सम्पादकीय

देशमुख : जांच तो जरूरी है

Gulabi
10 April 2021 8:18 AM GMT
देशमुख : जांच तो जरूरी है
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सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार और इसके पूर्व गृहमन्त्री श्री अनिल देशमुख की वह याचिका खारिज कर दी

आदित्य नारायण चोपड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार और इसके पूर्व गृहमन्त्री श्री अनिल देशमुख की वह याचिका खारिज कर दी है जिसमें मुम्बई उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी गई थी। उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि श्री देशमुख के खिलाफ मुम्बई पुलिस के पूर्व कमिश्नर परमवीर सिंह द्वारा लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोपों की सीबीआई से प्राथमिक जांच कराई जाये और यदि इस जांच में कुछ ठोस तथ्य पाये जायें तो आगे कार्रवाई करने के बारे में सीबीआई के निदेशक यथोचित निर्णय लें। अपनी याचिका में देशमुख ने गुहार लगाई थी कि उच्च न्यायालय ने उनका पक्ष सुने बिना ही अपना फैसला दे दिया जबकि उनके खिलाफ परमवीर सिंह ने जो आरोप लगाये हैं वे सिर्फ अफवाहों या कही-सुनी गई बातों पर ही निर्भर करते हैं जबकि उनके पीछे कोई ठोस सबूतों का आधार नहीं है।


इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों ने जो टिप्पणी की है वह लोकतन्त्र में बहुत महत्वपूर्ण है। अपना फैसला देते हुए दो सदस्यीय पीठ के न्यायमूर्तियों ने कहा कि हमारे मत में जिस प्रकार के आरोप लगाये गये हैं और जिस व्यक्ति ने लगाये हैं तथा इन आरोपों की जो गंभीरता है उसे देखते हुए किसी निष्पक्ष व स्वतन्त्र जांच एजेंसी से इनकी जांच कराया जाना बहुत जरूरी है। मौजूदा हकीकत को देखते हुए पूरा मामला जनता के विश्वास से जुड़ा हुआ है। मोटे तौर पर इसका मतलब यही निकलता है कि आरोपों की प्रतिछाया में जो तस्वीर उभरती है उससे आम जनता में गफलत का माहौल पैदा हो सकता है जिसे देखते हुए जांच कराई जानी चाहिए जिससे जनता का विश्वास न डगमगाये। यह तो सत्य है कि भारत का लोकतन्त्र पारदर्शिता की बुनियाद पर ही टिका हुआ है और इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका का दर्जा पूरी तरह स्वतन्त्र रखा है और इसे सरकार का अंग नहीं बनाया। इसका असल उद्देश्य यही था कि किसी भी सरकार की अंतिम जिम्मेदारी संविधान के प्रति इस प्रकार बने कि सार्वजनिक जीवन शुचिता की राह पर चले। परमवीर सिंह ने सीधे मुख्यमन्त्री को खत लिख कर श्री देशमुख पर आरोप लगाये थे कि उन्होंने एक सहायक सब इंस्पेक्टर सचिन वझे को मुम्बई के बार वे रेस्टोरेंटों से 100 करोड़ रुपए प्रतिमाह वसूली करने के निर्देश दिये थे। बेशक इन आरोपों का कोई गवाह नहीं है मगर ये आरोप किसी चलते-फिरते आदमी ने नहीं लगाये हैं और न ही श्री देशमुख के किसी राजनीतिक प्रतिद्वन्दी ने लगाये हैं बल्कि उन्हीं के मातहत काम करने वाले एक उच्चतम पुलिस अधिकारी ने लगाये हैं। हालांकि श्री देशमुख अब इस्तीफा दे चुके हैं मगर इससे उन पर लगे आरोपों की कालिमा हल्की नहीं पड़ जाती है क्योंकि परमवीर सिंह अब भी बाकायदा पुलिस की सेवा में ही हैं। हालांकि अब वह महाराष्ट्र होमगार्ड्स के महानिदेशक पद पर हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में महाराष्ट्र सरकार और श्री देशमुख ने दो अलग-अलग याचिकाएं दायर करके मुम्बई उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त करने की प्रार्थना की थी और दोनों की ही सुनवाई एक ही दिन गुरूवार को सर्वोच्च न्यायालय में हुई और दोनों ही पहली सुनवाई में खारिज कर दी गईं। देश की सबसे बड़ी अदालत में यह मुद्दा भी आया कि जब महाराष्ट्र सरकार ने अपने क्षेत्र में सीबीआई की स्वतः कार्रवाई पर प्रतिबन्ध लगा रखा है तो मुम्बई उच्च न्यायालय का एेसा फैसला भारत के संघीय ढांचे के लिए चुनौती नहीं है? इस पर विद्वान न्यायाधीशों ने मत व्यक्ति किया कि इससे संघीय ढांचे पर कोई असर नहीं पड़ता है क्योंकि गौर करने वाली बात यह है कि आरोप कौन लगा रहा है और किस पर लगा रहा है?

मुम्बई पुलिस कमिश्नर की हैसियत से कुछ दिनों पहले तक ही श्री परमवीर सिंह गृहमन्त्री अनिल देशमुख के मातहत काम कर रहे थे। राज्य सरकार के ये दो प्रमुख अंग हैं जो प्रशासन को देख रहे थे। अब इनमें से एक ही दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहा है तो उसकी जांच तो की ही जानी चाहिए। न्यायालय ने इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया कि श्री देशमुख अब अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं तो उनके खिलाफ जांच की कोई आवश्यकता नहीं है? विद्वान न्यायाधीशों के मत में श्री देशमुख ने इस्तीफा तब दिया जब उच्च न्यायालय ने जांच के आदेश जारी कर दिये जबकि इससे पूर्व जब राज्य सरकार ने जांच समिति गठित की थी तो वह अपने पद से चिपके रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला भविष्य में एक नजीर बनेगा क्योंकि भारत की राजनीतिक दल मूलक प्रशासनिक व्यवस्था में जिस तरह कार्यपालिका व विधायिका के बीच कभी-कभी अपवित्र गठबन्धन बन कर भ्रष्टाचार का बाजार गर्म करता है उससे सार्वजनिक जीवन लगातार कलुषता में घिरता जा रहा है। इस फैसले से कार्यपालिका पर विधायिका के अनुचित दबाव का शिकंजा कम हो सकता है बशर्ते कार्यपालिका केवल संविधान के अनुगामी के तौर पर प्रशासनिक फैसलों की जवाबदेही तय करने लगे। इस फैसले की महत्ता भारतीय लोकतन्त्र में आने वाले दिनों में इस प्रकार सिद्ध हो सकती है कि हर फैसला पूरी तरह पारदर्शिता के सिद्धान्त पर खरा उतरे।


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