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Written by जनसत्ता; 'आर्थिक असमानता और सुशासन' (लेख, 6 अक्तूबर) गंभीर और बड़े सवालों को उजागर करता है। राष्ट्रीय सुशासन और सुजीवन के लबादे से ढके असंख्य सवाल बार-बार बाहर झांकते प्रतीत हो रहे हैं। हमारे देश के एक व्यवसायी दुनिया के दूसरे नंबर के सबसे अमीर आदमी बन गए हैं। हमारे नेता राष्ट्र के चहुंमुखी विकास की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर बातें करते हैं।
वैश्विक पटल पर हमारी छवि और कद बढ़ने की बातें की जा रही हैं। हम देश के तमाम क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की ओर निरंतर अग्रसर नजर आ रहे हैं। हर सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका निरंतर बढ़ रही है। पर क्या हम इस जनसंख्या के सुगम जीवन व भविष्य के लिए आधारभूत बुनियादी ढांचे का और इनके जीवन की बेहतर स्थिति के लिए हर तरह के विकास (रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, भेदभाव और भ्रष्टाचार से मुक्ति आदि) को सुनिश्चित कर पा रहे हैं?
जातिगत मानसिकता और भेदभाव का निरंतर प्रबल होते जाना और अमीर-गरीब के बीच खाई का बढ़ना आमजन के जीवन की मुश्किलों को बढ़ावा ही दे रहा है। सरकार खुद बता रही हैं कि वह पिछले दो साल से भी ज्यादा समय से देश की करीब अस्सी करोड़ आबादी को मुफ्त में पांच किलो गेहूं प्रतिमाह उपलब्ध करा रही है। यानी देश की अस्सी करोड़ आबादी के सामने पेट भरने के भी लाले पड़े हुए हैं। यानी गरीबी और भुखमरी अपने पैर पसार चुकी है। क्या यह तथ्य हमारी अर्थव्यवस्था, सुशासन, विकास की पोल नहीं खोल रहा है?
बेरोजगारी के आंकड़े बता रहे हैं कि अगस्त 2022 में देश में बेरोजगारी की दर 8.3 फीसद तक पहुंच गई है जो कि 2019 में 5.2 फीसद व 2020 में 7.1 फीसद थी। कहा जाता है कि विश्व की संपूर्ण गरीब आबादी का तीसरा हिस्सा अकेले भारत में रहता है! हम जानते हैं कि जनसंख्या का करीब पैंसठ फीसद हिस्सा गांवों में रहता है और बुनियादी समस्याओं रोजगार का संकट, खेती का संकट, ढांचागत सुविधाओं की कमी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के अभाव के चलते गांवों से प्रतिदिन बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन निरंतर जारी है।
भारत का मानव विकास सूचकांक 2021 में विश्व के 191 देशों की सूची में 132 स्थान पर पहुंच गया है जो कि 2020 में 131वें स्थान पर था। रिजर्व बैंक ने अभी रेपो रेट बढ़ाकर देश की आबादी पर नया आर्थिक बोझ लाद दिया है। खुदरा महंगाई और जीएसटी के बढ़ते दायरे ने आग में घी डालने का ही काम किया है।
इन तमाम सवालों के साथ राष्ट्र के सुशासन और सुजीवन को पटरी पर लाना चुनौतीपूर्ण तो है, पर असंभव नहीं है। कुछ बड़े नेताओं की ओर से देश में गरीबी, बेकारी, आर्थिक असमानता पर गहरी चिंता व्यक्त की जा रही है। मगर केवल बात करने से नहीं होगा। जनमानस की रोजमर्रा की जीवन से जुड़ी समस्याओं को कैसे दरकिनार कर सकते हैं, जिससे आमजन के जीवन की सुगमता का रास्ता होकर गुजरता है?