- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- दाखिले से वंचित
Written by जनसत्ता: देश भर में शिक्षा की सूरत पर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है और इसमें सुधार के लिए समय-समय पर तमाम पहलकदमी भी होती रही। लेकिन विडंबना यह है कि आजादी के सात दशक बाद भी इस दिशा में समाधान का कोई ठोस स्वरूप नहीं निकल सका है। इसके उलट बुनियादी शिक्षा के मामले में भी हालत यह है कि अलग-अलग कारणों से लाखों बच्चे स्कूल से बाहर रह जा रहे हैं।
हालांकि पिछले कुछ समय से शिक्षा की सूरत को बदलने के लिए शुरू किए गए तमाम कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा जोर इसी बात पर दिया गया कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराया जाए। मगर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से बुधवार को जारी एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2020-21 के दौरान पूर्व प्राथमिक कक्षाओं यानी नर्सरी और केजी श्रेणी में समूचे देश के स्कूलों में पहले के मुकाबले दाखिलों की तादाद में उनतीस लाख से ज्यादा की गिरावट आई। यही नहीं, इस दौरान कक्षा एक में भी पहले के मुकाबले लगभग उन्नीस लाख कम बच्चों ने दाखिला लिया।
साथ ही प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में दाखिलों में भारी गिरावट के आंकड़ों के बीच यह तथ्य अलग से चिंता पैदा करते हैं कि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के दाखिलों भी इस अवधि में साढ़े तीन फीसद से ज्यादा की कमी दर्ज की गई। अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज के बुनियाद के तौर पर अलग-अलग वर्गों के बच्चों का जीवन किस स्तर पर बाधित हुआ है। सामान्य स्थितियों में भी बच्चों की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई को लेकर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है। ऐसे में विशेष आवश्यकता वाले बच्चे किस तरह की जरूरतों से वंचित हुए होंगे, यह समझा जा सकता है।
यों कुछ मामलों में सुधार के बीच जिस अवधि में शुरुआती कक्षाओं में दाखिलों में गिरावट की यह तस्वीर सामने आई है, उसमें कोरोना संक्रमण और महामारी को इसकी एक वजह माना जा सकता है। मगर बीते करीब दो सालों के दौरान महामारी से बचाव के लिए जिस तरह पूर्णबंदी सहित अन्य सख्त नियम-कायदे लागू किए गए और उसका लोगों के जीवन पर जैसा असर पड़ा, उसके बहुस्तरीय नतीजे स्वाभाविक हैं। यह छिपा नहीं है कि कोरोना की मार से कराहते समूचे देश में जिस पैमाने की पूर्णबंदी लागू हुई थी, उसमें स्कूलों पर भी बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। स्कूलों को बंद रखा गया और ज्यादा जोर आनलाइन पठन-पाठन की ओर दिया गया।
ऐसे में स्कूलों में नियमित कक्षाएं तो बाधित हुर्इं ही, इसके विकल्प में जो व्यवस्था की गई, उसमें शामिल होने के मामले में भी एक बड़ी आबादी ने कई तरह की सीमाओं में खुद को लाचार पाया। संक्रमण का जोर धीमा होने पर कभी स्कूल खुले भी तो खासतौर पर शायद ही किसी निजी स्कूल में फीस में कोई रियायत दी गई। आनलाइन कक्षाओं ने बहुत सारे लोगों के सामने संसाधनों का संकट भी खड़ा किया।
जाहिर है, महामारी के दौरान कई स्तरों पर जनजीवन के ठप होने के चलते आर्थिक लाचारी से गुजरते परिवार कई चुनौतियों से दो-चार थे। इसमें एक असर बच्चों की पढ़ाई शुरू कराने पर पड़ा। सवाल है कि सरकारों ने अगर अर्थव्यवस्था से लेकर समाज तक जीवन के बाकी क्षेत्रों में जनजीवन को सहज बनाने के लिए विशेष उपाय किए, तो क्या शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों को हुए इस नुकसान की भरपाई के लिए अलग से कार्यक्रम चलाए जाएंगे! शिक्षा का अधिकार कानून के तहत बच्चों के कुछ हक हैं और उन्हें सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है।