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अपने देश में विवादास्पद सांप्रदायिक बयानों वाला बवाल जब अपने चरम पर था
हरजिंदर,
अपने देश में विवादास्पद सांप्रदायिक बयानों वाला बवाल जब अपने चरम पर था, तब कुछ अखबारों में खबर यह छपी कि भारतीय जनता पार्टी ने विवाद पैदा करने वाले अपने बयानवीरों पर लगाम लगाने का फैसला किया है। ऐसे 38 नेताओं की पहचान की गई है, जो अपने मुंह से झरने वाले फूलों की वजह से सुर्खियों में आते हैं। खबरों में यह भी बताया गया कि इसके लिए पार्टी नेताओं के लाखों ट्वीट खंगाले गए। उनमें से हजारों ट्वीट ऐसे अलग किए गए, जिनमें उनके बोल बिगड़े हुए थे। यह साफ नहीं है कि उसके आगे पार्टी ने सुधार के लिए क्या कार्रवाई की? की भी, या नहीं? यह भी हो सकता है कि पूरे मामले में पार्टी जिस तरह से फंस गई थी, उसके बाद ऐसी लीपापोती उसकी मजबूरी बन गई हो। मामला चाहे पार्टी में अनुशासन बनाने का हो या फिर महज लीपापोती करने का, इन कामों के लिए किसी पार्टी ने शायद पहली बार बिग डाटा का इस्तेमाल किया। कम-से-कम पहली बार ऐसा कोई किस्सा सार्वजनिक हुआ है।
साल 2014 का आम चुनाव वह पहला मौका था, जब बिग डाटा, यानी नागरिकों और मतदाताओं के आंकड़ों, उनकी जानकारियों, उनकी पसंद-नापसंद और उनके रुझानों का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू हुआ था। सूचना तकनीक के इस्तेमाल से मतदाताओं को किस तरह जोड़ा और मोड़ा जा सकता है, इसका पहला अनुभव भारत को तभी मिला।
मतदान को प्रभावित करने की जिस तकनीक का इस्तेमाल अमेरिका में इस सदी की शुरुआत में ही होने लगा था, उसे भारत तक पहंुचने में एक दशक का समय लग गया। सबसे पहले बराक ओबामा ने इसका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया और बिग डाटा के जरिये वह न सिर्फ पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी प्राप्त करने में कामयाब रहे, बल्कि इसे आगे का मुख्य चुनाव भी उन्होंने जीता। पार्टी के भीतर उम्मीदवारी की दौड़ में उनकी प्रतिद्वंद्वी थीं हिलेरी क्लिंटन। हिलेरी जब इस दौड़ से बाहर हुईं, तो उन्होंने अपनी हार का ठीकरा आंकड़ों पर ही फोड़ते हुए कहा था कि उनके पास जीतने लायक अच्छे आंकड़े नहीं थे।
भारत में 1984 के आम चुनाव में राजीव गांधी ने राजनीति के परंपरागत और पुरातन तेवर बदलने की कोशिश की थी। तब पहली बार पार्टी दफ्तर में कंप्यूटर का इस्तेमाल शुरू हुआ था। उम्मीदवारों से उनके बायोडाटा मांगकर इन कंप्यूटरों में फीड किए गए थे। राजीव गांधी ने ही पहली बार चुनाव प्रचार को पेशेवर लोगों के हवाले कर उसका रूप-रंग पूरी तरह बदल दिया था। तब कांग्रेस के चुनाव प्रचार का जिम्मा री-डिफ्यूजन नाम की विज्ञापन एजेंसी को दिया गया था। इन चीजों के लिए उस दौर में उनका काफी मजाक भी बनाया गया। यह बात अलग है कि बाद में तकरीबन सभी दलों ने इन्हीं तौर-तरीकों को अपनाया। हालांकि, राजीव गांधी जिस समय कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे थे, उस समय तक न तो बिग डाटा की अवाधारणा विकसित हुई थी, न आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) था, न मशीन लर्निंग थी, न इंटरनेट था और न ही वह सोशल मीडिया था, जिसने अगले दो दशक में करोड़ों लोगों को आपस में जोड़ दिया। पहला बदलाव तो राजीव गांधी ने कर दिया था, लेकिन अगले बदलाव के लिए भारत की राजनीति को अभी तीन दशक का इंतजार करना था।
