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मशहूर लोगों को सरकारी सुरक्षा मिलनी चाहिए या नहीं, यह दीगर बहस का मुद्दा है
By NI Editorial
अगर यह हाल में अकेली ऐसी घटना होती, तो इसे महज एक बुरा संयोग मान कर सरकार को संदेह का लाभ दिया जा सकता था। लेकिन हकीकत यह है कि जब से भगवंत मान सरकार सत्ता में आई है, पंजाब में एक नई किस्म की अफरातफरी देखने को मिल रही है।
पंजाबी गायक शुभदीप सिंह सिदधू उर्फ सिद्धू मूसे वाला की हत्या से पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार को कठघरे में खड़ा करने के पर्याप्त तर्क हैँ। अगर यह हाल में अकेली ऐसी घटना होती, तो इसे महज एक बुरा संयोग मान कर सरकार को संदेह का लाभ दिया जा सकता था। लेकिन हकीकत यह है कि जब से भगवंत मान सरकार सत्ता में आई है, पंजाब में एक नई किस्म की अफरातफरी देखने को मिल रही है। ऐसा लगता है कि वहां सारी व्यवस्था ढहती जा रही है। सड़कों पर खुलेआम खालिस्तान के पक्ष में नारे लगाने और कथित खालिस्तान के समर्थकों और विरोधियों में खुल कर हिंसक टकराव होना इस स्थिति का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष आम प्रशासन में गिरावट के रूप में देखने को मिल रहा है। मूसे वाला के मामले में सरकार इसलिए सवालों के घेरे में है, क्योंकि उसने उन्हें पहले से मिली सुरक्षा को हटाने का फैसला किया। उसका जो नतीजा हुआ, उससे जाहिर है कि सरकार के सुरक्षा आकलन की क्षमता या इसका सिस्टम बेहद लचर है।
मशहूर लोगों को सरकारी सुरक्षा मिलनी चाहिए या नहीं, यह दीगर बहस का मुद्दा है। अगर यह नहीं मिलनी चाहिए, तो फिर देश के सबसे बड़े उद्योगपति से लेकर ऊंचे पदों पर बैठे राजनेता तक से इसे वापस लिया जाना चाहिए। लेकिन आम आदमी की राजनीति के नाम पर राजनीतिक गणनाओं के तहत इसे किसी को देना और किसी से वापस लेना- तार्किक नहीं है। इसे दरअसल, दुर्भावना का परिणाम भी समझा जाएगा। देश का एक तबका कभी मानता था कि आम आदमी पार्टी कुछ नई शुरुआत करने के लिए सियासी पटल पर आई है। वह वीआईपी कल्चर को खत्म करना चाहती है। लेकिन पार्टी के व्यवहार और उसके अपने नेताओं ने जिस कल्चर को अपनाया, उसे देखने के बाद अब शायद ही किसी निष्पक्ष व्यक्ति की ऐसी राय होगी। तो प्रश्न है कि वीआईपी के नाम पर सिर्फ सिद्धू जैसे व्यक्तियों की जान को क्यों खतरे में डाला गया है? लोग ये सवाल भगवंत मान और अरविंद केजरीवाल से जरूर पूछेंगे।
Gulabi Jagat
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