सम्पादकीय

आक्रामक संघवाद की ओर बढ़ता लोकतंत्र: संघीय सरकार और राज्य सरकारों में सहयोग और समन्वय बेहद जरूरी

Gulabi
17 Jun 2021 7:35 AM GMT
आक्रामक संघवाद की ओर बढ़ता लोकतंत्र: संघीय सरकार और राज्य सरकारों में सहयोग और समन्वय बेहद जरूरी
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आक्रामक संघवाद की ओर बढ़ता लोकतंत्र

डॉ. एके वर्मा: पिछले कुछ समय से देश न केवल महामारी, कुत्सित चीनी चालों और प्रायोजित देसी आंदोलनों, वरन संघीय व्यवस्था में बढ़ती आक्रामकता से भी जूझ रहा है। इसकी पहल बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की है। वह चुनाव जीतने के बाद से केंद्र पर लगातार हमलावर हैं और उससे खुला असहयोग कर रही हैं। शायद यही बताने वहां के राज्यपाल दिल्ली आए हैं। केंद्र के साथ असहयोग की सबसे खराब बानगी ममता ने तब दिखाई, जब प्रधानमंत्री मोदी ने यास तूफान से नुकसान की समीक्षा बैठक की। इस बैठक में प्रोटोकॉल का उल्लंघन कर ममता मुख्यसचिव के साथ देर से पहुंचीं और मीटिंग छोड़ जल्दी चली गईं। परिणामस्वरूप केंद्र सरकार ने मुख्य सचिव को दिल्ली तलब किया। ममता ने उनसे त्यागपत्र दिलवाकर अपना प्रमुख परामर्शदाता बना दिया, पर दिल्ली न जाने दिया। ममता ने न केवल संघीय सरकार के विरुद्ध आक्रामकता का द्वार खोला है, वरन राजनीतिक एवं प्रशासनिक कार्यपालिका में टकराव का बीजारोपण भी कर दिया है। ममता जिस तरह बंगाल हिंसा पर रोक नहीं लगा रही हैं, वह भी केंद्र के खिलाफ उनके आक्रामक रवैये का सुबूत है।

