सम्पादकीय

देशकाल : भाषायी स्वायत्तता के विवाद की वजह, लोकतंत्र की सहज केंद्रीय जरूरत है हिंदी

Neha Dani
4 May 2022 1:52 AM GMT
देशकाल : भाषायी स्वायत्तता के विवाद की वजह, लोकतंत्र की सहज केंद्रीय जरूरत है हिंदी
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इस भाषायी लोकतंत्र की सहज केंद्रीय जरूरत हिंदी ही है और वह अपनी भूमिका ठीक से निभा सकेगी।

यों तो जब भी शिक्षा और अखिल भारतीय संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी की बात होती है, गैर हिंदीभाषी इलाकों के राजनेताओं की ओर से विवाद खड़ा कर दिया जाता है। इसे संयोग कहेंगे या कुछ और, बीते अप्रैल में हिंदी बहुत चर्चा में रही, उसे लेकर विवाद भी हुए और संवाद। वैसे हिंदी पर सवाल तो 1938 से ही उठ रहे हैं, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने मद्रास के प्रीमियर के नाते राज्य में हिंदी की पढ़ाई शुरू की थी। हिंदी पर आखिरी विवाद सिनेमा की दुनिया से उठा।

कन्नड़ सिनेमा के सुपर स्टार माने जाने वाले सुदीप किच्चा के ट्वीट से इस बार विवाद शुरू हुआ। हाल के दिनों में मूल रूप से दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फिल्में बाहुबली, आरआरआर और केजीएफ की अपार सफलता के संदर्भ में किच्चा ने ट्वीट किया, 'हिंदी अब राष्ट्रभाषा नहीं है।' जवाब में हिंदी के जाने-माने अभिनेता अजय देवगन ने ट्विटर पर किच्चा से पूछ दिया कि अगर हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है, तो आप अपनी मातृभाषा की फिल्मों को हिंदी में डब करके क्यों रिलीज करते हो?
हर बार जब भी हिंदी को लेकर ऐसी बातें होती हैं, गैर हिंदीभाषी इलाकों का एक ही तर्क होता है कि हिंदी को थोपा नहीं जाना चाहिए। जबकि यह थोथा सत्य है। अगर हिंदी को सचमुच थोपा ही गया होता, तो हिंदी अब तक पूरे देश में वैसे ही स्थापित हो गई होती, जैसे कमाल अतातुर्क ने 1948 में शासन संभालते ही तुर्की भाषा को लागू कर दिया था। थोपने का यह तर्क विदेशी मानस ने बहुत चतुराई से हमारी मानस भूमि में रोपा है। इसके पीछे परोक्ष रूप से अंग्रेजियत को बनाए और बचाए रखना है।
गांधी जी इसे समझते थे, इसीलिए वह कहा करते थे कि भारत में भले ही अंग्रेज रह जाएं, लेकिन यहां से अंग्रेजियत की विदाई होनी चाहिए। अंबेडकर एक राष्ट्र-एक भाषा के सिद्धांत के पैरोकार थे। इसके लिए राजभाषा को लेकर हुई संविधान सभा की कार्यवाही को देखा जाना चाहिए। आंबेडकर संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे। दरअसल जब भी हिंदी को केंद्रीय भूमिका में लाने की कोशिश होती है, हर बार उसे थोपने का बहाना देकर पूरी प्रक्रिया को विवादित बना दिया जाता है।
तब एक तर्क दिया जाता है कि हिंदी किस तरह अंग्रेजी की तरह संपर्क भाषा बन सकती है? ऐसे सवाल पूछने वाला भूल जाता है कि भारत में अंग्रेजी का इतिहास महज 162 साल का है। मैकाले ने अपनी कुख्यात शिक्षा नीति 1835 में दी थी। 1951 की जनगणना के मुताबिक, तब सिर्फ 18 प्रतिशत ही साक्षरता थी। ऐसे में, अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब कितने लोग अंग्रेजी जानते होंगे? अगर इन्हीं आंकड़ों पर भरोसा करें, तो क्या तब वास्तव में भारत की संपर्क भाषा अंग्रेजी थी?
सवाल यह भी उठता है कि क्या 1860 के पहले भारत में कुंभ या मेले नहीं लगते थे। भारतीय दक्षिण से उत्तर या उत्तर से दक्षिण या पूरब-पश्चिम तीर्थाटन, कारोबार आदि के लिए यात्राएं नहीं करते थे? अगर करते थे, तो उनकी संपर्क भाषा क्या थी? यह सच है कि हिंदी का किसी भी स्थानीय भाषा से कोई विरोध नहीं है, बल्कि वह दूसरों से ग्रहण ही करती है। दूसरी भारतीय भाषाओं से हिंदीभाषियों का कोई विरोध भी नहीं है।
सदियों से पलायन की मार झेलने वाला हिंदी समुदाय चाहे बंगाल, महाराष्ट्र, केरल या तमिलनाडु में रोटी कमाने के लिए पहुंचे, वह कुछ अरसे बाद बांग्ला, मराठी, मलयालम और तमिल भी बोलने लगता है। अगर उसे झिझक होती, तो वह शायद ही ऐसा करता। हिंदी थोपने का तर्क राजनीति ने गढ़ा है और अब वक्त आ गया है कि इन तथ्यों के आरोप में भारतीय भाषाओं और हिंदी के अंतरसंबंधों की तरफ ध्यान दिया जाए।
आज के दौर में समाज ने अपना तकरीबन हर अधिकार राजव्यवस्था को सौंप दिया है और वह राजव्यवस्था से ही हर तरह के व्यवस्थापन की उम्मीद करता है। लेकिन वोट व्यवस्था की वजह से राजनीति भाषाओं के मुद्दे पर केंद्रीय रूख अख्तियार करने से बचती है। ऐसे में भारतीय समाज को ही आगे आना होगा। तभी राष्ट्रीय एकता की दिशा में भाषा भी मजबूत हथियार बन सकेगी। तब सही मायने में भारतीय भाषाओं का अपना लोकतंत्र होगा, जिसमें हर भाषा स्वायत्त होगी। इस भाषायी लोकतंत्र की सहज केंद्रीय जरूरत हिंदी ही है और वह अपनी भूमिका ठीक से निभा सकेगी।

सोर्स: अमर उजाला

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