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- नोटबंदी: तीन आयाम,...
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आर्थिक तर्क पर सरकार बहुत पहले ही मात खा चुकी है, लेकिन वह इसे स्वीकार नहीं करेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि केंद्र सरकार ने नोटबंदी को लेकर कानूनी लड़ाई जीत ली है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने चारः एक के अपने फैसले में याचिकाकर्ताओं के सारे तर्कों को खारिज कर दिया। सर्वोच्च अदालत जब कोई कानून घोषित कर देती है, तब सारे नागरिक अदालत के निष्कर्षों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं। असहमतिपूर्ण निर्णय केवल एक अपील है कि 'भविष्य में कभी कानून की विचारोत्तेजक भावना उस पर गौर करेगी।'
कानूनी आयाम
अदालत ने अपने द्वारा तैयार छह प्रश्नों पर क्या कहा?
1. आरबीआई एक्ट की धारा 26 उपखंड (2) के तहत केंद्र सरकार को मिली शक्तियों का उपयोग बैंक के सभी श्रेणियों के नोटों ( एक या अधिक मूल्यवर्ग के) का विमुद्रीकरण करने के लिए किया जा सकता है।
2. धारा 26, उपखंड (2) वैध है और उसे अत्यधिक प्रत्यायोजन के रूप में रद्द नहीं किया जा सकता।
3. मौजूदा मामले में निर्णय लेने की प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण नहीं थी।
4. आक्षेपित विमुद्रीकरण आनुपातिकता की कसौटी पर खरा उतरा।
5. नोट बदलने के लिए दी गई अवधि उचित थी।
6. आरबीआई के पास निर्धारित अवधि के बाद विमुद्रीकृत नोटों (विनिमय के लिए) को स्वीकार करने की शक्ति नहीं है
नोटबंदी करने की केंद्र सरकार की शक्ति पर, न्यायालय ने कहा कि यह संसद की शक्ति के बराबर थी, बशर्ते कि इस आशय की आरबीआई की सिफारिश हो। निर्णय लेने की प्रक्रिया के बारे में न्यायालय ने कहा कि आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड ने सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार किया था और कैबिनेट ने भी सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार किया था।
न्यायालय ने कुछ टिप्पणियां की हैं, जो पाठक को दिलचस्प लगेंगी : नोटबंदी के लक्ष्य पूरे हुए या नहीं, इस प्रश्न पर न्यायालय ने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए उसके पास विशेषज्ञता नहीं है। लोगों ने जिन कठिनाइयों का सामना किया, उस पर न्यायालय ने कहा कि केवल इसलिए कि कुछ नागरिकों ने कठिनाइयों का सामना किया है, यह कानून की दृष्टि से निर्णय को गलत ठहराने का आधार नहीं होगा।
इस तरह कानूनी मुद्दों पर फैसला सरकार के पक्ष में हुआ।
राजनीतिक आयाम
कानूनी प्रश्नों के उत्तरों ने संभवतः उन बहसों को विराम दे दिया हो, लेकिन दो अन्य आयामों पर बहस शुरू हो चुकी है।
अतीत में दो मौकों पर, 1946 और 1978 में, उच्च मूल्य के बैंक नोटों का एक अध्यादेश के जरिये विमुद्रीकरण किया गया था, जिसे बाद में संसद से पारित एक अधिनियम से बदल दिया गया था। यह पूर्ण विधायी शक्ति की कवायद थी। रिजर्व बैंक के तब के गवर्नर ने नोटबंदी का समर्थन करने से इनकार कर दिया था। इसलिए संसद ने एक अधिनियम पारित किया। अच्छे-बुरे जो भी परिणाम थे और लोगों को जो भी तकलीफ हुई (तब बहुत कम थी) उसकी जिम्मेदारी उन सांसदों की थी, जिन्होंने यह कानून पारित किया था। संसद में तब बहस हुई थी और फैसले की पुष्टि करने से पहले जनता के प्रतिनिधियों ने संभवतः उसके सारे पहलुओं पर विचार किया था।
क्या आठ नवंबर, 2016 को प्रत्यायोजित कार्यकारी शक्ति के प्रयोग के माध्यम से किए गए विमुद्रीकरण के बारे में भी यही कहा जा सकता है? संसद की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। तार्किक रूप से, जनप्रतिनिधियों को इसके उद्देश्यों की विफलता या आर्थिक परिणामों के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
प्रचलन में नकदी 2016 में 17.2 लाख करोड़ रुपये मूल्य से बढ़कर 2022 में 32 लाख करोड़ रुपये हो गई है। जहां तक काले धन की बात है, तो आयकर विभाग या अन्य जांच एजेंसियां अक्सर बरामद करते रहती हैं और गिनती भूल चुकी हैं। रोजाना नकली नोट बरामद होते हैं, जिनमें पांच सौ रुपये के नए नोट और दो हजार रुपये के नोट भी शामिल हैं। आतंकवाद— आतंकवादियों द्वारा निर्दोष नागरिकों की हत्या और आतंकवादियों का मारा जाना— की घटनाएं हर हफ्ते दर्ज हो रही हैं। आतंकवाद का वित्तपोषण बेरोकटोक है और भारत सरकार ने एनएमएफटी (नो मनी फॉर टेरर) पर मंत्रिस्तरीय सम्मेलन के लिए अपने यहां एक स्थायी सचिवालय बनाने की पेशकश की है। नोटबंदी का कौन-सा उद्देश्य पूरा हआ? कोई नहीं। संसद पर इन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए।
अत्यंत महत्व का एक और प्रश्न है। क्या सरकार की प्रत्यायोजित कार्यकारी शक्ति संसद की पूर्ण विधायी शक्ति के बराबर है? आरबीआई एक्ट की धारा 26, उपखंड (2) से संबंधित प्रश्न का समाधान सरकार के पक्ष में हुआ है। लेकिन यदि अन्य अधिनियमों को लेकर ऐसे ही प्रश्न उठे तो क्या उनका भी यही उत्तर होगा? संसद के पास इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर बहस करने का मौका है।
आर्थिक आयाम
न्यायालय ने नोटबंदी की गंभीरता या इस पर विचार करने से इनकार कर दिया कि नोटबंदी के उद्देश्यों और उसके आर्थिक परिणाम तथा लोगों को हुई तकलीफों में क्या कोई संबंध था। कोर्ट ने संयम बरतते हुए सरकार के फैसले को टाल दिया।
हालांकि, जहां तक लोगों का संबंध है, उनके लिए जो सबसे ज्यादा मायने रखता है, वह है इस निर्णय के पीछे की सोच, और मध्यम वर्ग तथा गरीबों, 30 करोड़ दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों, एमएसएमई और किसानों को हुई आर्थिक परेशानियां, जिन्होंने पाया कि कृषि उपज की कीमतें गिर गईं। इसके अलावा, 2016-17 की तीसरी तिमाही (जब विमुद्रीकरण हुआ) के बाद, 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में वार्षिक जीडीपी विकास दर में हर साल गिरावट आई। फिर, महामारी ने प्रहार किया और आर्थिक संकटों को बढ़ाया। लोग इन मुद्दों पर बहस करते रहेंगे।
कानूनी तर्क पर, सरकार ने व्यापक रूप से जीत हासिल की। राजनीतिक तर्क पर, बहस खत्म नहीं हुई है और संसद को इसमें शामिल होना चाहिए। आर्थिक तर्क पर सरकार बहुत पहले ही मात खा चुकी है, लेकिन वह इसे स्वीकार नहीं करेगी।
सोर्स: अमर उजाला
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