सम्पादकीय

बैंकों से व्‍यापक कर्ज मिलने के बावजूद सुधर नहीं रही किसानों की दशा

Gulabi
1 Feb 2022 5:00 AM GMT
बैंकों से व्‍यापक कर्ज मिलने के बावजूद सुधर नहीं रही किसानों की दशा
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महाराष्ट्र सरकार ने बीते तीन वर्षों के दौरान किसानों के 39 हजार करोड़ रुपये के कर्जे माफ किए
पंकज चतुर्वेदी। महाराष्ट्र सरकार ने बीते तीन वर्षों के दौरान किसानों के 39 हजार करोड़ रुपये के कर्जे माफ किए, बावजूद इसके वहां बीते साल लगभग ढाई हजार किसानों ने आत्महत्या की। वर्ष 2020 में यह आंकड़ा 2547 था। यह सरकारी आंकड़ा है कि औसतन हर दिन दो हजार किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं। देश के आधे से अधिक किसान परिवार कर्जे में दबे हैं और औसतन 74,121 रुपये प्रति परिवार कर्जा है। इसमें से 69.9 प्रतिशत कर्ज बैंक या सहकारी समितियों से है, जबकि 20.5 प्रतिशत साहूकारों से लिया गया है। हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था में खेती क्षेत्र का योगदान 14 प्रतिशत है, लेकिन इससे कुल रोजगार का 42 प्रतिशत सृजित होता है। एक तरफ जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित और चरम मौसम ने देश में दस्तक दे दी है, वहीं दूसरी तरफ बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए आत्मनिर्भरता अनिवार्य है। जब देश में खेती का 55 फीसद बरसात पर निर्भर हो तो जाहिर है कि खेती-किसानी के प्रति कोताही देश की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हो सकता है।
एक साल तक चले कृषि कानून विरोधी आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाले पंजाब में दिसंबर 2021 में 1200 करोड़ के किसानी कर्जे माफ किए गए, लेकिन देखते ही देखते 14 हजार हेक्टेयर अर्थात कुल जमीन के 0.33 प्रतिशत पर खेती बंद हो गई। राजस्थान में 61.8 फीसद किसान-परिवार कर्जदार हैं तो उत्तर प्रदेश में आधे (50.8 प्रतिशत) किसान-परिवारों पर कर्जा है। मध्य प्रदेश के 45.7 फीसद किसान-परिवारों पर कर्ज की रकम चढ़ी है तो उत्तराखंड में ऐसे किसान-परिवारों की संख्या 43.8 प्रतिशत हैं।
राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय की रिपोर्ट से यह भी झलकता है कि वर्ष 2013 से 2019 के बीच कई राज्यों में किसान-परिवारों पर मौजूद कर्जे में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। मिसाल के लिए, असम के किसानों पर छह साल की अवधि में कर्जा 382 प्रतिशत बढ़ा है तो त्रिपुरा के किसानों पर कर्जे की रकम में 378 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। मिजोरम में तो किसान-परिवारों पर कर्जे की रकम में 709 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
हरियाणा ऐसा राज्य है जिसकी 81 फीसद जमीन खेती लायक है, जहां की दो तिहाई आबादी खेती पर निर्भर है, जहां 65 प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं और यदि वहां की कृषि विकास साल दर साल घटती जाए तो यह न केवल बड़े संकट, बल्कि सामाजिक विघटन की तरफ भी इशारा है। हाल ही में समाप्त हुए कृषि कानून विरोधी आंदोलन का असर हरियाणा के गांवों में गहराई से देखा गया, उसके राजनीतिक कारक भले ही अन्य कई हों, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश में कृषि आय के मामले में तीसरे स्थान पर रहने की बावजूद यहां किसान साल भर में औसतन एक चपरासी के वेतन से भी कम आमदनी प्राप्त कर पाता है। एक तो विभिन्न विकास कार्य में जमीन का अधिग्रहण और फिर बढ़ते परिवार के साथ जोत का आकार बहुत कम होना, खेती में लागत बढऩे, कर्ज के चस्के में फंसा किसान और गैर पारंपरिक फसलों के जरिये जल्दी पैसा कमाने की चाहत ने हरियाणा में खेती के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है।
नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन की हालिया जारी सालाना रिपोर्ट बताती है कि हरियाणा के किसान की मासिक आय औसतन 22,841 रुपये है। यह तब है जब इस आय में परिवार द्वारा खेती के लिए किए गए श्रम-मजदूरी की गणना की नहीं गई है। जाहिर है कि यह कमाई एक सबसे नीचे के पायदान के सरकारी कर्मचारी से भी बहुत कम है। हरियाणा में लगभग 24.8 लाख किसान हैं और 15.28 लाख खेतिहर मजदूर। लगभग 49.32 प्रतिशत किसानों के पास जोत की जमीन एक हेक्टेयर से भी कम है, जबकि एक से दो हेक्टेयर वाले किसान 19.29 फीसद हैं। 17.79 प्रतिशत किसानों के पास चार से दस हेक्टेयर जमीन का मालिकाना हक है और महज 2.52 फीसद किसान ही 10 हेक्टेयर से अधिक के मालिक हैं। शायद तभी राज्य में खेती छोडऩे वालों की संख्या भी बढ़ रही है। वर्ष 1983 में राज्य में जहां 71 प्रतिशत पुरुष किसान थे, जो आज घट कर 35 प्रतिशत रह गए हैं, जबकि इस अवधि में महिला किसानों की संख्या 90 से कम हो कर 61 प्रतिशत रह गई है।
यही कारण है कि हरियाणा का किसान हर दिन कर्ज के दल दल में धंसता जा रहा है। राज्य के 45,95,805 धरती पुत्रों पर इस समय 7931 हजार करोड़ कर्ज की देनदारी है। एकबारगी लगता है कि कर्जदार की संख्या किसान से ज्यादा क्यों है? असल में कई किसानों पर दो-तीन किस्म के कर्जे चढ़े हैं, बीज, खाद, बागवानी, पशु या मछली पालन या सिंचाई के लिए। इस दुश्चक्र में फंसे लगभग ढाई लाख किसान हर साल बैंक में डिफाल्टर हो जाते हैं। इसके अलावा आढ़ती या स्थानीय सूद खोर का कर्जा अलग होता है।
एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को न तो कर्ज चाहिए और न ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सब्सिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सब्सिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज-दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बेचने वाले के लिए सख्त से सख्त सजा का प्रविधान हो। अधिक फसल उत्पादन की दशा में किसान को बिचौलियों से बचा कर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजेंसियां खुद गांव-गांव जाकर खरीदारी करें। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से करना कोई कठिन काम नहीं है।
( लेखक सामाजिक मामलों के जानकार हैं )
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