सम्पादकीय

देवबंद को सर्वे कबूल

Rani Sahu
19 Sep 2022 6:57 PM GMT
देवबंद को सर्वे कबूल
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By: divyahimachal
उप्र के मदरसों में सर्वेक्षण किया जा रहा है। यह मुद्दा कई दिनों से चर्चा में है और विवादास्पद भी है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और एआईएमआईएम के मुखिया ओवैसी की व्याख्या है कि जानबूझ कर मुसलमानों को परेशान, बेइज्जत किया जा रहा है। राज्य सरकार कुछ मदरसों पर बुलडोजर चलवा कर 'मिट्टी' भी करना चाह रही है। इसी चर्चा के दौरान देवबंद के दारुल उलूम का बयान आया है कि उन्हें यह सर्वे कबूल है। सरकार को सर्वे और जांच करने का हक है। सरकार ने जो सूचनाएं मांगी हैं, उन्हें दे दिया जाए। विवाद खड़ा करने या जांच टीम को मारने-पीटने अथवा मुसलमानों को डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हुकूमत मुसलमानों का दमन और शोषण नहीं कर रही है। प्रमुख इस्लामी संगठन 'जमीयत उलेमा-ए-हिंद' के मुखिया मौलाना अरशद मदनी ने भी कबूल किया है कि अभी तक जो तस्वीर सामने है, वह खराब या मुस्लिम-विरोधी नहीं है। दारुल उलूम का समर्थन बेहद गौरतलब है, क्योंकि देवबंद का यह सबसेे पुराना शैक्षणिक और वैचारिक संस्थान है। दुनिया भर से छात्र यहां तालीम लेने और इस्लाम को समझने के लिए आते हैं। कुरान और हदीस भी यहां पढ़ाए जाते हैं।
शायद यह पहली नजीर है कि देवबंद ने एक भाजपा सरकार का समर्थन किया है और वह भी योगी आदित्यनाथ सरीखे कट्टर हिंदूवादी मुख्यमंत्री के फैसले को कबूल किया है। बहरहाल मदरसे कई वजह से विवादास्पद और संदेहास्पद रहे हैं। ऐसी दलीलें बेमानी हैं कि राजा राममोहन राय और मौलाना आज़ाद सरीखी शख्सियतों ने मदरसों में तालीम हासिल की थी। तब गुलामी का दौर था और सांस्कृतिक नवजागरण के प्रयास भी किए जा रहे थे। आज हम 21वीं सदी में रहते हैं। मनुष्य चांद और मंगल ग्रह पर जीवन बसाने की कोशिश कर रहा है और मदरसे महज इमाम, मौलाना, मुफ्ती, काजी आदि बनाने की तालीम बांट रहे हैं। यह आतंकवाद का दौर भी है। मदरसों पर कलंक चस्पा है कि वे आतंकवाद के अड्डे की भी भूमिका अदा करते रहे हैं। सवाल और संदेह उन्हीं पर है, जहां आतंकियों को पनाह दी गई अथवा आतंकी पकड़े गए। मदरसों का माहौल कट्टरपंथी तो जरूर है, यह कई विशेषज्ञ कहते रहे हैं। देश भर में 5 लाख से ज्यादा मदरसे हैं। उप्र में मान्यता प्राप्त 16,500 से ज्यादा मदरसे हैं और करीब 40,000 मदरसे निजी और गैर मान्यता प्राप्त हैं। उप्र का सर्वेक्षण ही क्यों किया जाए, देश भर के मदरसों की भीतरी जांच की जाए। उस संस्कृति को जानना बेहद जरूरी है, जो अल्लाह के अलावा किसी और भगवान या परम सत्ता को मानती ही नहीं। कमोबेश शिक्षण संस्थानों में यह दुराग्रह और जड़ता नहीं होनी चाहिए।
कुछ विशेषज्ञों ने मदरसों की अंदरूनी जांच की है, लिहाजा उन्होंने पाया है कि बच्चे 4 और 7 का पहाड़ा तक नहीं जानते। बच्चे आज भी देश का प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को ही मानते हैं। विज्ञान में तो छात्र लगभग 'शून्य' हैं। सवाल है कि यदि मदरसे ऐसी ही अर्थहीन पढ़ाई परोस रहे हैं, तो उनका क्या औचित्य है? दलीलें दी जाती रही हैं कि मात्र 4 फीसदी वे बच्चे मदरसों में पढऩे आते हैं, जो बेहद गरीब हैं और पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते। भारत में 'शिक्षा का अधिकार' कानून है, जिसके तहत 6-14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य और नि:शुल्क है। कई राज्यों के स्कूलों में सुबह का नाश्ता तक मुफ्त है। दोपहर का भोजन तो सभी स्कूलों में अनिवार्य है। गुणवत्ता के अपवाद हो सकते हैं। केंद्र सरकार ने 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' तैयार की है। यदि मदरसों में उसका अनुपालन नहीं किया जाता, तो यह नीतिगत उल्लंघन है, लिहाजा अपराध है। चूंकि मदरसों के सर्वे किए जा रहे हैं, लिहाजा यह भी जांचा जाए कि औसत अध्यापक को 12,000 रुपए की तनख्वाह ही क्यों दी जाती है, जबकि सरकारी मानदंड कुछ और हैं? उस तनख्वाह के भुगतान में भी घोर अनियमितताएं हैं। उन्हें भी सुधारा जाए। देश भर में मदरसे जांचे जाएं और उनकी व्यवस्था में सुधार किया जाए। यदि वे शिक्षण संस्थान के काबिल नहीं हैं, तो उन्हें बंद भी करा दिया जाए। यह हिंदू-मुसलमान का मुद्दा नहीं है। चुनौतियां सामने हैं कि हम भविष्य की पीढ़ी कैसी तैयार कर रहे हैं। भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए मदरसों का आधुनिकीकरण होना चाहिए। मदरसों में विज्ञान आदि विषयों की पढ़ाई भी होनी चाहिए। प्रौद्योगिकी एक अन्य विषय है, जिसका आज के समय में अध्ययन जरूर होना चाहिए।
Rani Sahu

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