना देखा था। यह एक समुच्चय अवधारणा के अंतर्गत एक सशक्त प्रारूप ही था। किसानों की आय 2022 में दोगुनी और दो करोड़ घर देने जैसे तमाम वायदे और इरादे मौजूदा सरकार का विकास माडल हैं। यह पड़ताल का विषय है कि सफलता की दर कहां है और सुशासन की दृष्टि से विकास माडल कसौटी पर कितना खरा साबित हो रहा है।
सरकारें आती और जाती हैं, मगर नागरिक अधिकार और आसान जीवन की बाट हमेशा जोहने वाला जनमानस तब निराश होता है जब सपने दिखाए तो जाते हैं, पर वे जमीन पर उतरते नहीं हैं। नागरिक अधिकार पत्र (1997), सूचना का अधिकार (2005), ई-गवर्नेंस आंदोलन (2006), शिक्षा का अधिकार (2009), खाद्य सुरक्षा (2013) सहित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आदि अलग-अलग समय के भिन्न-भिन्न विकास माडल ही हैं। साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित है। कमोबेश गरीबी का आंकड़ा भी कुछ ऐसा ही है। ऐसे में समावेशी ढांचा, ग्रामीण उत्थान, शहरी विकास और संदर्भित मापदंडों में जन आकांक्षाओं को पूरा किए बिना विकास के प्रतिमान न केवल अधूरे रहेंगे, बल्कि सुशासन को भी चोटिल करेंगे।