आठ साल पहले जब बिग डाटा के इस्तेमाल ने भारत में दस्तक दी, तो यहां की राजनीति शायद उसके लिए पहले से ही तैयार थी। तब तक मोबाइल फोन की संख्या के मामले में भारत चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया था। देश में जितने वयस्क थे, मोबाइल फोन की संख्या उससे ज्यादा हो चुकी थी। इससे पहले की परंपरागत राजनीति में किसी भी उम्मीदवार के लिए यह लगभग अंसभव था कि अपने क्षेत्र के 80 फीसदी मतदाताओं तक वह पंफलेट या प्रचार सामग्री को पहुंचा सके। लेकिन अब तकनीक ने यह मुमकिन कर दिया था कि 80 फीसदी से ज्यादा मतदाताओं के फोन पर अपना संदेश भेजा जा सके।
इसलिए आंकड़ों का अंबार जमा करके उनके इस्तेमाल की तकनीक को भारतीय राजनीति ने ठीक वैसे ही अपनाया, जैसे मछली पानी को अपनाती है। हर रोज एक जीबी मुफ्त डाटा का दौर भले ही तब नहीं आया था, लेकिन ऐसी आबादी बहुत बड़ी थी, जो सोशल मीडिया से जुड़ चुकी थी। यह मीडिया मध्य वर्ग से होते हुए नीचे के वर्गों में भी अपने लिए जगह बनाने लग गया था।
तब से अब तक भारतीय राजनीति की गंगा-जमुना-सरस्वती में काफी डाटा बह चुका है। सभी दलों ने संकोच त्याग दिए हैं और आज हर कोई इनमें हाथ धो रहा है। इसी दौर ने एक और राजनीति को जन्म दिया है, जिसे हम चौबीसों घंटे और सातों दिन की राजनीति कहते हैं। यह और कुछ नहीं, नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की लगातार ऑनलाइन सक्रियता है। यह सक्रियता आपको ट्विटर पर भी दिखाई देगी, फेसबुक पर भी, यू-ट्यूब पर भी और इंस्टाग्राम पर भी। वहां मुद्दे भी उछाले जाते हैं, उनके जवाब भी दिए जाते हैं और फिर पूरे विमर्श में वह बिगड़े बोल भी उभरते हैं, जिनके लिए हमारी राजनीति पहले से ही कम बदनाम नहीं है।
इस नई सक्रियता ने कभी-कभार वाली तल्खी को सदा-सर्वदा वाला स्थायी भाव बना दिया है। पहले जिस तरह के तनाव की खबरें चुनाव के आसपास आती थीं, अब कभी भी, कहीं से आ जाती हैं। हालांकि, नई तकनीक इसे भी नियंत्रित करने में हमारी मदद कर सकती है, लेकिन यह होगा तभी, जब कोई वास्तव में इसे करना चाहेगा। तकनीक ने राजनीति को भले ही कितना भी बदल दिया हो, लेकिन समाज के तनावों से फायदा उठाने वाली उसकी नीयत को नहीं बदला। जब तक यह नहीं होता, लीपापोती चलती रहेगी।
कभी लालू यादव ने कहा था कि अखबारों में क्या छपता है, इससे ज्यादा फर्फ नहीं पड़ता, क्योंकि उनका मतदाता अखबार नहीं पढ़ता। लेकिन वही लालू यादव अब खुद भी ट्विटर पर सक्रिय हैं, उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी ट्विटर पर हैं, उनके बेटे-बेटियां भी हैं। वे विभिन्न मुद्दों पर बोलते और लिखते हैं। प्रतिक्रियाओं का जवाब भी देते हैं। तकनीक ने राजनीति में इतना बदलाव तो किया ही है।
सोर्स -Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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