बंगाल में भाजपा के बढ़ते प्रभाव से ममता आक्रामक
आज महामारी के दौर में संघीय सरकार और राज्य सरकारों में सहयोग और समन्वय बेहद जरूरी है। शायद बंगाल में भाजपा के बढ़ते प्रभाव से ममता आक्रामक हैं, जबकि उन्हेंं सुशासन और विकास पर ध्यान देना चाहिए। ममता को कांग्रेस और वामपंथ की दुर्दशा से सबक लेना चाहिए, जिन्हेंं लंबे समय तक बंगाल में शासन करने के बावजूद एक सीट भी नहीं मिली। आश्चर्य है कि भाजपा बैकफुट पर है, जबकि 2016 के मुकाबले उसे अप्रत्याशित सफलता मिली। यदि कांग्रेस को ऐसी सफलता मिलती तो राहुल गांधी संभवत: कांग्रेस अध्यक्ष बन गए होते। जनता, विरोधी दल या संघ सरकार से बदला लेना लोकतंत्र और संघात्मकता के प्रतिकूल है। अन्य राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं, जिनका मोदी सरकार से विचारधारा, नीतियों और कार्यशैली को लेकर मतभेद है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वे सरकारें प्रधानमंत्री, केंद्र सरकार और संवैधानिक संस्थाओं पर हमलावर हो जाएं। किसी विवाद के समाधान हेतु सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था है, पर वैचारिक स्पर्धा को राजनीतिक संघर्ष का रंग देना और प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना केंद्र और राज्यों, दोनों के लिए अनुचित है।
संघीय-व्यवस्था संविधान का मूल-ढांचा: ममता का व्यवहार संघीय व्यवस्था के लिए अहितकर
सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मुकदमे (1973) में संघीय-व्यवस्था को संविधान का मूल-ढांचा माना, अत: उसे केंद्र या राज्य कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता। ममता ने अपने मुख्य सचिव का जिस तरह राजनीतिक बचाव किया और जिस तरह का पत्र लिखकर संघीय सरकार पर आक्रमण किया, वह देश की संघीय और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए अहितकर है।
केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ती कटुता चिंता का विषय
केंद्र-राज्य संबंधों में बढ़ती कटुता चिंता का विषय है, पर इसका बीजारोपण 1959 में प्रधानमंत्री नेहरू ने किया, जब कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के निर्देश पर उन्होंने केरल में नंबूदरीपाद की निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त किया। तबसे राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों को गिराने, राज्यपालों की नियुक्तियों में मुख्यमंत्रियों से परामर्श न करने और राष्ट्रपति शासन लागू करने जैसी प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। जब 1967 के आम चुनावों में आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी गठबंधन सरकारें बनीं, तब केंद्र-राज्य में तनावपूर्ण संबंधों की पटकथा लिखी गई। 1971 में इंदिरा ने राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर दिया और 25 जून, 1975 को अनु. 352 के अंतर्गत आपातकाल लगा दिया। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और उसने इस आधार पर नौ कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया कि उन्हें जनसमर्थन नहीं है। 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौटी और उसने जनता पार्टी की सरकारों को बर्खास्त कर दिया। इस सिलसिले पर एसआर बोम्मई मुकदमे (1994) ने विराम लगाया और राष्ट्रपति शासन को न्यायिक पुर्निनरीक्षण की परिधि में ला दिया। इसीलिए हाल में बंगाल में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सका, अन्यथा चुनावों के बाद जैसी राजनीतिक हिंसा हुई, उसमें राष्ट्रपति शासन लगाने के पर्याप्त आधार थे।
भारतीय संघीय व्यवस्था में चार महत्वपूर्ण प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं
विगत सात दशकों में भारतीय संघीय व्यवस्था में चार महत्वपूर्ण प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं। इनमें एक है सहयोगी संघवाद। जब तक केंद्र और राज्यों में कांग्रेसी सरकारें रहीं तब तक यह चरण प्रभावी रहा। 1967 में कई राज्यों में मिलीजुली गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं और संघीय व्यवस्था में दूसरा संघर्षात्मक चरण प्रारंभ हुआ। कांग्रेस ने गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को लोकतांत्रिक दृष्टि से नहीं देखा। परिणामस्वरूप केंद्र और राज्यों के बीच तनाव दिखाई देने लगा।
संघीय व्यवस्था में नए युग की शुरुआत
2014 में जब मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी, तब केंद्र ने सभी मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री की मिलीजुली टीम-इंडिया बना कर संघीय व्यवस्था में नए युग की शुरुआत की, जिसे संघवाद का तीसरा प्रतिस्पर्धात्मक चरण कह सकते हैं। मोदी ने राज्य सरकारों को संघ और अन्य राज्यों के साथ सुशासन, विकास और समावेशी राजनीति में प्रतिस्पर्धा करने का आह्वान किया, पर बंगाल के हाल के विधानसभा चुनावों से संघीय व्यवस्था में चौथे चरण आक्रामक संघवाद की शुरुआत हो गई, जो संविधान, लोकतंत्र, संघीय व्यवस्था और राजनीतिक संस्कृति सभी के लिए अशुभ है। इसके लिए संघ और राज्य, दोनों को कुछ मुद्दों पर अपने पैर पीछे खींचने होंगे। जैसे भाजपा को राज्यों में विकास के लिए डबल इंजन सरकार की अवधारणा को त्यागना होगा, क्योंकि चाहे दोनों जगह एक दल की सरकार हो या भिन्न दल की, विकास तो होना ही होगा। इसी प्रकार राज्य में काबिज क्षेत्रीय दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, बीजद आदि दलों को भीतरी बनाम बाहरी के छद्म विभाजन को त्यागना होगा, क्योंकि देश में केवल एक नागरिकता है।
संघीय व्यवस्था: सशक्त एवं गुणवत्तापूर्ण लोकतंत्र स्थापित होना चाहिए
आज यदि भाजपा बंगाल में 77 सीटें जीती है तो आखिर वे सभी हैं तो बंगाल के ही तो फिर ममता द्वारा भाजपा पर बाहरी होने का आरोप कितना उचित है? ऐसे अनेक पहलू हैं जिन पर केंद्र और राज्यों दोनों को सोचना होगा, जिससे संघीय व्यवस्था में सहयोग, समन्वय और स्वस्थ स्पर्धा के फलस्वरूप सशक्त एवं गुणवत्तापूर्ण लोकतंत्र स्थापित हो सके।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )


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