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मगर सच यह है कि तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी गरीब परिवारों के बच्चे भारी तादाद में स्कूलों से बाहर हैं।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | मगर सच यह है कि तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी गरीब परिवारों के बच्चे भारी तादाद में स्कूलों से बाहर हैं। अगर आर्थिक रूप से कमजोर कोई परिवार अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा मुहैया करने की इच्छा से निजी स्कूल में दाखिला कराना चाहता है तो उसकी राहों में कई तरह की बाधाएं खड़ी हो जाती हैं।
ऐसा उन निजी स्कूलों की ओर से भी किया जाता है, जिनके लिए बाकायदा कानूनी तौर पर इस नियम को पालन करना जरूरी बनाना गया है कि वे अपने यहां कुल दाखिलों में कुछ खास हिस्सा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए सुरक्षित रखेंगे। गरीब बच्चों को दाखिले से वंचित करने के ऐसे लगातार मामलों को देखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश में साफतौर पर कहा कि निजी स्कूलों को पच्चीस फीसद सीटों पर कम आय वर्ग के बच्चों को दाखिला देना ही होगा। सुनवाई के दौरान अदालत ने साफतौर पर कहा कि उन स्कूलों की मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए, जो शिक्षा का अधिकार कानून के उल्लंघन में लिप्त पाए गए हैं।
सवाल है कि शिक्षा का अधिकार यानी आरटीई अधिनियम के लागू होने के करीब बारह साल बाद भी यह स्थिति क्यों है कि किसी अदालत को यह याद दिलाना पड़ रहा है कि इस कानून का उल्लंघन हो रहा है और सरकार इसे सख्ती से लागू करने के लिए जरूरी कदम उठाए। आरटीई कानून के प्रावधानों के मुताबिक कक्षा में घोषित कुल सीटों में से पच्चीस फीसद पर आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित समूहों के बच्चों को दाखिला मिलना चाहिए।
लेकिन अगर निजी स्कूलों में इस नियम का खुला उल्लंघन हो रहा है तो इसकी वजह क्या है और सरकार को इतने गंभीर मामले पर अपनी ओर से सक्रिय होना और समय पर कार्रवाई करना क्यों जरूरी नहीं लगा? ऐसे में अदालत ने उचित ही निजी स्कूलों के साथ-साथ दिल्ली सरकार को भी फटकार लगाई और शिक्षा का अधिकार कानून पर अमल के लिए सख्ती बरतने को कहा।
अदालत की यह टिप्पणी अहम है कि देश आज 'आजादी का अमृत महोत्सव' मना रहा है, मगर सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता अभी हमसे दूर है; अब वक्त आ गया है कि न्यायपालिका लोगों तक पहुंचे, न कि लोगों के इसके दरवाजे पर पहुंचने का इंतजार किया जाए, क्योंकि गरीब बच्चों को शिक्षा के मौलिक अधिकार का लाभ उठाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने को मजबूर किया जा रहा है। दरअसल, दिल्ली सरकार ने अपने कामकाज में सबसे ज्यादा प्रचार इस बात का किया है कि उसने यहां शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी काम किए हैं, सभी तबकों तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित की है और इसकी समूची तस्वीर बदल दी है।
मगर इसके समांतर यह हकीकत क्यों है कि गरीब या वंचित तबकों के बच्चों को अपने शिक्षा के अधिकार बाधित होने की वजह से अदालत की शरण में जाना पड़ रहा है? सस्ती दर पर जमीन हासिल करने वाले स्कूल अब तक नियम-कायदों की अनदेखी करते हुए गरीब तबके के बच्चों को उनके अधिकार से वंचित रखते हैं। क्या यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह अपने क्षेत्राधिकार में आने वाले निजी स्कूलों में इस नियम पर सौ फीसद अमल सुनिश्चित करे?
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